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नाटक-एकाँकी >> हानूश

हानूश

भीष्म साहनी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2471
आईएसबीएन :9788126718801

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आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए।


जेकब : हम लोग चौक में खड़े थे। मैं चाचा के एक तरफ़ था, यान्का दूसरी तरफ़। हम धीरे-धीरे टहलते हुए बाग़ की तरफ़ जा रहे थे। चाचा बड़े ख़ुश जान पड़ते थे। उन्हें रोज़ की तरह आज भी कुछ लोगों ने फूल दिये। हम लोग चौक पार कर रहे थे जब दूसरी ओर से घोड़े दौड़ते हुए आए। महाराज की सवारी आ रही थी। हम लोग पीछे हटकर सड़क के किनारे खड़े हो गए। 'किधर से आ रही है?' हानूश चाचा ने पूछा। मैंने बताया तो कहने लगे, 'नज़दीक आ जाए तो बताना, मैं महाराज को आदाब बजा लाना चाहता हूँ।' मैंने कहा, 'ठीक है।' घोड़े जब नज़दीक पहुँचे और मैंने इतना-भर कहा, 'लो चाचा, सवारी आ पहुँची'। तो हानूश चाचा ने झटके से मेरा हाथ छुड़ा लिया, और मैं क्या देखता हूँ कि वह भागते हुए सड़क के बीचोबीच जा रहे हैं। यान्का उनके पीछे भागी, पर तब तक वह अगले घोड़े से टकरा चुके थे। गनीमत है कि वह घोड़े की टाँगों के नीचे नहीं आ गए। वह एक ओर को गिरे, वरना हड्डी-पसली नहीं बचती। बाएँ हाथ पर थोड़ी-सी चोट आई है।...मैं अब जाऊँगा। आप फ़िक्र नहीं करें। लोहार चाचा उनकी पट्टी कर रहे हैं। हम उन्हें अभी साथ ले आएँगे।

[प्रस्थान]



[एमिल और कात्या कुछ देर के लिए चुपचाप खड़े रहते हैं।]

कात्या : ऐमिल ! क्या तुम समझते हो, हानूश जानबूझकर गाड़ी के आगे कूदा होगा?

ऐमिल : जो कुछ जेकब ने बताया है, उससे तो ऐसा ही जान पड़ता है।

कात्या : उसने ऐसा क्यों किया ऐमिल? उसने ऐसा क्यों किया?

ऐमिल : घबराओ नहीं कात्या! क्या मालूम, उसने अपनी जान पर खेल जाने के लिए ऐसा नहीं किया हो! क्या मालूम, वह बादशाह सलामत को केवल अपनी हालत दिखाना चाहता हो, अपना गुस्सा जाहिर करना चाहता हो!

कात्या : नहीं, उसने जान-बूझकर ऐसा किया है। उसने अपनी जान पर खेल जाने की कोशिश की है। वह एक दिन इसी तरह अपनी जान ले लेगा। मैं क्या करूँ? कहाँ जाऊँ?

ऐमिल : वह बड़ा दुखी है, कात्या! दो साल बीतने को आए, लेकिन वह अभी तक सँभल नहीं पाया।

कात्या : वह बोलता क्यों नहीं? कुछ कहता क्यों नहीं? पहले अपने दिल की बात कभी भी मुझसे नहीं छिपाता था, अब कुछ भी नहीं कहता, गुमसुम बना रहता है; या थोथे मज़ाक करता रहता है, ताकि मैं समझूँ कि वह ख़ुश है।

ऐमिल : उसे अभी भी यह बात सालती रहती है कि वह ज़िन्दगी में तुम्हें सुख नहीं दे पाया। जवानी में घड़ी के पीछे पागल बना रहा, तुम्हें मुफ़लिसी में रखा, और अब अन्धा-मोहताज़ बनकर तुम पर बोझ बना हुआ है।

कात्या : (देर तक चुप खड़ी रहती है, फिर धीरे से घूमकर) तुम समझते हो, यहाँ से चले जाने पर उसका दिल ठिकाने आ जाएगा?... मैं समझती थी, उसके अन्दर गुस्से की आग धधक रही है, पर मुझे क्या मालूम कि वह अपनी जान से भी आजिज़ आ गया है।

ऐमिल : अन्धे आदमी की दुनिया ही दूसरी होती है कात्या! न जाने वह किन परछाइयों के साथ जूझता रहता है! हमें फिर से उसे आँखें देनी होंगी।

कात्या : (देर तक ऐमिल की ओर देखती रहती है) तुम्हारा सुझाव मुझे मंजूर है। अगर यहाँ से चले जाने में ही उसका भला है तो मुझे मंजूर है। ऐमिल, तुम जैसा कहो, मैं वैसा ही करूँगी। मैं हानूश को लेकर यहाँ से चली जाऊँगी। हम सब चले जाएँगे। उसे इस नरक से तो छुटकारा मिलेगा। तुमने हानूश से कभी बात की है?

ऐमिल : साल-भर पहले एक बार कहा था।

कात्या : क्या कहता था?

ऐमिल : बहकी-बहकी बातें करता था कि मैं यहाँ से तभी जाऊँगा जब इस घड़ी को तोड़ लूँगा। फिर कहने लगा, मैं कात्या को बहुत दुख दे चुका हूँ, अब उसे और परेशान नहीं करना चाहता।

कात्या : (चुप रहती है, फिर कपड़े के छोर से आँसू पोंछती है) हम एक-दूसरे का भला चाहते हुए भी एक-दूसरे को सुख नहीं दे पाए।

ऐमिल : हानूश समझता है कि घड़ी को तोड़कर वह बादशाह से अपना बदला ले लेगा, मगर वह नहीं समझता कि घड़ी रहे या टूटे, बादशाह की बला से। बादशाह को इसमें कोई दिलचस्पी नहीं।

कात्या : वह सौदागर तुमसे क्या कहता था? कहाँ से आया है वह?

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