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जीवनी/आत्मकथा >> यशपाल का कहानी संसार

यशपाल का कहानी संसार

सी.एम.योहन्नान

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2005
पृष्ठ :168
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2316
आईएसबीएन :81-8031-042-6

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इसमें यशपाल का जीवन परिचय व शोषित वर्ग के जीवन का यथार्थपरक चित्रण किया गया है...

Yashpal ka kahani sansar

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

यह सर्वविदित है कि यशपाल प्रेमचन्दोत्तर कथाकारों में श्रेष्ठतम हैं। भारतीय जीवन के आदर्शवादी विचारों और व्यवहारों में जो झूठ की दीवारें खड़ी थीं, उन्हें गिराने में यशपाल ने अपनी कलम का इस्तेमाल किया। जीवन का कोई भी क्षेत्र इनके प्रहारों से बच न सका। यशपाल कालजयी लेखक हैं।

कथाकार की हैसियत से यशपाल की लोकप्रियता हिन्दी-जगत में जितनी व्यापक है, हिन्दीतर-जगत् में उससे थोड़ी भी कम नहीं है। इसका कारण यह है कि कथाकार यशपाल ने शोषित वर्ग के जीवन का यथार्थपरक चित्र अंकित किया है।
यशपाल की चर्चा करने का अर्थ है पिछली शताब्दी को याद करना। इससे यह फायदा भी है कि इक्कीसवीं शताब्दी के साम्प्रदायिक माहौल पर फिर सोचने-विचारने के लिए हम बाध्य हो जाते हैं। ‘झूठा-सच’ साम्प्रदायिकता के खतरे से हमें अगाह करता है। यशपाल की कहानियाँ कम शब्दों में जीवन की वास्तविक घटनाओं, स्थितियों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करती हैं। प्रसिद्ध कथाकार गिरिराज किशोर की टिप्पणी बिल्कुल सार्थक है ‘‘यशपाल की कहानियाँ ‘साखी’ की तरह हैं जिनको लगातार व्याख्यायित करने की जरूरत है।’’ यशपाल अपनी रचनाओं में समकालीनता की चर्चा करते थे। उन्होंने वर्ग-भेद, विपन्नता, नारी-विमर्श और यौन वर्जनाओं को अपनी रचनाओं में उठाया है।.....
मेरे पूज्य पिता स्वर्गीय श्री फिलिप्पोस मत्तायी को सादर जिन्होंने मुझे पहला अक्षर सिखाया

प्राक्कथन


यशपाल मेरे प्रिय कथाकार हैं। इसीलिए मैंने उनके कथा साहित्य का बार-बार अध्ययन-अनुशीलन किया है। हर बार वे नयी भंगिमा लेकर मेरे सामने उपस्थित होते हैं। यशपाल-साहित्य का अध्ययन करते हुए मुझे लगा कि वे मलयालम के क्रान्तिकारी कथाकार केशवदेव के समकक्ष हैं। मैंने अपनी पी-एच.डी. के लिए यशपाल और केशवदेव के कहानी साहित्य का तुलनात्मक अध्ययन किया था। यशपाल-साहित्य का अध्ययन मैंने जारी रखा। लगता है कि उनकी कहानियाँ हिन्दी ही की क्या भारतीय साहित्य की धरोहर हैं। इसलिए यहाँ ‘यशपाल का कहानी संसार-एक अंतरंग परिचय’ नाम से उनकी कहानियों का मूल्यांकन किया गया है। यह यशपाल का जन्म-शताब्दी वर्ष है। इस अवसर पर किसी भी कालजयी साहित्यकार के लिए उनकी कृतियों का मूल्यांकन-पुर्नमूल्यांकन उनके प्रति सम्मान का दस्तावेज़ है।

यशपाल का पाठक-वर्ग हिन्दी क्षेत्र तक सीमित नहीं है। उनकी प्रगतिशील विचारधारा ने उनकी कृतियों के अनुवाद की माँग बढ़ायी। परिमाणतः उनकी प्रायः सभी श्रेष्ठ रचना मलयालम में भी अनूदित होकर आयीं। यशपाल मलयालमभाषी के लिए उतने ही प्रिय हैं जितने हिन्दीभाषी के लिए। सच है, कोई भी महान कलाकार स्थान और समय की सीमाओं का अतिक्रमण कर सार्वकालिक और सार्वभौमिक हो जाता है। यशपाल इसी कोटि में आते हैं।
पाँच अध्यायों में विभाजित ‘यशपाल का कहानी संसार :एक अंतरंग परिचय’ आपके सामने प्रस्तुत है।
प्रस्तुत पाठक की रचना में आवश्यक सुझाव एवं परामर्श देकर मेरे आदरणीय गुरुवर डॉ. मुहम्मद कुंज मेत्तर, प्रोफेसर एवं डीन, पौर्वात्य भाषा संकाय, केरल विश्वविद्यालय, तिरुवनन्तपुरम् ने मुझे लाभान्वित किया है। प्रस्तुत पुस्तक के प्रणयन के लिए उन्होंने मुझे प्रोत्साहित ही नहीं किया, बल्कि ‘प्रस्तावना’ लिखकर मुझे अनुगृहीत भी किया है। अतः मैं उनके प्रति अपनी हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ।

प्रस्तुत पुस्तक के प्रकाशन के लिए लोक भारती प्रकाशन के व्यवस्थापक श्री दिनेशचन्द्र जी के प्रति अपना आभार व्यक्त करता हूँ। आशा है यह पुस्तक यशपाल के अध्येताओं एवं विद्यार्थियों के लिए उपयोगी सिद्ध होगी।

यशपाल जन्म-शताब्दी वर्ष-2004
के सुअवसर पर

डॉ. सी.एम.योहन्नान
                            रीडर, हिन्दी विभाग
                        मार इवानियोस कॉलेज,
                        तिरुवनन्तपुरम्- 695015

प्रस्तावना


यशपाल जन्म शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में डॉ. योहन्नान ने यशपाल के कहानी साहित्य का अलोचनात्मक अध्ययन प्रस्तुत करके सुहृदय साहित्य रसिकों एवं विद्यार्थियों का बड़ा उपकार किया है। कथाकार की हैसियत से यशपाल की लोकप्रियता हिन्दी-जगत् में जितनी व्यापक है, हिन्दीतर-जगत् में उससे थोड़ी भी कम नहीं है। इसका कारण यह है कि कथाकार यशपाल ने घोषित वर्ग के जीवन का यथार्थपरक चित्र अंकित किया है।

यशपाल की चर्चा करने का अर्थ है पिछली शताब्दी को याद करना। इससे यह फायदा भी है कि इक्कीसवीं शताब्दी के साम्प्रदायिक माहौल पर फिर सोचने-विचारने के लिए हम बाध्य हो जाते हैं। ‘झूठा-सच’ साम्प्रदायिकता के खतरे से हमें आगाह करता है। यशपाल की कहानियाँ कम शब्दों में जीवन की वास्तविक घटनाओं, स्थितियों का लेखा-जोखा प्रस्तुत करती हैं। प्रसिद्ध कथाकार गिरिराज किशोर की टिप्पणी बिलकुल सार्थक है- ‘‘यशपाल की कहानियाँ ‘साखी’ की तरह हैं जिनको लगातार व्याख्यायित करने की जरूरत है।’’ यशपाल अपनी रचनाओं में समकालीनता की चर्चा करते थे। उन्होंने वर्ग-भेद, विपन्नता, नारी, नारी-विर्मश और यौन वर्जनाओं को अपनी रचनाओं में उठाया है।

प्रस्तुत पुस्तक के प्रणेता डॉ. योहन्नान अध्ययन और शोध में रुचि रखते हैं। यह पुस्तक उनके अध्ययन-अध्यवसाय का सुपरिणाम हैं। प्रस्तुत पुस्तक की रचना के लिए मैं उनको साधुवाद देता हूँ कि वे आगे भी अपनी प्रतिभा से हिन्दी साहित्य का पोषण-संवर्द्धन करेंगे।

कार्यवट्टम-19-4-04

                    डॉ. वी.पी.मुहम्मद कुंज मेत्तर,
                        प्रोफेसर एवं डीन,
            पौर्वात्य भाषा संकाय, दूरशिक्षण संस्थान,
                        केरल विश्वविद्यालय
                        कार्यवट्टम, तिरुवनन्तपुरम्

अध्याय एक
यशपाल : जीवन और व्यक्तित्व


किसी साहित्कार के कृतित्व के मूल्यांकन के लिए उसके व्यक्तित्व का अध्ययन-अनुशीलन अनिवार्य है। क्योंकि व्यक्तित्व प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कृतित्व में छाया रहता है। यही नहीं, कृतित्व के निर्माण का कार्य व्यक्तित्व ही करता है। इस प्रकार व्यक्तित्व और कृतित्व अन्योन्याश्रित हैं गजानन माधव मुक्तिबोध ने अतः यह स्पष्ट हैं कि रचनाकार के जीवन एवं व्यक्तित्व की उपेक्षा करके उसकी रचनाओं का समग्र अनुसंधान या अध्ययन असंभव है। उस दृष्टि से यशपाल के साहित्य का अध्ययन करने के लिए उसके व्यक्तित्व का परिचय पाना आवश्यक है। यशपाल के व्यक्तित्व की यह विशिष्टता है कि उसके दो पहलू स्पष्टतः दृष्टिगोचर होते हैं- क्रान्तिकारी और साहित्यकार का। यह द्विमुखी व्यक्तित्व उन्हें अपने पूर्वजों से नहीं मिला था। सामाजिक परिवेश ने उनको क्रान्तिकारी बनाया था।

यशपाल अजीवन क्रान्तिकारी रहे। साहित्य, राजनीति, पत्रकारिता आदि विभिन्न क्षेत्रों में उन्होंने अपने क्रान्तिकारी व्यक्तित्व की छाप छोड़ी है। उन्होंने हाथ में पिस्तौल लेकर ब्रिटिश सत्ता के सामने विप्लव की आग भड़कायी और क्रानिकारी संज्ञा के पात्र बने। साहित्य के क्षेत्र में अपने प्रगितशील विचारों को प्रस्तुत करके उन्होंने नयी दिशा निर्धारित की। वे मूलतः स्वतंत्र चितंक थे। उन्हें तत्कालीन भारतीय समाज एक ओर ब्रिटिश शासकों के शोषण का शिकार बना हुआ है तो दूसरी ओर वह पाखंड, अंधविश्वास, रूढ़िग्रस्त दुराचार आदि से जीर्ण-जर्जर हो रहा है। विदेशी सत्ता से अपने देश को मुक्त करने के लिए ने क्रान्ति का अवलंब किया। उन्होंने साहित्य में मार्क्सवादी विचारधारा को अपनाकर समाज के नवनिर्माण का दायित्व भी स्वयं ले लिया।
जन्म, पारिवारिक स्थिति और प्रारंभिक शिक्षा- यशपाल के पूर्वज कांगड़ा के निवासी थे। उनके पिता का नाम हीरालाल था और माता का प्रेमदेवी। ये कांगड़ा से पंजाब के फिरोजपुर छावनी में आ बसे। यहाँ 3 दिसंबर, 1903 को यशपाल का जन्म हुआ था। यशपाल की माँ अध्यापिका थीं। इसलिए उन्होंने अपने बेटे की पढ़ाई की व्यवस्था की। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा का कांगड़ा के गुरुकुल में हुई।

बचपन का संस्कार किसी भी व्यक्ति के जीवन को स्थायी रूप से प्रभावित करता है। यशपाल का बचपन आर्यसमाजी वातावरण में बीता था। इनकी माता प्रेमदेवी कट्टर आर्यसमाजी थी। उन्होंने अपने पुत्र यशपाल को समाज सुधारक स्वामी दयानन्द के आदर्शों के अनुकूल आर्य धर्म का तेजस्वी और ब्रह्मचारी प्रचारक बना देने के उद्देश्य से सात-आठ वर्ष की आयु में गुरुकुल में प्रवेश कराया था।
गुरुकुल में पुरानी परंपराओं का पालन ही होता था। नंगे पाँव या खड़ाऊँ पहनकर चलना, काठ के तख्त पर सोना, सख्त सर्दी में सूर्योदय से पहले ठंडेपानी में नहाना और भोजन के बाद अपना लोटा-थाली माँजना, संध्या समय आँखें मूँदे ऊँचे स्वर में मंत्रोच्चारण करना आदि नित्य का नियम-सा था। यशपाल के बाल-मन में इन्हीं परंपराओं के प्रति वितृष्णा ही उत्पन्न हुई थी।

यशपाल के व्यक्तित्व को बड़ी गहराई तक प्रभावित करनेवाला महत्त्वपूर्ण तत्व उनकी गरीबी भी है। घर की गरीबी के कारण गुरुकुल में नि:शुल्क पढ़ता था। वहाँ सब विद्यार्थियों को एक साथ समान व्यवहार का नियम था। परन्तु सम्पत्ति के प्रति आदर की भावना वहाँ भी पहुँच गयी थी। स्कूल में नि:शुल्क पढ़ने की खबर पाकर सहपाठी उसका तिरस्कार करते थे। यह उन्हें उस छोटी आयु में ही असह्य था। इसके संबंध में यशपाल लिखते हैं- ‘‘गुरुकुल में समता की भावना और अधिकार अनुभव हो चुके थे और अपनी गरीबी के लिए तिरस्कार पाने से मेरे मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव पड़ा होगा। गरीबी होने के अपराध के प्रति मैं अपने आपकों किसी भी प्रकार उत्तरदायी नहीं समझ सकता था। अमीर घर के लोगों के प्रति आदर के उदाहरण भी सामने आते रहते थे। मन में सोचता था, मैं खूब अमीर घर की संतान होता तो कितना आदर और सुख मिलता। इस प्रभाव से गरीबी से अपमान के प्रति मैं कभी उदासीन नहीं हो सका, न हो सकूँगा।’’1
गुरुकुल की पढ़ाई समाप्त होने पर उन्हें आर्यसमाजी द्वारा स्थापित एवं संचालित लाहौर के डी.ए.वी. स्कूल में भरती किया गया। इन्ही दिनों उन्होंने ‘अन्दमान की गूँज’, ‘आनन्द मठ’ जैसी पुस्तकें पढ़ीं। नवी से मैट्रिक तक की शिक्षा मनोहार लाल मेमोरियल हाईस्कूल में हुई। नवीं कक्षा में पढ़ते समय यशपाल ने अपने मित्र लाजवन्तराय से मिलकर विदेशी वस्त्रों की होली जलायी और खद्दर पहनने का निश्चय किया। यही नहीं, स्वतंत्रता आंदोलन के प्रचार के लिए देहातों में जाने लगे और कांग्रेस के हर कार्य में सहयोग देते रहे। सन् 1921 ई, में मैट्रिक की परीक्षा में जिले में अव्वल आकर उन्होंने अपनी मेधावी बुद्धि का परिचय दिया।
आर्यसमाजी वातावरण में पलकर बड़े होने का प्रभाव यशपाल के व्यक्तित्व पर कई रूपों में पड़ा। इसमें पहला प्रभाव उनके विचार-स्वातंत्र्य में दीख पड़ता है।
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1. यशपाल : सिंहावलोकन भाग-1, 1984, पृ.44.

 आर्यसमाज का धर्म विषयक दृष्टिकोण अन्य सम्प्रदायों से बिलकुल भिन्न हैं। उसमें तर्क करने की स्वतंत्रता थी। आर्यसमाजी यह मनाता है- ‘‘यस्तर्केणानुसन्धते स: धर्म वेत्ति नेतर:।’’ अर्थात् तर्क के सहारे धर्म का अनुसंधान करनावाला व्यक्ति ही धर्म के सच्चे स्वरूप को जान सकता है, अन्य कोई नहीं। आर्यसमाज की शिक्षा प्रणाली में विद्यार्थी की तर्कशीलता पर कोई अंकुश नहीं होता था। इस संदर्भ में राहुल सांकृत्यायन का कथन द्रष्टव्य है- ‘‘पवित्र-से-पवित्र, कोमल-से-कोमल, सामाजिक धारणाओं पर भी निर्मम और नि:संकोच भाव से आलोचना करने और स्वतंत्र रूप से विचार करने का पूर्ण अवसर आर्यसमाज की शिक्षण संसथाओं में प्राप्त होता हैं। आर्यसमाज की इसी विचार-स्वातंत्र्य में पलकर यशपाल का व्यक्तित्व विद्रोही बना। यह विद्रोही भावना उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व में पायी जाती हैं। यही कारण था कि आगे चलकर 1938 में उन्होंने एक पत्रिका का प्रारंभ किया था जिसका नाम ‘विप्लव’ रखा। इस विप्लव पत्रिका के माध्यम से उन्होंने प्रगतिविरोधी संस्कारों एवं रूढ़ियों से देशवासियों को मुक्त करने का प्रयत्न किया। वे स्वयं रूढ़ियों से मुक्त रहे। अपनी पुत्री के विवाह के अवसर पर ‘कन्यादान’ विधि के मंत्रों का पाठ करने से इन्कार किया था। उन्हें कन्या को वस्तु समझकर ‘दान’ करने की विधि में नारी का शोषण दिखायी पड़ा।

आर्यसमाजी वातावरण में पलने से दूसरा प्रभाव हमें यशपाल की प्रखर राष्ट्रीयता में दिखायी पड़ता है। आर्यसमाजी की शिक्षण संस्थाएँ राष्ट्रीयता का प्रचार करने में सबसे आगे थें। आर्यसमाज का मंच राष्ट्रीयता के प्रचार का भी एक साधन था। विदेशी दास्ता के विरोध की चेतना उन्हें आर्यसमाज के वातावरण से प्राप्त हुई थी।


क्रांति की ओर : पंजाब नेशनल कॉलेज में-

सन् 1922 ई. में यशपाल पंजाब नेशनल कॉलेज में भरती हो गये। इस कॉलेज का उद्देश्य ही स्वराज्य के लिए कार्यकर्ता वर्ग को तैयार करना था। अत: यहाँ के वातावरण में राजनैतिक चेतना के विकास का द्वार खुला हुआ था। राष्ट्रीयता पर वहाँ विशेष बल दिया जाता था। कॉलेज के प्राध्यापक भी राष्ट्रीय भावनाओं से ओतप्रोत वक्तव्यों को विशेष महत्त्व देते थे और उनकी विचारधारा का प्रभाव भी पूरी तरह विद्यार्थियों पर पड़ता था।


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