नाटक-एकाँकी >> हानूश हानूशभीष्म साहनी
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आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए।
हुसाक : अगर हुजूर की इजाज़त हो तो नगरपालिका हानूश कुफ़्लसाज़ से एक और घड़ी तैयार करवाए जिसे हुजूर के महल पर लगाया जाए।
महाराज : एक और घड़ी! किसलिए? (हानूश से) तुम एक और घड़ी भी बनाना चाहते हो? तुम कहते हो, इस एक घड़ी पर तुम्हारे सत्रह बरस लग गए!
हानूश : हुजूर, एक बार भेद मालूम हो जाए तो दूसरी घड़ी बनाने में देर नहीं लगेगी।
महाराज : (महाराज उत्तेजित हो उठते हैं और सीधा तनकर बैठ जाते हैं) कितनी देर में दूसरी घड़ी बना लोगे?
हानूश : क्या कहूँ, हुजूर, दो-एक बरस में भी बन सकती है। शायद जल्दी भी बन सकती है।
महाराज : वह इस घड़ी से भी बेहतर घड़ी हो सकती है?
हानूश : क्या कहूँ हुजूर, दूसरी घड़ी बनाने का तो ख़याल मेरे मन में आया ही नहीं। मैं तो अन्त तक इसी घड़ी से उलझा रहा।
महाराज : (सिर हिलाता है) उसके बाद एक साल में एक और घड़ी, तीसरी घड़ी भी बन सकती है। दूसरी से भी बढ़िया! वह कहाँ पर लगाओगे?
हानूश : हुजूर!
हुसाक : हुजूर आपकी मेहरबानी से नगर में घड़ीसाजों की एक जमात भी बन सकती है। हम घड़ियाँ बना-बनाकर दिसावर में भी भेज सकते हैं।
महाराज : खूब! मतलब कि हमारी घड़ियाँ और शहरों में भी लगी होंगी। उन शहरों की भी रौनक़ बढ़ाएँगी?
हुसाक : हुजूर!
महाराज : तो फिर यहाँ घड़ी लगाने में क्या तुक है? अगर शहर-शहर में घड़ियाँ लगेंगी तो इस घड़ी की अहमियत ही क्या रह जाएगी? नदी के पार का तुला राज्य हमारा दुश्मन है। हमारी घड़ी उस राज्य में भी लग सकती है, क्यों? और भी जगह-जगह और मुल्कों में, और शहरों में लग सकती है?
हुसाक : आपकी इजाज़त के बिना तो हुजूर, पत्ता भी नहीं हिल सकता। आपकी जैसी इजाज़त होगी।
महाराज : हमारी इजाज़त तो जो होगी। तुम और तुम्हारी नगरपालिका इस आदमी से घड़ियाँ बनवा-बनवाकर बेचना चाहती है? तुम्हारा यही इरादा है? फिर इस घड़ी को यहाँ लगाने की ही क्या ज़रूरत थी? इसे भी किसी दूसरे देश में बेच दिया जाता! नगरपालिका को फ़ायदा होता! क्यों?
हुसाक : हुजूर!...
महाराज : आज तो दूर-दूर के लोग हमारी घड़ी को देखने आएँगे। जो चीज़ हमारे शहर में है, वह किसी दूसरे शहर में नहीं है। अगर और नगरों में भी होगी तो हमारी घड़ी को कौन देखेगा?
हानूश : सही है हुजूर!...
महाराज : (हानूश से) हानूश कुफ़्लसाज़ ! तुम झूठ बोले कि तुमने यह घड़ी हमारे मुल्क़ की शान बढ़ाने के लिए बनाई है।
हानूश : हुजूर! दूसरी घड़ी बनाने का मुझे तो ध्यान भी नहीं आया। इस एक घड़ी को ही बनाने में मेरी जवानी ढल गई है, हुजूर!
महाराज : तुम्हें ख़याल नहीं आया, मगर तुम्हारे सरपरस्तों को तो आया होगा। (हुसाक की ओर देखकर) यह बादशाह की तौहीन है कि एक घड़ी उसके क़दमों पर रखी जाए और वैसी ही बल्कि उससे भी बेहतर घड़ी किसी सौदागर के हाथ बेच दी जाए। क्यों, क्या कहते हो?
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