नाटक-एकाँकी >> हानूश हानूशभीष्म साहनी
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आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए।
हानूश : (हँसकर) जब तक घड़ी बनाओ नहीं, भेद का पता नहीं चलता।
कात्या : अब भेद का पता चल गया है?
हानूश : हाँ!
कात्या : तो अब और घड़ियाँ बनाओगे?
हानूश : क्या जानूँ कात्या, अभी तो मैं बैठकर बीयर पीना चाहता हूँ और खिली धूप में घूमना चाहता हूँ। दोस्तों के साथ बतियाना चाहता हूँ; या फिर कुछ दिन ताले बनाना चाहता हूँ।
कात्या : तुम अजीब आदमी हो। जब ताले बनाने का वक़्त था, उस वक़्त तो तुम घड़ी बनाते रहे, और जब घड़ियाँ बनाने का वक़्त आया है तो तुम फिर से ताले बनाना चाहते हो!
यान्का : आप लोग तो जेकब की बात कर रहे थे न, यह क्या ले बैठे?
हानूश : (हँसकर) तुम चाहती हो, हम जेकब की ही बातें करते रहें! वह बड़ा नालायक, कुन्द ज़ेहन, खर दिमाग लड़का है-न सूरत, न सीरत। न जाने कहाँ से आ टपका है! उससे जान आजिज़ आ गई है।
कात्या : ब्याह करने के लिए लड़कियाँ उतावली नहीं होतीं। उतावला तो लड़कों को होना चाहिए।
यान्का : माँ, तुम बापू से ब्याह करने के लिए उतावली नहीं थीं?
कात्या : मैं क्यों उतावली होने लगी! दिन में मेरे घर के दस-दस चक्कर काटता था-कभी एक बार मिलती थी, कभी वह भी नहीं मिलती थी।
हानूश : मिलती नहीं थी लेकिन खिड़की में से सारा वक़्त मुझे देखती रहती थी।
कात्या : कौन देखता रहता था? अपनी सूरत तो देखो!
[ऐमिल का प्रवेश]
ऐमिल : तुम अभी तक तैयार नहीं हुए? सब लोग तुम्हारी राह देख रहे हैं।
हानूश : बस, तैयार ही समझो। मैं घबरा रहा हूँ यार, मुझे दरबार के अदब-क़ायदे कुछ भी मालूम नहीं।
ऐमिल : घबराने की क्या बात है? सीधे पाँत में जाकर खड़े हो जाना। जिस तरह और दरबारी झुक-झुककर आदाब बजा लाएँगे, वैसे ही तुम भी बजा लाना। यह कोई मुश्किल बात थोड़े ही है।
कात्या : क्यों, अदव-क़ायदा क्या छोटी बात है? सब लोगों की नज़रें तो हानूश पर होंगी। अगर इनसे भूल हो गई तो क्या बुरा नहीं लगेगा?
ऐमिल : यह जनम का दरबारी थोड़े ही है।
कात्या : तुम तो हर बात में अपनी चलाओगे।
ऐमिल : कात्या, यह ज़्यादा ज़रूरी नहीं है कि हानूश झुके कैसे और आदाब कैसे बजा लाए। ज़्यादा ज़रूरी यह है कि महाराज के सवालों का जवाब क्या दे।
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