नाटक-एकाँकी >> हानूश हानूशभीष्म साहनी
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आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए।
हुसाक : हुजूर...!
महाराज : (चुपचाप सोचते रहते हैं) हमारा फ़ैसला यह है कि इस आदमी को और घड़ियाँ बनाने की इजाजत नहीं होगी।
हुसाक : हुजूर...!
[हॉल में सन्नाटा। महाराज हाथ उठाकर हुसाक को चुप रहने का इशारा करते हैं।]
महाराज : अगर हमारी राजधानी की रौनक बढ़ाने के लिए इस घड़ी को बनाया गया है तो फिर दूसरी घड़ी बनाने का मतलब? यह आदमी सिर्फ एक ही घड़ी बनाएगा, और यही वह घड़ी होगी जिसे वह बना चुका है। इसे कोई भी और घड़ी बनाने की इजाजत नहीं होगी। अगर हमें पता चला कि यह कोई और घड़ी लुक-छिपकर बना रहा है तो इसे हम कड़ी सज़ा देंगे।... मगर इस आदमी का कोई एतबार नहीं है। सत्रह साल तक यह घड़ी बनाता रहा और हमें इसकी ख़बर तक नहीं हुई। चुपचाप इस घड़ी को नगरपालिका पर लगा दिया गया, हमें बाद में ख़बर दी गई। हमें उस वक़्त बताया गया जब घड़ी लग चुकी थी। ऐसे आदमी पर कड़ी निगरानी रखने की ज़रूरत है।
हानूश : हुजूर, मेरा कोई इरादा दूसरी घड़ी बनाने का नहीं है।
महाराज : राज्य में सब काम सरकार की इजाज़त से होते हैं। तुमने हमसे घड़ी बनाने की इजाज़त क्यों नहीं ली?
हानूश : हुजूर, यह आप ही की दौलत है, आपको ही नज़र करने के लिए बनाई है।
महाराज : कल कोई दूसरी घड़ी बनाओगे और इसके लिए किसी दूसरे सरपरस्त से भी यही कहोगे। इस आदमी के रवैये को देखते हुए हमें इस बात का विश्वास नहीं है कि यह आदमी और घड़ियाँ नहीं बनाएगा।
[हॉल में सन्नाटा]
हुसाक : आपकी इजाजत नहीं होगी हुजूर, तो हानूश दूसरी घड़ी नहीं बनाएगा।
महाराज : जो आदमी बरसों तक छिपकर घड़ी बना सकता है, वह छिपकर आगे भी घड़ी बना सकता है। एक घड़ी बना लेने से इसका लालच बढ़ गया है।
हुसाक : मैं नगरपालिका की तरफ़ से हुजूर को यक़ीन दिलाता हूँ...
महाराज : (हाथ ऊँचा उठाकर) हमें नगरपालिका से कहीं ज़्यादा एतबार हानूश कुफ़्लसाज़ पर है। इस आदमी को और घड़ियाँ बनाने की इजाज़त नहीं होगी। इस हुक्म पर अमल करवाने के लिए...(थोड़ा ठिठककर) हानूश कुफ़्लसाज़ को उसकी आँखों से महरूम कर दिया जाए। उसकी दोनों आँखें निकाल दी जाएँ। उसकी आँखें नहीं होंगी तो और घड़ियाँ नहीं बना सकेगा।
[हानूश का चेहरा जर्द पड़ गया है और वह बुत का बुत बना खड़ा है, मानो उसे काठ मार गया हो!
हुसाक : इसकी आँखें न निकलवाइए, हुजूर, अन्धा आदमी क्या करेगा?
महाराज : हमने इस पहलू पर भी गौर किया है। पहले हमने सोचा, इसके हाथ कटवा दें, लेकिन आँखें मौजूद हों तो हाथों के बिना भी घड़ी बन सकती है। पर आँखें निकल जाने से घड़ी बनाना मुश्किल होगा। (महाराज उठ खड़े होते हैं) इसे ले जाओ।
[दो अधिकारी आगे बढ़कर हानूश को पकड़ने के लिए आते हैं।]
याद रहे कि हानूश अब राजदरबारी है। पूरे अदब-क़ायदे से इसके साथ बर्ताव किया जाए।
[सहसा हानूश घबराकर आगे बढ़ आता है और घुटनों के बल बैठकर गिड़गिड़ाने लगता है।]
महाराज : ले जाओ...हानूश को पकड़कर बाहर...
हानूश : मालिक! मालिक! यह जुल्म नहीं करो। मुझे जिन्दा दफ़ना दो मालिक, मगर मुझे अन्धा नहीं बनाओ-मा... लि...क!!!
[घड़ी बजने लगती है। महाराज उसकी आवाज़ सुनकर मन्त्रमुग्ध-से खड़े रह जाते हैं। हॉल में खड़े लोगों पर सकता-सा छा जाता है।]
महाराज : (घड़ी के प्रति श्रद्धाभाव के साथ) ऐसी नायाब घड़ी तो मुल्क में एक ही रह सकती है।
[महाराज बाहर जाने लगते हैं। पीछे लाट पादरी अपने गहरे लाल रंग के चुरो में। महामन्त्री, हुसाक, कुछेक अन्य अधिकारी उनके पीछे-पीछे जाने लगते हैं।
घड़ी बजने के कारण बाहर तालियाँ पीटी जाने लगी हैं। खुशी और समारोह की आवाजें आ रही हैं : ‘हानूश, जुग-जुग जियो!'... 'खूब है, वाह-वाह!'... 'पूरे दस बजाए हैं' आदि।
घड़ी अब भी बज रही है। हानूश हताश-सा घुटनों के बल झुक जाता है और जैसे चीत्कार कर उठता है। दो अधिकारी उसके पास पहुँच जाते हैं।
[पर्दा गिरता है।]
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