नाटक-एकाँकी >> हानूश हानूशभीष्म साहनी
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आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए।
[हँसते हैं। बड़ी कुर्सी पर बैठ जाते हैं।] कहाँ के रहनेवाले हो?]
हानूश : हुजूर, आप ही का बन्दा हूँ।
लाट पादरी : हमारे गिरजे के एक पादरी का भाई है।
[महाराज सिर हिलाते हैं।]
महाराज : हम तुमसे बहुत खुश हैं, तुम बड़े होशियार आदमी हो। यह हुनर तुमने कहाँ से सीखा?
हानूश : हुजूर, बचपन में मैंने सुना था कि किसी देश में गिरजे पर एक घड़ी लगी है। वैसी ही घड़ी बनाने की ख्वाहिश मेरे दिल में भी उठी।
महाराज : सीखा कहाँ से?
हानूश : हुजूर, बहुत लोगों ने मेरी मदद की है। यहाँ यूनिवर्सिटी में एक बड़े हिसाबदान हैं, उन्होंने मुझे बहुत-कुछ सिखाया है, शहर के लोहारों ने सामान बना-बनाकर मेरी बड़ी मदद की है। नगरपालिका वालों ने मदद की है।
महाराज : नगरपालिका वालों ने तुम्हारी क्या मदद की है?
हानूश : हुजूर, मैं बड़ा मुफ़लिस आदमी हूँ, घड़ी बनाना मेरे बूते के बाहर की बात थी। सबसे पहले मेरे बड़े भाई ने मेरी पीठ पर हाथ रखा। उन्होंने एक पुश्तैनी घर मेरे नाम कर दिया। फिर शहर के लोहार मेरी मदद करते रहे।
मगर घड़ी बनाने में बरसों लग गए। हुजूर, पिछले पाँच साल से नगरपालिका ने मेरी मदद की है, वे मुझे वज़ीफ़ा देते रहे हैं।
महाराज : तुमने हमसे मदद क्यों नहीं माँगी?
हानूश : हुजूर, अब घड़ी बन गई। यह सब आपकी ही दौलत है।
महाराज : हमसे माँगते तो हम तुम्हारी मुंहमांगी मुराद पूरी करते।
[लाट पादरी महाराज के कान में कुछ कहता है।]
यह घड़ी ज़्यादा अच्छी है या उस देशवाली घड़ी?
हानूश : मेरी घड़ी में नक्षत्र भी दिखाए गए हैं हुजूर!
महाराज : दोनों में ज़्यादा बड़ी कौन-सी है-हमारी या वह घड़ी?
हानूश : हमारी घड़ी ज़्यादा बड़ी है।
महाराज : बहुत अच्छा! तुम्हें कितने दिन लग गए घड़ी बनाने में?
हानूश : बहुत वक़्त सर्फ हुआ मालिक-लगभग सत्रह साल लग गए।
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