लोगों की राय

उपन्यास >> विषय नर नारी

विषय नर नारी

विमल मित्र

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2015
पृष्ठ :267
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2353
आईएसबीएन :9788180319990

Like this Hindi book 7 पाठकों को प्रिय

58 पाठक हैं

प्रस्तुत है तीन प्रेम-प्रसंगों का रोचक वर्णन...

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

आखिर इस जीवन में सत्य क्या है ? सुख या दुख ? दार्शनिकों ने इसका जवाब देना चाहा, लेकिन उनका दर्शन एकांगी रहा। नर-नारी के इन्द्रधनुषी सम्पर्क को देख नहीं सके। इसलिये कलम के धनी कुछ लोगों को आना पड़ा जो हमारे-आपके सामने सामान्य हैं और जो जीवन को सही रूप में देख समझ सके। मानव मन की विचित्र गति भी उनसे छिपी न रह सकी। हमारे विमल बाबू ऐसे ही कलम के धनी हैं।
‘विषयः नर नारी’ में विमल बाबू ने तीन प्रेम-प्रसंगों को समेटा है। तीनों के स्वाद अलग-अलग हैं-खारा, मीठा और नमकीन।

* डॉ. बनर्जी की शादी हो गयी तो मिस नायर को फिर कभी न पा सके। आजीवन अनब्याही रहने वाली मिस नायर डॉ. बनर्जी के बेटे की माँ बनी। माँ बनने में उन्हें कोई आपत्ति नहीं हैं, सारी आपत्ति सिर्फ पत्नी बनने में है यह भी एक तरफ का प्यार ही है।

* जमींदारी कब की खत्म हो चुकी थी। ‘पद्मश्री’ बनने के चक्कर में सुरपति राय ने कलकत्ते वाला मकान बेचा, लेकिन वे पद्मश्री नहीं बन सके। इस शोक में वे चल बसे। उस समय उनके घर में सिर्फ उनकी एक अपंग बहन थीं, जिनकी वे शादी भी नहीं कर सके थे। इकलौती बेटी दीप्ती थी, जिनकी माँ बहुत पहले मर चुकी थीं। यह दीप्ती भी उस समय न जाने कहाँ भागी थी। जब वह लौटी, उसके साथ वही साइकिल वाला लड़का था।

* मौसीजी बंगालिन थीं और मौसाजी पंजाबी थे। मौसाजी के मरने के बाद मौसीजी ने उनके ट्रांसपोर्ट का धंधा बखूबी सँभाला। उन्हीं की लड़की चंदना का प्यार एक नौजवान ड्राइवर से हो गया तो बहुत बिगड़ीं। लेकिन जो होना मुमकिन नहीं था, वही हुआ। मौसीजी ने चंदना की शादी तो अच्छे घर में कर दी, लेकिन उन्होंने खुद उस ड्राइवर लड़के से शादी कर ली। यह सब चंदना ने बताया तभी तो पता चला।

 

कहानी लिखने की कहानी

 

आज एक विषय पर बोलने के लिए मुझसे कहा गया है, जिसके बारे में कुछ बोलने का मुझे अधिकार है या नहीं मैं नहीं जानता। कलकत्ता में अनेक डाक्टर हैं। क्या वे सभी चिकित्सा-शास्त्र के ज्ञाता हैं ? इसी तरह जो लोग वकालत करते हैं, जिन्होंने वकालत करते काफी धन कमाया है, मकान बनवाया है और कार खरीदी है, क्या वे सब के सब कानून के जानकार हैं ?
मैं कहानी लिखता हूँ, इसलिए कहानी-लेखन के बारे में जानकार भी हूँ, इस बात को कौन मान लेगा ? ऐसा भी तो हो सकता है कि जीवन के किसी क्षेत्र में मैं कुछ कर नहीं पाया तो उस लाचारी में एक चारा मानकर मैंने कहानी लिखने का काम शुरू किया। इसके अलावा यह भी हो सकता है कि पत्र-पत्रिकाओं में नाम छपवाकर अपना प्रचार करने का दारुण मोह इसके मूल में हो।
हो तो बहुत कुछ सकता है।

लेकिन यह कहना पड़ेगा कि कुछ कहानियाँ मेरे नाम से पत्र-पत्रिकाओं में छपी हैं या पुस्तकाकार में प्रकाशित हुई हैं, तब वे कहानियाँ चाहे जितनी रद्दी हों किसी न किसी अर्थ में मैं भी एक कहानी-लेखक हूँ ! शायद इसीलिए मुझे इस गोष्ठी में बुलाया गया है।
खैर, भूमिका यहीं खत्म हो। असली सवाल यह है कि कैसे कहानी का जन्म होता है ! इस सवाल का जवाब देने की कोशिश करुँगा।

यहाँ एक उपमा की सहायता लेनी पड़ेगी। आप सभी जानते हैं कि गिरस्ती चलाने के लिए रोज हमें नोन-तेल लकड़ी का जुगाड़ करना पड़ता है। इनको कच्चा माल कहा जा सकता है। इनके बिना हमारी गिरस्ती नहीं चलती।
कहानी लिखने के मामले में भी ऐसी बात है। कहानी मन की खुराक है। कहानी के बिना हमारा जीवन मानो बेमजा हो जाता है। फिर वह कहानी महाभारत या उपनिषद् की हो सकती है अथवा कथासरित्सागर की। हाँ, तो इनसान के मन की खुराक जुटाने के लिए कहानीकारों को भी कुछ कच्चे माल का इंतजाम करना पड़ता है। बचपन से समाज में रहकर हर इनसान को कभी सुख तो कभी दु:ख मिलता है। इससे उसका विशिष्ट स्वभाव बनता है। इस प्रकार जिसमें देखने का आग्रह अधिक होता है, वह आगे चलकर वैज्ञानिक बनता है और जिसमें सोचने की प्रवृत्ति अधिक होती है, उसका स्वभाव दार्शनिक जैसा बन जाता है। लेकिन जो सोचता भी ज्यादा है और देखता भी ज्यादा, याने जीवन के हर पहलू पर जिसकी तेजनिगाह रहती है और संसार की हर बात जिसके चिंतन को आकृष्ट करती है वही लेखक बनता है। इसलिए एक मात्र लेखक को ‘टोटल मैन’ कहा जा सकता है। ‘टोटल मैन’ याने ‘पूर्ण मनुष्य।’

इसके द्वारा कच्चा माल बटोरे जाने का इतिहास भी बहुतों ने पढ़ा है। इन लोगों ने अपनी कहानी के लिए कच्चा माल कैसे जुटाया और किस शिल्प-कौशल से उसे रसात्मक वस्तु में परिणत किया, विस्तार से इसका उल्लेख विभिन्न ग्रन्थों में मिलता है। इससे पता चलता है कि कहानी-रचना का पूरा कृतित्व लेखक की बलिष्ठ कल्पना और अक्लांत अनुशीलन पर निर्भर करता है। अनुशीलन के द्वारा यह समझ में आता है कि कौन-सी चीज बाहर की है और कौन-सी अन्दर की, कौन-सी चिरकाल की है और कौन-सी क्षण भर की तथा कौन-सी सिर्फ़ आँखों से देखने की है और कौन-सी मन में सोचने की। तब छान-बीन शुरू होती है। शिष्ट भाषा में उसे ग्रहण-वर्जन कहा जा सकता है। उसी छान-बीन या ग्रहण-वर्जन के समन्वय-साधन पर ही कहानी सार्थकता निर्भर करती है।

अब मैं अपने बारे में कहूँ। जब मैं कहानी लेखक होता हूँ तब इस दृश्य जगत् से मेरा कोई संबंध नहीं रहता। उस समय मुझे अस्तित्व में पहुँचने की कोशिश करनी पड़ती है। कल्पना और अनुभव के सहारे मुझे अपने देखने के अंदाज को सबके देखने के स्तर तक ले जाना पड़ता है। मैं एक व्यक्ति हूँ। मेरे देखने को सबके देखने में रूपांतरित करने के लिए आँखों से देखी और कानों से सुनी किसी घटना को कच्चा माल मानकर उसी से पक्का माल बनाना पड़ता है। लिखने से पहले मन ही मन उस कच्चे माल पर जो कि वास्तविक होता है, कल्पना और अनुभव का मनोरम लेप चढ़ाकर एक मूर्ति बनानी पड़ती है। फिर वह मूर्ति यदि मन की हर माँग पूरी करती है, याने उसके रूप-रंग और अंग-प्रत्यंग यदि मेरे मन की आँखों के आगे भली भाँति स्पष्ट हो जाते हैं तो उसको लेकर लिखने की बात आती है। तभी मैं कलम लेकर बैठता हूँ; उससे पहले नहीं।
एक उदाहरण से बात साफ हो जायेगी।

लेकिन मैं अपना उदाहरण नहीं दूँगा। यह उदाहरण फ्रांसीसी साहित्य तथा विश्वसाहित्य के अन्यतम श्रेष्ठ लेखक बालजाक के जीवन से दे रहा हूँ।
एक बार बालजाक ने एक संपादक से वादा किया कि मैं आपकी पत्रिका के लिए एक कहानी लिखकर अमुक तारीख को दूँगा। पारिश्रमिक के रूप में बालजाक ने कुछ पैसा भी ले लिया। कहानी के उपकरण याने मसाले भी समय से इकटठा कर लिये गये। कहानी एक कलाकार को लेकर लिखी जायेगी। यह कलाकार एक वायोलिन-वादक होगा। कहानी कैसे शुरु की जायेगी, उसका बीच का हिस्सा कैसा रहेगा और अंत में ‘क्लाइमैक्स’ कैसे आयेगा, यह सब तय हो गया। जब सब कुछ तय हो गया। और बालजाक कहानी लिखने बैठे तब नायक का नाम लेकर बखेड़ा खड़ा हो गया। वे जो भी नाम तय करते हैं वह बाद में उन्हीं को पसंद नहीं आता।

अंत में कहानी देने की तारीख आ गयी। लेकिन कहानी का एक अक्षर भी नहीं लिखा जा सका।
निश्चित समय पर संपादक आ पहुँचे।
उन्होंने पूछा-क्या हुआ ? कहानी कहाँ है ? मैंने तो विज्ञापन भी दे दिया है कि आपकी कहानी जा रही है। अब आपकी कहानी नहीं जायेगी तो पाठक मुझे बदनाम करेंगे।
बालजाक ने कहा-सच पूछिए तो कहानी पूरी हो चुकी है। सिर्फ नायक का नाम नहीं मिल रहा है, इसलिए उसे लिख लेने में देर हो रही है। बस, मुझे एक दिन का समय और दीजिए।

संपादक जी दुखी होकर लौट गये। इधर बालजाक पर मानो परेशानी का पहाड़ टूट पड़ा। जमीन-आसमान एक करने पर भी पसंद का कोई नाम उनके दिमाग में नहीं आया। नायक का काम वायोलिन बजाना। जो शख्स ‘आर्टिस्ट’ है, उसे कोई ऐरा-गैरा नाम नहीं दिया जा सकता। नाम के ऐब से सारी कहानी चौपट हो सकती है !
बालजाक अपने दोस्त को लेकर सड़क पर निकले। उस दोस्त ने उनसे कहा कि अरे, नाम के पीछे क्यों परेशान होते हो ? कुछ भी रख लो। इस पर वे बोले-यह सब तुम नहीं समझोगे। अगर समझते तो लेखक बन जाते। नाम ही मेरी कहानी की जान है। नाम बढ़िया नहीं हुआ तो कहानी दो कौड़ी की हो जायेगी।

पैरिस की सड़क के दोनों किनारे कतारों में मकानों को देखते हुए वे चले। प्राय: हर मकान के फाटक पर दीवार में उस मकान में रहने वाले के नाम का टैबलेट लगी हुआ है। किसी का नाम टॉम है तो किसी का डिक, तो किसी का हैरी। बालजाक को एक भी नाम पसंद नहीं आया। वे चलते गये। एक जगह एक नाम के पास पहुँचकर वे रुक गये। वाह ! बड़ा बढ़िया नाम है। इतनी देर बाद उनकी पसंद का नाम मिला है।
बालजाक ने अपने दोस्त से कहा-तुम एक बार अन्दर जाकर पता लगा आओ कि ये सज्जन क्या करते हैं ! ये जरूर कोई कलाकार होंगे। दोस्त अन्दर गये और थोड़ी देर बाद

प्रथम पृष्ठ

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai