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दूसरा कृष्ण

युगेश्वर

प्रकाशक : लोकभारती प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 1999
पृष्ठ :111
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2364
आईएसबीएन :00000

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इसमें श्रीकृष्ण के तीन रूपों का वर्णन किया गया है...

Doosara Krishna

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अवतारों का उद्देश्य अन्याय अनाचार मिटाना है ! सामाजिक न्याय की स्थापना है। अवतार कभी-कभी होते हैं। शास्त्र सनातन हैं। कृष्ण अवतार थे। व्यास अवतार हैं। दोनों ही यमुना के किनारे पैदा हुए थे। यमुना, कृष्ण, व्यास तीनों ही कृष्ण हैं। कृष्ण पर सर्वोत्तम लिखने तथा कृष्ण भक्ति के कारण भी कृष्ण हैं। दूसरा कृष्ण दोनों का संबंध महाभारत से है। एक कृष्ण महाभारत युद्ध कथा के नायक हैं। दूसरा कृष्ण उस कथा के सर्जक।

प्रथम कृष्ण की लीला की सीमा है। गोकुल, मथुरा, द्वारिका। दूसरा कृष्ण स्थान की अपेक्षा शास्त्र से व्यापक है। व्यास की रचनाएँ समस्य भारत रचना, संगीत, शास्त्र, सामाजिक आर्थिक व्यवस्था का आधार है। जहाँ भी जिस रूप में भारत है, सर्वत्र व्यास हैं-दूसरा कृष्ण।

व्यास ने नियोग द्वारा कुरुवंश को स्थायी करना चाहा था। किन्तु वह हो न सका। कौरव आपसी युद्ध में नष्ट हो गये। शांतिपर्व में विशाल सामाजिक नियमों की स्थापना की। एक दिन अपने ही पुत्र से पराजित थे व्यास। ढेरों-ढेरों शास्त्र नहीं। भगवान का भजन आवश्यक है। महाभारत व्यास के युद्ध और नाश की कथा है। भागवत में व्यास उसी कृष्ण के हाथों में वंशी थमाकर भक्ति की स्थापना करते हैं। वैदिक वांङ्मय से लेकर भगवान तक व्यास ने शास्त्र और समाज की लंबी यात्रा की है। नाना प्रकार के देश, समाज, विचार, दर्शन, काव्य, कथा हैं व्यास के साहित्य में। मंत्र और कथा महासमर एवं महारस, स्त्री के प्रति घोर वैराग्य तथा हजारों पत्नियों वाले के अनेक काव्य पुराण लिखे हैं व्यास ने। वेद, वेदांत भी व्यास के। पुराण-उप-पुराण एवं अनेक टीकाएँ, व्याख्याएँ भी व्यास की। तुलसी-दास कहते हैं-राम न सकहिंनामें गुन भाई। ऐसे व्यास ने कितना लिखा, क्या-क्या लिखा ? उस अनंत, सगुण साकार की गणना व्यास से भी संभव होगा, इसमें संदेह है।
उसी महान लेखक ईश्वर की प्रतिनिधि, कृष्ण के द्वितीय स्वरूप व्यास की कथा है ‘‘दूसरा कृष्ण’’

आरंभिक

महाभारत में तीन कृष्ण हैं। वासुदेव कृष्ण, अर्जुन कृष्ण, द्वैपायन कृष्ण व्यास। वासुदेव स्वयं परमात्मा हैं। अर्जुन परमात्मा की लोक कर्म हैं। व्यास परमात्मा और उसके कर्म के लेखक हैं। भाषाबद्ध करने वाले। श्रेष्ठ रचनाकार अपने रच्य का ही एक रूप है। अतः व्यास भी कृष्ण हैं। तीन कृष्णों की यह प्राचीन मान्यता प्रमाणित करती है—रच्य, रचना और रचनाकार में गहरी एकता है। कीट भृंग न्याय से रचनाकार भी रच्य बन जाता है। रच्य बनकर ही रचना करता है।
महर्षि व्यास भारत ज्ञान के महापुरुष क्या स्वतः भगवान् हैं। इन्हें एक छोटी पुस्तक में उतारना संभव नहीं। मरणधर्मा की सामर्थ्य भी नहीं। फिर भी पूजा पुष्प के रूप में...
ता. 24/4/98
वेदांत, सी 33/78-4
चनुआ छित्तूपुरा, वाराणसी—2

-युगेश्वर

रामायण महर्षि पराशर का प्रिय ग्रंथ है। अकसर ही रामायण पाठ में महर्षि तन्मय रहते हैं। जागते-सोते, उठते-बैठते प्रायः रामायण के श्लोक उनके अधरों पर थिरकते हैं। उन्हें वाल्मीकि मुनि का शिकारी से संन्यासी होने की कथा अत्यंत प्रभावित किये है। निराशा की कोई बात नहीं। सर्वत्र सबमें सुधार संभव है। प्रत्येक शरीर में भोग और भगवान् दोनों का निवास है। यही कारण है। वाल्मीकि डाकू से मुनि हो गये। किंतु यह महत्त्वहीन है। क्योंकि अज्ञानी का ज्ञानी होना तो सामान्य बात है। जड़ों में चेतना का विकास होता है। परमात्मा की क्रीड़ा में कभी जड़ चेतन और कभी जड़ जैसा व्यवहार करता है। फिर जड़ हो या चेतन। दोनों ही तो परमात्मा के रूप हैं। परमात्म स्वरूप है।

आज महर्षि की चिंता एक दूसरी बात को लेकर है। रामायण को भारत का प्रथम आदि-काव्य कहा जाता है। इस आदि काव्य का आरंभ महर्षि वाल्मीकि के शोक से होता है। शोकः श्लोकत्वमागतः। वह शोक भी अपना नहीं। एक क्रौंच युगल का।
महर्षि वाल्मीकि गृहस्थ थे। इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता है। संभवतः वे बाल ब्रह्मचारी थे। ब्रह्मचर्य व्रत में तप्त, उर्ध्वरेता ऋषि वाल्मीकि प्रातः स्नान के लिये तमसा तट पर गये थे। वहाँ एक क्रौंच युगल आपस में संभोगरत थे। इसी बीच एक व्याध ने पुरुष क्रौंच को बाणविद्ध कर दिया। बाण की चोट से क्रौंच तड़पने लगा। पति क्रौंच को लगे आघात ने क्रौंची को व्यथित कर दिया। रतिरस का प्रवाहित स्रोत अचानक रुक गया। पति का शिथिल, पीड़ित शरीर अलग हो गया। विरति रक्त चारों ओर फैला था। उसी में अभी-अभी आनंद का महानायक छटपटा कर धीरे-धीरे मूर्च्छा की ओर बढ़ रहा था। क्रौंची अपने पति को इस दशा में देखकर चीत्कार करने लगी। वह पति के समीप लोटने लगी। उसकी देह रक्त से सन गयी।

महर्षि वाल्मीकि के ब्रह्मचारी मन ने यह सब देखा। उनके निर्मल, निर्गुण मन में करुणा ने अधिकार किया। संभवतः उनमें एक साथ ही क्रौंच-क्रौंची की युग्म स्थितियाँ उभरीं।
महर्षि पराशर रामायण की इस स्थिति से अभिभूत हैं। वे महर्षि वाल्मीकि हो गये हैं।
वाल्मीकि का स्वच्छ मन। प्रातः वेला और तमसा का तट। महर्षि पराशर भी एक नदी के किनारे हैं।
महर्षि पराशर में क्रौंच-क्रौंची की रति का रस आते-आते सूख गया है। उनकी दृष्टि में दो तड़पते जीवन हैं। उनमें से एक विराट् करुणा फैलाकर शांत हो गया। लेकिन क्रौंची विकल है। क्या करे ? कितनी भयानक क्रूरता हुई। निरपराध का वध। अपने स्वाद के लिये दूसरे के स्वत्व का वध। क्रौंची नहीं जानती। उसे किस अपराध का दंड मिला है ?
पराशर की मुख्य चिंता है। महर्षि वाल्मीकि के शोक का स्थान कौन है ? कहाँ है ? क्रौंच का मरना, क्रौंची का तड़पना, रतिरस में बाधा या सर्व का सम्मिलित स्वरूप ?

नर पक्षी के ही वध का विधान है। आखेट नया भी नहीं है। नयी थीं वे स्थितियाँ जिनमें क्रौंच का वध हुआ था।
नयी भी क्या थीं ? राक्षसों ने कब नहीं ऐसा किया है ? राक्षस और व्याध में क्या अंतर है ? पशु, पक्षी का बधिक व्याधा कहा जाता है और मानव के हत्यारे को राक्षस कहते हैं।
पराशर का मन गहरी वेदना से भर गया। वे एक विधवा माता के पुत्र हैं। वसिष्ठ ऋषि के आचार संपन्न और उत्तम कुल के रहते भी उनके पिता शक्ति (वसिष्ठ पुत्र) को राक्षस कल्माषपाद खा गया था। उस समय पराशर माता की कुक्षि (गर्भ) में थे। पिता के मरते समय उन्होंने माता का चीत्कार सुना था। आँसुओं से भीगे उनके नेत्रों की अनुभूति की थी। बाह्म आँसुओं के अतिरिक्त माता अदृश्यंती के भीतर के अश्रु प्रवाह की शक्ति को भिगोया था। उसके ताप ने उन्हें व्यथित किया। किंतु ब्राह्मण बालक क्या कर सकता था ? अधिक से अधिक उसकी शक्ति शाप देने में है। किंतु शाप का परिणाम भयानक होता है। शाप शस्त्र जैसी ही हिंसक है। और हिंसा ब्राह्मण को पतित बना देती है।

पिता शक्ति ने अपने यजमान राजा सौदास को शाप दिया था। इसी राजा का नाम मित्रसह भी था। ये कल्माषपाद भी कहे जाते थे।
ऋषि शक्ति ने मित्रसह को राक्षस होने का शाप दिया था। शाप भी क्या ? सब कुछ तो लोक स्वभाव है। शस्त्रहीन के क्रोध की अभिव्यक्ति है। दुर्बलों द्वारा दिया जाने वाला बल दंड है। शासन से क्रुद्ध लोकशक्ति राजा और राज्यशक्ति को शापित करती है।

वसिष्ठनंदन शक्ति उसी लोकशक्ति का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। यह कथा उस समय की है, जब क्षत्रिय विश्वामित्र ने अपनी तपस्या से ब्राह्मण वसिष्ठ को पराजित किया था। क्षत्रिय से ब्राह्मण का पद प्राप्त किया था। निश्चय ही इसका प्रभाव अन्य क्षत्रिय राजाओं पर हुआ होगा। इन्हीं राजाओं में इक्ष्वाकुवंशी राजा कल्माषपाद भी थे। ब्राह्मण बनने के बाद विश्वामित्र इन्हें अपना यजमान बनाना चाहते थे। राजा मित्रसह का मन द्वैध में था। वे अपने परंपरित गुरु को रखें या नये गुरु विश्वामित्र को बना लें। परंपरित गुरु के प्रति उनकी निष्ठा की जड़ हिलने लगी थी। काल प्रवाह में जमे भी तो कैसे ? उसे हर क्षण विश्वामित्र अस्थिर किए रहते थे। फिर भी राजा मित्रसह दुविधा में थे। राज्यशक्ति परंपरा पर अधिक भरोसा रखती है। शीघ्र परिवर्तन में उसे अस्थिरता और तज्जन्य पतन का भय रहता है। किंतु इस द्वैध ने राजा के मन में ब्राह्मण की उपेक्षा और अहंकार के भाव उत्पन्न कर दिये थे।

एक दिन की बात है। वसिष्ठ पुत्र शक्ति एकायन मार्ग (जिस रास्ते पर विरुद्ध दिशा से दो व्यक्ति नहीं, आ, जा सकते हैं) द्वारा पूर्व दिशा से आ रहे थे। दूसरी ओर (पश्चिम) से आ रहे थे राजा कल्माषपाद। एक के लिए ही रास्ता है। एक का हटना आवश्यक है। राजा को राजदंड का अहंकार है। ब्राह्मण शक्ति अपने ब्राह्मणत्व में थे। वर्ण व्यवस्था में राज्य शक्ति का स्थान दूसरा है। अतः राजा को ही हटना था। किंतु राजा ने हटना तो कौन कहे उन्होंने ऋषि शक्ति को कोड़ों से मारना प्रारंभ कर दिया।

कहते हैं उस समय राजा स्वस्थ नहीं थे। वे वन में आखेट से लौट रहे थे। अतः भूख, प्यास से अधीर हो रहे थे।
राजा का यह कर्म राक्षसों जैसा था। अतः शक्ति ने राजा को राक्षस होने का शाप दे दिया।
शक्ति के शाप से राजा कल्माषपाद राक्षस हो गये। राक्षस बने राजा ने अपना प्रथम ग्रास शक्ति को बनाया। शाप देने के क्रोध में शक्ति भूल गये। राज्यशक्ति तो यों भी राक्षसाधीन होती है। इससे वह प्रथम ग्रास विद्या और विद्या संपन्न को बनाती है। क्योंकि दंड तो उसके पास है। उसके भय के कारण तपस्वी और विद्वान हैं। राज्यशक्ति का स्वभाव है कि वह तपस्या से अधिक भयभीत रहती है। बुद्धिमान राज्यशक्ति अपनी क्रय एवं संरक्षण शक्ति से विद्या को वश में रखती है।
दादा वसिष्ठ ने पराशर को समझाया—वत्स, क्रोध ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध है। क्रोध को सदा ही अक्रोध से जीतना चाहिए। क्रोध का संबद्ध लोभ से है। लोभ ही क्रोध का कारण है। राज्य शक्ति के पतन का दोष राजन्य और ऋषि दोनों पर समान है। कामी, क्रोधी, लोभी ऋषि राज्यशक्ति को पतित बनाते हैं। कल्माषपाद के पतन का दोष तुम्हारे पिता शक्ति पर भी है। अतः तुम्हें कभी भी राजा पर क्रोध नहीं करना चाहिए।

पराशर ने दादा वसिष्ठ की शिक्षा सिर झुकाकर स्वीकार की। वे सदा-सदा के लिये क्रोध मुक्त हो गये।

राजा कल्माषपाद का पतन बढ़ रहा था। एक दिन उन्होंने देखा। वन के एक अत्यंत निर्जन स्थान पर एक ब्राह्मण अपनी ब्राह्मणी का ऋतुकाल पूर्ण करने में संलग्न हैं। उस समय राजा भूख से व्याकुल थे। उसी समय उन्होंने अपनी भूख शांति के लिये ब्राह्मण को अपने अधिकार में कर लिया।
अपने पति को राक्षस भावापन्न राजा के अधिकार में चले जाने से ब्राह्मणी का रति सुख बाधित हो गया। राजा की बाँहों में ब्राह्मण भय से काँप रहे थे। राजा नहीं, वे मृत्यु के अधीन थे। मानो साक्षात् यम ने उन्हें पकड़ लिया था। ब्राह्मण कुछ बोलने में असमर्थ थे। राजा उनकी देह के मांस को नोच रहे थे। शरीर से निकलते रक्त का पान कर रहे थे। राजा जीभ निकाल-निकाल कर अपने ओठों को चाट रहे थे। ब्राह्मणप्राण शून्य हो रहे थे। राजा सुस्वादु रक्त को पीकर अट्टहास कर रहे थे।

अपने पति की इस स्थिति को देख ब्राह्मणी पीड़ा से छटपटाने लगी। उसने राजा से प्रार्थना की—‘राजन् इस समय मेरा ऋतुकाल प्राप्त है। मैं पति के कष्ट से अत्यंत कष्ट पा रही हूँ। संतान की इच्छा से ही मैं इस एकांत में पति के पास आयी थी। अभी मेरी इच्छा पूर्ण नहीं हुई है। ऐसे में आपके इस आक्रमण ने घोर अनर्थ किया है। मेरी आपसे प्रार्थना है। अभी भी मेरे पति को मुक्त करें। इससे आपका मंगल होगा।

किंतु राक्षस राजा पर ब्राह्मणी की वेदना, तड़प और प्रार्थना का कोई प्रभाव नहीं हुआ। राक्षस राजा ब्राह्मण को खाता रहा। खा गया। एक तरफ राजा सुस्वादु भोजन कर रहा था। दूसरी तरफ असहाय ब्राह्मणी वेदना से विलाप कर रही थी।
कुछ ही देर में ब्राह्मण कालेय राक्षस राजा के दाँतों के नीचे था। ब्राह्मणी पीड़ा से चेतना-शून्य हो धरती पर गिर पड़ी।
चेतना लौटने पर उसने देखा—राजा प्रसन्नता से हँस रहा है। उसे ब्राह्मण के मरने का कोई दुख नहीं था।
उदरपूर्ति के सुख ने राजा को आश्वस्त कर दिया था। वे डकार पर डकार ले रहे थे।
उधर ब्राह्मणी पति वियोग से बाणविद्ध मृग-सा तड़प रही थी। भोजन द्वारा राजा का बढ़ता सुख एक नारी का दुख बन रहा था।

स्त्री ने देखा। उसके पति का सम्पूर्ण अस्तित्व समाप्त हो गया है। उसका सदा-सदा के लिए पति वियोग हो गया है। अभी-अभी कुछ ही क्षणों की बात है। वह अपने पति के साथ थी। उनके स्पर्श की अलौकिक आनंद में थी। किंतु दुष्ट राजा ने अचानक उस सुख को छीनकर भयानक दुख दे दिया। वह अचानक ही अपने स्वर्ग से धक्कामार कर गिरा दी गयी है।
राजन्, तुम्हारी लोलुपता ने कितना बड़ा अन्याय किया। तुम्हारे लिये सारे सुख-दुख गौण हैं। तुम इंद्रिय स्वाद के दास हो। क्रूरता, कठोरता के सम्मिलित प्रतिनिधि हो।
मैं संपूर्ण राज्यसत्ता को शापित नहीं करना चाहती हूँ। क्योंकि सत्ता का रचनात्मक पक्ष भी है। राज्यसत्ता के अभाव में लोक में अराजकता उत्पन्न हो जायगी। लोग के अस्तित्व पर आ बनेगी। इस दुख में भी मुझे अपने धर्म का ज्ञान है। मैं तुम्हें शाप देती हूँ। आज के बाद तुम स्त्री संपर्क के लिये व्यर्थ हो जाओगे। स्त्री का स्पर्श करते ही तुम्हें मृत्यु बाण नष्ट कर देगा।
राजा को शाप देकर स्त्री अपने पति के बचे शव को चिता पर रखकर स्वयं भी जलने लगी। थोड़े ही समय में वह जलकर समाप्त हो गयी।

ऋषि पराशर के निर्गुण, निराकार हृदय में वेदना का ह्रद बन गया। वे लोक की इस स्थिति से संतप्त हो गये।....जीवन क्या है ? कितना अन्याय, दुख और और पीड़ा है इस जगत् में....? जगत संभवतः दुखों का भांडागार है।
ऋषि पराशर ने पिता के अभाव की कभी अनुभूति नहीं की थी। दादा वसिष्ठ को ही वे अपना पिता मानते थे।...अचानक एक दिन माता अदृश्यंती ने बताया था....वसिष्ठ तुम्हारे पिता नहीं, पिता के पिता, दादा हैं। तुम्हारे पिता को...वाक्य पूरा होने के पूर्व ही माता की आँखें झरने लगी थीं। उनकी वाणी रुद्ध हो गयी थी। उन्होंने बलपूर्वक पुत्र पराशर को अपनी बाँहों में समेट लिया था। काफी देर तक अपने आँसुओं से पराशर को भिगोते रही थीं।

तभी पराशर को अपनी और अपने माता-पिता की स्थिति का ज्ञान हुआ था। इसके पूर्व वे माता के दुख को देखकर भी उसका अर्थ नहीं समझते थे। कभी समझने का प्रयत्न भी नहीं किया था। किंतु एक दिन। हाँ, वह दिन...पराशर के जीवन का महत्त्वपूर्ण दिन था। वे प्रायः ही दादा वसिष्ठ को ‘तात’ कहकर संबोधन करते थे। उनकी तपस्या की सामग्रियाँ जुटाते थे। उस दिन वसिष्ठ को ‘तात’ कहने पर माता ने पराशर को सारी स्थितियों से परिचित कराया था।
ऋषि पराशर ने पिता को नहीं देखा था। पिता की मृत्यु का बोध भी उन्हें नहीं था। वे केवल माता की पीड़ा देखते थे। यद्यपि माता अदृश्यंती का प्रयत्न होता था। अबोध बालक को अपनी पीड़ा की अनुभूति न होने दे। किंतु बालक स्वयं संवेदनशील होता है। उसका अज्ञान वस्तु और बाह्य के प्रति होता है। आंतरिक संवेदना में वह प्रौढ़ों-सा प्रौढ़ होता है। बुद्धिमान दम्पत्ति बालक की संवेदना के प्रति सदा सावधान रहते हैं।

पराशर ने पति के वियोग में संतप्त अपनी माता को देखा था। ऋषि पत्नी की कथा सुनी थी। महर्षि वाल्मीकि की क्रौंची की वेदना से परिचित हुए थे। अब उन्हें समझते देर नहीं लगी। वाल्मीकि मुनि की करुणा का केन्द्र कहाँ है ? इसके अन्य प्रमाण भी थे।
ऋषि वाल्मीकि ने राम को नहीं, सीता को संरक्षण दिया था। गर्भावस्था में परित्यक्ता सीता देवी को ऋषि वाल्मीकि के आश्रम में आश्रय मिला था। वे सीता की पीड़ा से परिचित हुए थे। पति वियोग में दुखी नारी ने उनके मन को आविष्ट किया था। संभवतः ऋषि जानते थे। करुणा की आवश्यकता पुरुष नहीं, स्त्री को है। प्रकृति ने स्त्री को कोमल बनाया है। इस कोमल को सदा ही सहायता एवं सहानुभूति की आवश्यकता है। बहुत विचार कर ऋषि वाल्मीकि ने रावण का वध और सीता चरित लिखने का विनिश्चय किया था। सीतायाश्चरितं महत्।

ठीक भी तो है। रावण क्या है ? सीता देवी का अपहर्ता। देवी सीता के शांत, सुस्थिर और प्रेम संकुल जीवन को नष्ट करने वाला व्याधा, राजा मित्रसह। राक्षस व्याधा/व्याधा......राक्षस......।
ऋषि पराशर देखते हैं। दादा वसिष्ठ के निदेश उन्हें क्रोध नहीं करने देते। किंतु घटनाएँ उनके मन में उमड़ने लगती हैं। पिता शक्ति के मरते समय वे माता के गर्भ में थे। अयोध्या के राज्य से निष्कासित देवी सीता भी गर्भवती थीं।
यह संयोग है या कि लोक की कठोरता है ? स्त्री के प्रति दया का अभाव से बढ़कर क्रूरता है। राजा हो या रंक। स्त्री के प्रति क्रूर है। गर्भावस्था की स्त्री भी उसकी क्रूरता से मुक्त नहीं है।

ऋषि पराशर का मन स्त्री के प्रति करुणा से भर गया। वे जानते हैं। स्त्री के प्रति की गयी करुणा तपस्या में बाधक होगी। क्योंकि स्त्री में आकर्षण की भारी शक्ति है। स्त्री अपने आकर्षण से भी कष्ट पाती है। उसका आकर्षण पुरुष को विकल करता है। उसके शांत मन में ताप के वायु का संचरण करता है। उस समय पुरुष करुणा भूलकर कठोर बन जाता है। पूरी शक्ति से स्त्री को भोग की वस्तु बना लेता है। स्त्री पुरुष बल के इंद्रधनुष में दब जाती है। किंतु यही स्त्री का सुख भी है।
ऋषि पराशर के मन में परिवर्तन आया। अब वे स्त्री के भोगमय चिंतन में थे। उन्हें स्त्री और पुरुष के स्पष्ट अंतर का बोध हो रहा था। स्त्री सुख है। तब इस सुख की कल्पना ने ऋषि की संपूर्ण शक्ति को आविष्ट कर लिया।

अभी तक शास्त्र और साधना का चिंतन स्त्री चिंतन में बदल गया। ऋषि पराशर में जगन्नियंता परमात्मा का ध्यान किया। यह क्या प्रभु ? कैसी है तुम्हारी माया ? एक प्रेमी युगल का वध ! रस रति का भंग। दूसरी ओर स्त्री पुरुष का आकर्षण।
प्रातःकाल के धुँधलके में ऋषि ने किसी छाया की अनुभूति की। कोई पग ध्वनि धमक रही है। मलयवात की गंध में एक और गंध वासित हो रही है। आम्रवृक्षों के मंजरों में एक नयी गंध ने आवास बनाया है। पार्श्व के पक्षियों की भाषा बदल गयी है। पशुओं के झुण्ड में आंदोलन है। रति पिपाशू नंदीगण गायों के पीछे हुंकार कर रहे हैं। पुच्छ उठायी गायें वन प्रांत की ओर दौड़ रही हैं। उनके प्रौढ़ वत्स पीछे छूट गए हैं। पुष्पी गो-वृंद में राग का उद्वेलन है। उन्होंने दौड़ना बंद कर दिया है। किंतु अभी-भी आगे चल रही हैं। उनके प्रेम में मत्त बलिवर्द उत्तेजित हैं। उनकी राह रोके बिना वे अनुसरण कर रहे हैं। दोनों पक्षों से हुंकार की स्वीकृति का नाद वन प्रांत को गुंजित कर रहा था।

भागती नदी की लहरें और उत्तेजित हैं। बिना रुके, झुके सागर प्रियतम की ओर चली जा रही हैं। गायों के दौड़ने से संपूर्ण वात आवरण ने सुगंध से भरी धूलि का एक और आवरण बना लिया है। वृक्षों का पक्षी समुदाय मंगल गीत गा रहा है। वंश वृक्षों से टकराती वायु वाद्य बन गयी है। वन की हरियाली और हरी हो गयी है। कोमल किंशुक पुष्पों के खिलने से वनश्री का मुख आरक्त है। सरोवरों में खिले नीलोत्पलों के नेत्र खुल गये हैं। मानो सहस्राक्ष मघवा अपने सहस्रों नेत्र से प्रकृति यष्टि का विभालन कर रहे हैं।

मुनि पराशर के लिये यह सब नया नहीं था। प्रकृति की यह लीला उन्होंने न जाने कितनी बार देखी है। किंतु तब मुनि प्रायः ही निरपेक्ष रहते। सदा अपने वैराग्य दुर्ग में प्रविष्ट होकर बाहर के आगमन मार्ग को यंत्रित कर सब कुछ से अलग हो जाते थे। परमात्म ध्यान में इतने तल्लीन रहते कि क्षुधा पिपासा को विस्मृत कर देते थे। शिष्यों द्वारा स्मरण एवं आग्रह पर कभी कभार कुछ ग्रहण करते। वरना शून्य ही उनका खाद्य बनता था। किंतु आज स्थिति कुछ भिन्न है। आज ऋषि का मन बहिः प्रकृति पर है। अंतर के परमात्मा को भूलकर वे बाहर की प्रकृति देखने में लीन हैं। जिस छाया की अनूभूति अभी-अभी उन्हें हुई थी वह छाया मात्र नहीं है। वह ज्योतिवर्तिका जैसी एक नारी विग्रह है। किंतु कहाँ है नारी ?

ऋषि किसी पूर्व संस्कार से अभिभूत हो रहे थे। कुछ था, जो उनके भीतर जागरण कर रहा था। जैसे कोई दुर्दमनी असुर किसी आघात से जागता हो। उठते ही क्षुधा पिपासा से, भयानक तृष्णा से जो भी सामने दीखता है, उसे उदरपूर्ति का साधन बनाता है।
ऋषि का मन था न। वर्षों की तपस्या और जन्मजन्मांतर के संस्कारों के घात-प्रतिघात ने अपना मुँह खोल दिया। ऋषि आँखें खोलकर नारी विग्रह का अवलोकन करने लगे। किंतु उन्हें कुछ दिखायी नहीं पड़ा।
केवल भ्रम, केवल भ्रम। हाँ, मात्र भ्रम।

किंतु भ्रम का भी कोई न कोई अधिष्ठान, कारण आवश्यक है। आखिर यह भ्रम हुआ ही क्यों, कैसे ?
ऋषि जितना सोचते, मन की आकूलता बढ़ती जाती। फिर भी सावधान थे। वे जानते थे। दैवी शक्तियाँ सक्रिय हैं। वे ऋषि तपस्या को भ्रमित करने के प्रयत्न में रहती हैं। कभी इसी प्रकार की छायाओं से विचलित कराती हैं। कभी प्रत्यक्ष ही अप्सराओं को प्रेरित करती हैं।

एक बार ऋषि विश्वामित्र ने मेनका अप्सरा से पूछा था। हुआ यह कि मेनका ने ऋषि को अपने रूप जाल में फँसा लिया था। ऋषि उसके जाल में फँसे रहे। एक दिन ऋषि को अपनी भूल का, तपस्या का स्खलन का ध्यान आया। मेनका का भी काम हो गया था। वह ऋषि को त्याग कर जा रही थी। ऋषि को उसके जाने का कोई दुख नहीं था। उल्टे वे प्रसन्न हो रहे थे। मेनका उन्हें छोड़ रही है। जा रही है।

पुरुष स्त्री के वियोग से दुखी होता है। किंतु ऋषि विश्वामित्र स्त्री संयोग से दुखी थे। वे अपने पाप का प्रायश्चित करना चाहते थे। उन्हें मेनका के समागम की पीड़ा दुख दे रही थी।
उसी दुख में उन्होंने मेनका से पूछा—मेनके, जाते-जाते एक प्रश्न का उत्तर देती जाओ।
ऋषि की बात को सुनकर मेनका हँसी थी। ऐसा कौन-सा प्रश्न है जिसका उत्तर ऋषि के पास नहीं, अभिनेत्री के पास है।
ऋषि ने बिना हतप्रभ हुए कहा था—हाँ है। उस प्रश्न का उत्तर अभिनेत्री ही दे सकती है। क्योंकि यह प्रश्न उसके चरित्र से सम्बद्ध है।


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