नाटक-एकाँकी >> हानूश हानूशभीष्म साहनी
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आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए।
[लगभग दो साल का अरसा बीत चुका है। लोग हानूश की घड़ी के अभ्यस्त हो चुके हैं। वह अब कोई विशेष चमत्कार नज़र नहीं आती। हाँ, यात्रियों की भीड़ उसे देखने के लिए जरूर लगी रहती है। लोग हानूश के अन्धेपन के भी अभ्यस्त हो चुके हैं। उसकी स्थिति की विडम्बना इस बात में है कि उसे एक ओर अन्धा और दूसरी ओर राजदरबारी बना दिया गया है। इस कारण वह और भी ज़्यादा अकेला हो गया है। उसके स्वभाव में अवसाद और कटुता भर गई है।
पर्दा उठने पर प्रथम अंक का पहला दृश्य ही आँखों के सामने आता है। हानूश उसी घर में रहता है, लेकिन अब यह घर बड़ा आरामदेह और सुसज्जित हो गया है। बढ़िया पर्दे, अँगीठी पर बढ़िया प्लेटें आदि सजी हैं, आग तापने की अंगीठी है, बढ़िया मेज़-कुर्सियाँ हैं।
कात्या सदा की भाँति घर के काम-काज में व्यस्त है। मेज़ लगा रही है। पहले की तुलना में थकी-थकी और उदास लग रही है। दरवाजे पर हलकी-सी दस्तक। कात्या दरवाज़ा खोलती है। दहलीज़ पर हानूश का मित्र ऐमिल खड़ा है।]
ऐमिल : क्या हानूश अभी तक नहीं लौटा?
कात्या : नहीं। अभी आता ही होगा।
ऐमिल : अच्छा है, जो घर पर नहीं है। मैं तुम्हीं से बात करने आया हूँ।
कात्या : (ठिठक जाती है) क्या है ऐमिल? क्या कोई और बुरी ख़बर लाए हो? मुझे अब बात-बात पर डर लगने लगा है।
ऐमिल : डरने से काम कैसे चलेगा, कात्या? और अगर तुम डरने लगीं तो हानूश का क्या होगा?
कात्या : किसी बात में अब मेरा मन नहीं लगता। मुझे लगता है, समय की तेज़ धार है और हम उसमें बहे जा रहे हैं।
ऐमिल : मैं बुरी ख़बर नहीं लाया। मैं अच्छी ख़बर लाया हूँ।
कात्या : (एकटक ऐमिल के चेहरे की ओर देखने लगती है) क्या है?
ऐमिल : तुला से एक धनी सौदागर आया है, और वह चाहता है कि हानूश उसकी नगरपालिका के लिए घड़ी बना दे।
कात्या : और तुम इसे अच्छी ख़बर कहते हो?
ऐमिल : तुम मेरी बात को ध्यान से सुनो, कात्या।
कात्या : मैं जानती हूँ, तुम क्या कहना चाहते हो। अब तो हानूश केवल आँखों से अन्धा हुआ है। फिर जान से भी हाथ धो बैठेगा। तुम्हारे मशविरे से इस घर पर हमेशा मुसीबत आई है। तुम्हीं पहले उसे घड़ी बनाने के लिए उकसाते रहे हो और उसके अन्धा हो जाने पर भी तुम उसके पीछे पड़े रहते हो।
ऐमिल : कात्या, तुम क्या समझती हो, इस तरह हानूश कितने दिन तक ज़िन्दा रह पाएगा?
कात्या : अगर उसने मेरी मानी होती तो वह आज अन्धा भी नहीं हुआ होता। बादशाह सलामत ने खीज में आकर अपना हुक्म सुना दिया। उसे यह कहने की ज़रूरत ही क्या थी कि मैं और घड़ियाँ भी बना सकता हूँ?
ऐमिल : तुम अब भी ऐसा ही समझती हो, कात्या? तुम यह नहीं जानतीं कि उस हुक्म के पीछे एक चाल थी?
कात्या : चाल रही हो या नहीं रही हो। हम गरीब लोग बादशाहों से टक्कर नहीं ले सकते हैं। हमारी बिसात ही क्या है?
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