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नाटक-एकाँकी >> हानूश

हानूश

भीष्म साहनी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2471
आईएसबीएन :9788126718801

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आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए।


कात्या : नहीं ऐमिल, नहीं। मैं कहीं नहीं जाऊँगी। उसे भी कहीं नहीं जाने दूंगी।

ऐमिल : भले ही यहाँ वह तड़प-तड़पकर मर जाए?

कात्या : मैं उसे नहीं मरने दूंगी। यहाँ पर हमारा घर है, यह हमारा वतन है। दुख-सुख में दसियों लोग यहाँ हमारी मदद करनेवाले हैं। अब जो हो गया, सो हो गया। मैं परदेस में अन्धे पति को लेकर नहीं जाऊँगी।

ऐमिल : ठीक है कात्या, इसी तरह घिसटते-घिसटते हानूश को जीने की आदत पड़ जाएगी। ज़िन्दगी के बीस बरस तो घड़ी का गुर सीखने में निकल गए। अब वह जब उसका भेद जान गया है, तुम यही बेहतर समझती हो कि ज़िन्दगी के बाक़ी साल मौत का इन्तज़ार करता हुआ काट दे।

कात्या : एक दिन तो मरना ही है, आगे क्या और पीछे क्या! परदेस में मरने से अपने घर में मरना अच्छा है। और फिर...

ऐमिल : फिर क्या, कात्या?

कात्या : अब हानूश राजदरबारी है, दरबार में उसकी इज़्ज़त है। अच्छा खाता है, अच्छा पहनता है। घर तो बना हुआ है।

ऐमिल : कात्या, क्या तुम नहीं देख पातीं, हर बार जब दरबार लगता है तो वह दरबार में जाने से इनकार कर देता है? वह बौखला उठता है। उसे रातों नींद नहीं आती। और तम तरह-तरह के वास्ते डालकर उसे दरबार में भेजती हो।

कात्या : धीरे-धीरे उसका मन ठिकाने आ जाएगा। किस्मत के साथ कोई कितनी देर तक लड़ सकता है! एक दिन तो झुकना ही पड़ता है।

ऐमिल : तो मैं तुला के सौदागर से कह दूँ कि तुम्हारा यही फ़ैसला है? कात्या : मेरा यही फ़ैसला है, ऐमिल। इसमें सोचने की बात ही क्या है?

ऐमिल : मेरी बात का बुरा नहीं मानना कात्या, लेकिन मैं सच कहे बग़ैर रह भी नहीं सकता। तुम हानूश के साथ बहुत बड़ी दुश्मनी कर रही हो। तुम अपनी ख़ातिर अन्धे हानूश की जान ले रही हो।

कात्या : (ठिठक जाती है) एक दिन यह सुनना भी मेरी किस्मत में बदा था।

ऐमिल : मैं ठीक कहता हूँ। पिछले बीस साल तुमने मुफ़लिसी में काटे हैं। अब तुम गरीबी से डरती हो। अब भले ही हानूश दुखी हो, लेकिन घर में पैसा तो है, आराम तो है। तुम इसी आराम पर हानूश को कुर्बान कर रही हो। चलो, ठीक है, जवानी के दिनों में तुम्हें सुख नहीं दे पाया, अब अन्धा बनकर तो तुम्हें सुख दे रहा है।

कात्या : (बिफरकर) क्या मैं यह अपने लिए कर रही हूँ? उसे ठोकरें खाते देखती हूँ तो क्या मैं चाहती हूँ कि वह ठोकरें खाता रहे और मैं घर में आराम से पड़ी रहा करूँ? तुम समझते हो, वह अन्धा है तो मैं सुखी हूँ? क्या तुमसे यही सुनना बदा था?

ऐमिल : अपने दिल से पूछो कात्या, क्या वह इस हालत में कभी सुखी रह सकता है? अब वक़्त रहते उसकी जान बचाई जा सकती है। जेकब उसके साथ होगा। वह सब काम जानता है। फिर से घड़ी बनाएगा तो हानूश के दिल में जीने की चाह लौट आएगी। वह फिर से काम में लग जाएगा।

कात्या : नहीं, मैं उसे घर से बेघर नहीं होने दूंगी।

ऐमिल : अगर यही तुम्हारा फ़ैसला है कात्या, तो मैं अब सीधा हानूश के साथ बात करूँगा। मैंने सोचा था कि तुम मान जाओगी तो सब काम सुभीते से हो जाएगा। लेकिन वह मेरा दोस्त है, मैं उसे तिल-तिलकर मरते नहीं देख सकता।

कात्या : तुम हमारा घर बर्बाद करने पर तुले हो। इसमें तुम्हारा क्या जाता है?

ऐमिल : यह मत भूलो कात्या, तुम लोग यहाँ से चले जाओगे, तो मैं तो यहाँ पर रहूँगा। महाराज को पता चल गया कि मैंने हानूश को भिजवाया है तो क्या वह मुझे छोड़ देंगे?

कात्या : तुम समझते हो, तुम्हारे कहने से वह चला जाएगा? तुमने कैसे समझ लिया कि वह और घड़ियाँ बनाना चाहता है? बल्कि यही कहता फिरता है कि मरने से पहले इस घड़ी को तोड़कर मरूँगा।

ऐमिल : तुम अच्छी तरह जानती हो कि वह ऐसा क्यों कहता है। वह अन्दर से दुखी है, बेचैन है। पहले दिन-रात  काम करता था, अब बिलकुल खाली हो गया है। (पास जाता है) मान जाओ कात्या, कुछ जोखिम तो उठाना ही पड़ेगा। अपनी ओर से तो यही कोशिश होगी कि तुम लोग यहाँ से चुपचाप निकल जाओ, किसी को कानोंकान ख़बर तक न होगी।

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