नाटक-एकाँकी >> हानूश हानूशभीष्म साहनी
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आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए।
कात्या : महाराज हमारे अन्नदाता हैं। वह जो सवाल पूछे, उसका ठीक-ठीक जवाब दे देना।
ऐमिल : महाराज घड़ी के बारे में ही पूछेगे, और क्या! जो मन में आए, कह देना, वह कौन-सा समझ पाएँगे!
कात्या : महाराज के बारे में ऐसा नहीं बोलते। तुम हमेशा उलटी-सीधी बातें करते रहते हो।
ऐमिल : तुम महाराज की तारीफ़ करना, सभी राजा लोग तारीफ़ के भूखे होते हैं। अगर उन्होंने पूछा कि यह घड़ी तुमने क्यों बनाई है तो तुम क्या जवाब दोगे?
हानूश : बताओ, क्या कहूँ?
ऐमिल : तुम कहना, हुजूर की ख़ुशी के लिए, हुजूर के राज्य की शान बढ़ाने के लिए, राजधानी की रौनक बढ़ाने के लिए।
हानूश : ठीक है, यही कहूँगा।
ऐमिल : अगर महाराज पूछे, तुमने यह घड़ी नगरपालिका वालों को क्यों दी, तो क्या कहोगे?
हानूश : यह टेढ़ा सवाल है। मैं कहूँगा, हुजूर, जहाँपनाह, नगरपालिका वालों ने मेरी पीठ पर हाथ रखा। यदि आड़े वक़्त उन्होंने मेरी मदद नहीं की होती तो मैं कभी इस काम को पूरा नहीं कर पाता।
कात्या : इस जवाब से गिरजेवाले बिगड़ेंगे नहीं?
[ऐमिल से]
तुम तो कहते हो, लाट पादरी नगरपालिका वालों से नाराज़ हैं।
[हानूश से]
तुम बस हाथ बाँधे खड़े रहना। अपने मुँह से कुछ नहीं कहना-न नगरपालिका के हक़ में कुछ कहो, न गिरजेवालों के ख़िलाफ़ कुछ कहो। नगरपालिका और गिरजे के झगड़े में हम क्यों पड़ें?
[पादरी भाई का प्रवेश]
पादरी : मुबारक़ हो हानूश!
[बग़लगीर होता है।]
मुबारक हो कात्या! मैंने घड़ी देखी है। तुमने शहर को चार चाँद लगा दिये हैं। आज बड़ा मुबारक़ दिन है।
घड़ी दीवार में बड़ी सुन्दर लग रही है पर इतनी नीची क्यों लगाई, हानूश? इसे थोड़ा ऊँचा लगाना चाहिए था।
हानूश : नहीं भाईजान, ऊँची होती तो नक्षत्रों के नाम नहीं पढ़े जाते।
पादरी : अब यह सारा वक़्त अपने-आप चलती रहेगी?
हानूश : चलते तो रहना चाहिए मगर क्या मालूम, नुक़्स भी पैदा हो सकते हैं! आख़िर इनसान के हाथ की बनी चीज़ है।
पादरी : (सिर हिलाता है, फिर स्नेह से भाई के कन्धे पर हाथ रखता है। क्षणभर बाद जेब में से एक गुत्थी निकालकर कात्या की ओर बढाता है) यह लो कात्या, कुछ पैसे हैं, आज तुम्हारे घर मेहमान लोग आएँगे, हाथ तंग नहीं रखना।
कात्या : आपका किया हम कैसे उतारेंगे! (ले लेती है।)
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