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कविता संग्रह >> सांध्य काकली

सांध्य काकली

सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2009
पृष्ठ :91
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2432
आईएसबीएन :9788171789375

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निराला जी की उत्कृष्ट कविताओं का संग्रह

Sandhya Kakli

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

‘निरालाजी की ये अन्तिम कविताएँ अनेक दृष्टियों से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। उनके विचारों, आस्थाओं ही के सम्बन्ध में नहीं, उनके मानसिक असन्तुलन की उग्रता के सम्बन्ध में भी बड़ा मतभेद है। उनकी इन अन्तिम कविताओं से इन विवादग्रस्त विषयों पर विचार करने में सहायता मिलेगी। निराला जी के असंख्य भक्तों, प्रशंसकों, उनकी कविता के अगणित प्रेमियों को यह जानने की उत्सुकता होगी कि उनकी अन्तिम कविताएँ कौन-सी हैं और कैसी हैं। यह संग्रह उनके कुतूहल को भी शान्त कर सकेगा।

 

दो शब्द

लगभग ढाई वर्ष पूर्व राज कमल प्रकाशन ने निराला जी की सात पुस्तकों का नई साज-सज्जा के साथ प्रकाशन किया था ये पुनर्प्रकाशित पुस्तकें थीं—अलका, अप्सरा, कुल्लीभाट, परिमल, लिली, प्रबन्धपद्य तथा महाभारत। इसी क्रम में यह पुस्तक एक और बढ़ोत्तरी है।

साथ ही एक और महत्त्वपूर्ण कार्य हुआ है—‘‘निराला’’ जी की असंकलित कविताओं का प्रकाशन/इस संकलन का ऐतिहासिक महत्त्व है, क्योंकि इसमें उनकी अबतक की प्रायः सभी असंकलित कविताओं को शामिल किया गया है।
उसके अनंतर ‘‘निराला’’ जी की कई और पुस्तकें भी नये रूपाकार के साथ पुनर्मुद्रित हुई हैं। आशा है कि पुनर्प्रकाशित पुस्तक का यह संस्करण हिंदी के सुधी साहित्यिकों को पसंद आयेगा और वे इसे उसी आदर भाव से अपनायेंगे, जैसे निराला जी की पूर्व प्रकाशित कृतियों को अपनाते रहे हैं।

 

रामकृष्ण त्रिपाठी
आत्मज महाकवि निराला

 

भूमिका

 

 

निरालाजी अपनी मृत्यु से प्रायः तीन वर्ष पूर्व बीमार होकर शय्याशायी हो गये थे। एक बार कुछ अच्छे तो हो गये, किन्तु यह समझ गये कि मेरे बलिष्ठ शरीर में घुन लग गया है और मैं बहुत दिनों नहीं चल सकता। सन् 1958 के अन्त में एक बार जब मैं प्रयाग गया तब उन्होंने अपने हाथ से लिखकर मुझे एक कविता दी थी। यह कविता मैंने सरस्वती के उस वर्ष के अक्टूबर के अंक में छाप दी थी। यह उनकी पहली कविता थी जिसमें उन्हें मृत्यु की रेख नीली दिखलायी पड़ने लगी थी। इसे पढ़कर मैंने उनसे कहा भी कि ‘यह निराशा क्यों ? अभी तो आपको बहुत दिनों तक जीवित रहना और हिन्दी की सेवा करना है। क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यम् त्यक्तवोत्तिष्ठ।’ किन्तु उत्तर में विशाल नेत्रों से आकाश की ओर देखकर वे चुप हो गये।

अस्वस्थावस्था में भी वे जब-तब कविता लिखा करते थे। जब मैं प्रयाग जाता तब उनसे उनकी कविता की कापी निकलवाकर देखा करता था कि कोई नयी कविता लिखी कि नहीं। अंतिम बार मैंने वह कापी 2 अगस्त, 1961 को देखी। वे प्रत्येक कविता के ऊपर उसका अंक दे दिया करते थे। 2 अगस्त को जब मैंने उसे देखा था तो उसमें अन्तिम कविता का अंक 59 था। उनकी मृत्यु के बाद मैंने उनकी वह कापी चि. कमलाशंकर से मँगवायी। मैंने देखा कि उसमें छः कविताएँ और लिखी हैं। इन छः
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 कविता की आरम्भिक पंक्ति है—‘जय तुम्हारी देख भी ली।’

कविताओं के अतिरिक्त आगे चलकर सादे पृष्ठों के बीच एक कविता और लिखी थी जिसे मैंने पहिले नहीं देखा था। वह भी इन्हीं पिछले दो महीनों की लिखी मालूम पड़ती थी। यह कहना कठिन है कि संख्या पैंसठ की कविता उनकी अन्तिम कविता है या यह अंकहीन कविता। मेरा अनुमान है कि किसी दिन अपना अवसान निकट जानकर उन्हें अपने जीवन की आलोचना करने की तरंग आयी और उसी तरंग में कापी में जो पन्ना खुल गया उस पर उन्होंने यह कविता लिख दी। बाद में अन्तिम (संख्या पैंसठ की) कविता उन्होंने प्रकृतिस्थ दशा में कापी में उपयुक्त स्थान पर क्रमिक संख्या लगाकर लिखी। यह निश्चय है कि ये दो कविताएँ ही उनकी अन्तिम कविताएँ हैं। सब परिस्थिति पर विचार करके मेरा अनुमान है कि अंकहीन कविता संख्या 65 की कविता से पहिले लिखी गयी।

इस कापी में पैंसठ कविताएँ हैं। कुछ दिनों तक वे कविताएं लिखने का दिनांक भी दे दिया करते थे। अन्तिम दिनांकित कविता के नीचे ‘सौर फाल्गुण 25’ लिखा है। उस दिन उन्होंने दो कविताएँ लिखीं। एक मुझे ‘सरस्वती’ में प्रकाशित करने के लिए दी, और एक उनके भक्तों ने ‘भारत’ में भेज दी। ये कविताएं संख्या 46 और 47 हैं। 48वीं कविता में दिनांक नहीं है। वह ‘आज’ में छपने को भेजी गयी। वह कविता इस पंक्ति से आरम्भ होती है—‘डमड डम डमड डम डमरू निनाद है।’ इसके बाद से अर्थात् 49 वीं कविता से दिनांक नहीं पड़े। 2 अगस्त को जब मैं उनसे मिला था तब मैंने वह कापी देखी थी, और 58वीं कविता की मुझे पूरी याद है, 59वीं कविता की उतनी स्पष्ट याद नहीं। पर निश्चय ही 60वीं कविता से 65वीं कविताएँ लिखी गयीं वे 2 अगस्त के बाद की हैं। वे अक्टूबर के द्वितीय सप्ताह में एकाएक आँत उतर जाने के कारण बीमार पड़ गये और चार-पाँच दिन की बीमारी के बाद स्वर्गवासी हो गये। अतएव स. 59 या सम्भवतः संख्या 60 से 65 तक की कविताएँ 2 अगस्त और अक्टूबर के प्रथम सप्ताह के बीच लिखी गयीं। अंकहीन कविता भी (जिसका उल्लेख ऊपर किया गया है) इसी बीच लिखी गयी।

निरालाजी खड़ी बोली के कवि थे किन्तु उन्हें ब्रज भाषा के काव्य से बड़ा प्रेम था और उन्हें देव,, पद्माकर, घनानन्द आदि के सैकड़ों छन्द याद थे। हितैषीजी के भी कितने छन्द उन्हें याद थे। वे उन्हें ‘सवैया’ का बादशाह’ कहा करते थे। मैं ब्रज भाषाभाषी हूँ, और मुझे ब्रज की भाषा की कविताएँ प्रिय भी हैं। इसलिए कभी-कभी जब तरंग में आते तब वे मुझे ब्रजभाषा के छन्द सुनाया करते थे। उनका कविता पढ़ने का ढंग बड़ा सुन्दर था। उनकी विशेषता यह थी कि वे छंदों को केवल लय से ही नहीं, काकु से भी पढ़ते थे जिससे छन्द का अर्थ और उसका सौंन्दर्य स्पष्ट होकर निखर उठता था। इसी बीच पिछले दो-तीन महीनों में उन्होंने न मालूम क्यों मुझे एक दोहा सुनाया -

 

भरति नेह नव जह हरित, बरसत सुरस अथोर।
जयति अपूरब घन कोऊ, लखि नाचत मन मोर।

 

इसे सुनाकर वे बोले, ‘‘प्रेमघनजी ने कितनी सरस दोहा लिखा है।’’ मैंने कहा—‘‘आपका पाठ अशुद्ध है, और यह प्रेमघनजी का नहीं, भारतेन्दु का है।’’ निरालाजी एकाएक विरोधी बातें नहीं मानते थे। बहस करने लगे। मैंने कहा, ‘‘बहस अनुमान पर होती है, तथ्य पर नहीं। आप इसे लिख लीजिए। मैं अगली बार ‘चन्द्रावली’ लेता आऊँगा और आपको दिखला दूँगा कि यह दोहा भारतेन्दु ने लिखा है और इसका पाठ प्रथम पंक्ति में ‘भरति नेह नव नीर नित’ है।’’ उन्होंने अपनी कविता की कापी खोली। संयोग से 51 संख्या की कविता का पृष्ठ खुल गया। उस पर अपनी कविता के नीचे छूटी हुई जगह पर उन्होंने इस दोहे का अपना पाठ लिख लिया और नीचे लिख दिया—‘बद्री नारायण चौधरी प्रेमघन मिर्जापुर।’ इस प्रकार यह दोहा उनकी इस कापी में उन्हीं के हाथों से लिख दिया गया। किन्तु उसके बाद इस विवाद को आगे बढ़ाने का अवसर ही नहीं आया। इस दोहे के अतिरिक्त उस कापी में पद्माकर का एक छन्द और लिखा है। इधर कई महीनों से वे यह छन्द बहुधा सुनाया करते थे—

 

कवित्त

 

 

जयसों तू मोको नहिं, नेकहुँ डेरात हुतो
तैसे कौंहुँ तोहि अब नेकहु न डरिहौं।
प्रबल प्रचण्ड जो अखण्ड हू, परैगो आय
ठोंकि भुजडण्ड बरबण्ड तोसों लरिहौं।।
चलो-चलु, चलो-चलु, बिचल न पथहु ते,
कीच-बीच, नीच, तोहि बेगहि पछरिहौं।
एरे दगादार, मेरे पातक अपार, तोहिं
गंगा की कछार में पछार छार करिहौं।।

 

कापी में इसके लिखने का कारण यह हुआ कि एक-दो बार उन्होंने इसे कुछ पाठ भेद के साथ पढ़ा था। बाद में शुद्ध करके उन्होंने इसे कापी में लिख लिया। मैं इसे उन्हीं की अखरोटी में (जो कहीं-कहीं निरालाजी के लिए विचित्र थी) और उन्हीं के लगाये विराम चिन्हों के साथ उद्धृत कर रहा हूँ।
2 अगस्त तक की लिखी अन्तिम कविता की, जिसकी मुझे याद है, आरम्भिक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं—

 

कैसे आँखों को परिसर दे ?
कैसे ज्योतिष्कों को भर दे ?
जब इसी देश में पड़ा बहुत,
जो और-न-जाना, बड़ा बहुत,
तब उस तर के कैसे कर ले ?

 

60वीं कविता उन्होंने आरम्भ की थी। वे शायद उसे बाद में पूरा करते। उन्होंने उसकी आरम्भिक दो पंक्तियाँ लिखकर पृष्ठ का शेष भाग सादा छोड़ दिया था। वे दो पंक्तियाँ ये हैं—

 

ध्वनि में उन्मन उन्मन बाजे,
अपराजित कण्ठ आज लाजे।


 

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