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नाटक-एकाँकी >> हानूश

हानूश

भीष्म साहनी

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2022
पृष्ठ :140
मुखपृष्ठ : पेपरबैक
पुस्तक क्रमांक : 2471
आईएसबीएन :9788126718801

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आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए।


इधर...इधर बड़ा चक्कर होना चाहिए। क्या यही चक्कर है? (हाथ फेरता है) यह रहा! कैसा बेजान पड़ा है। ज़रा भी हरकत नहीं है।...धुरा मिल गया, यही है...अब पेंडुलम कहाँ हो सकता है...जेकब मेरे साथ होता तो झट से बता देता कि कौन-सा पुर्जा कहाँ पर है। उसे सब मालूम है।...अच्छा है, वह यहाँ पर नहीं है. वरना मेरी हिम्मत बिलकुल जवाब दे जाती!...यह क्या है? मैं घड़ी के पास कहाँ पहुँच गया हूँ? यहाँ लीवर है क्या? यही लीवर है क्या?...लीवर...यही लीवर...अरे, लीवर टूटा हुआ है।...मैंने उस वक़्त कहा भी था कि लीवर कमज़ोर है, इसमें पीतल की मात्रा ज़्यादा नहीं डालनी चाहिए थी। उसी वजह से यह जल्दी टूट गया है, यही लीवर है क्या?...हाँ, हाँ, यही लीवर है। यही...मुझे और कुछ नहीं चाहिए। लीवर मिल गया है। इसी को खींचकर तोड़ दूँ। यहीं पर घड़ी का भेद छिपा हुआ है। इसे तोड़ दूं तो जैसे घड़ी का गला घोंट दिया। वह सदा के लिए मर जाएगी।...यह लीवर क्यों टूटा है?...अगर दो साल में लीवर टूट सकता है तो इस घड़ी को बनाने से क्या लाभ? मैंने क्या बनाया है? कोई नौसिखुआ भी घड़ी बनाएगा तो ऐसी बेवकूफ़ी नहीं करेगा...शायद यहाँ से टूटा है।...जेकब होता तो झट से बता देता, कहाँ से टूटा है, कैसे टूटा है। लीवर को मैं अपने जेब में रख लूँगा, एक निशानी के तौर पर। किसी को बताऊँगा नहीं कि लीवर टूटने पर घड़ी बन्द हुई है...मैं इसे अपने पास रखकर क्या करूँगा? मुझे लीवर से क्या लेना-देना! किसलिए अपने पास रखू?...

[सीढ़ियों पर क़दमों की आवाज़]

आदमी : हम क्या मदद करेंगे, हम जानते ही क्या हैं! हाँ, हानूश अन्धा है न, शायद इसीलिए। ठीक है, ठीक है। समझा।

[अन्दर आता है। इधर-उधर देखने के बाद]

इधर तो बहुत कल-पुर्जे हैं। क्या यही घड़ी है? वाह-वाह, यह तो बहुत बड़ी मशीन है!

[हानूश को देखने के बाद उसकी ओर बढ़ता है। हानूश का हाथ पकड़कर :]

हानूश भाई, मुझे तुम्हारी मदद करने के लिए भेजा गया है। घड़ी बन्द हो गई। बहुत बुरा हुआ। इतनी मेहनत से तुमने बनाई थी...अरे भाई, तुम अन्धे हो गए, यह भी बहुत बुरा हुआ। तुम्हारे साथ बहुत जुल्म हुआ। जब हमें पता चला कि तुम अन्धे हो गए तो सच मानो, हमें बहुत दुख हुआ। हम कहें, हानूश अपनी घड़ी को अब देख भी नहीं सकेगा। घड़ी बन्द हो गई क्या? तुम्हें तो भगवान ने बहुत बड़ा हुनर दिया है। आँखें होतीं तो तुम उसे झट से ठीक भी कर लेते। हमसे जो कहो, हम करने को हाज़िर हैं। जब तुम्हें अन्धा किया गया तो मेरा छोटा भाई कहे-हाय-हाय, मेरी आँखें हानश को मिल जाएँ। मेरी आँखें किस काम की। हानूश ने तो इतना बड़ा काम किया है। उसे तो आँखों की ज़रूरत है। हानूश भैया, तुम्हें नहीं मालूम, हम कितनी बार तुम्हारे हाथों में फूलों के गुच्छे दे गए हैं। सुबह तुम इधर आते हो न? हम उस वक़्त काम पर जाते हैं। हम और लोगों के हाथ तुम्हारे हाथों में फूल रख जाते थे। आज घड़ी के सामने तुमसे मुलाक़ात हो गई।...तुम चुप क्यों हो? दिल से दुखी हो न, इसीलिए।...तुम्हें इस घड़ी पर भी गुस्सा आता होगा। जिससे मोह होता है, उसी पर सबसे ज़्यादा गुस्सा आता है। बताओ, हम तुम्हारी क्या मदद करें?

हानूश : तुम कौन हो?

आदमी : तुम मुझे नहीं जानते हानूश! हम इधर ही रहते हैं, दस्तकार हैं। लोहारी का काम करते हैं।...तुम तो इन पुर्जों को हाथ लगाते ही समझ जाओगे। यह तो तुम्हारे हाथ की बनाई चीज़ है। इसे तो तुमने जन्म दिया है, इसके तो अंग-अंग से तुम वाकिफ़ हो।

[हानूश घड़ी के पास जाकर उसे पकड़ता है। पहले तो पहिए को पकड़े रहता है, फिर उसे सहलाता है, उस पर हाथ फेरता है।]

आदमी : जिस रोज़ घड़ी लगी थी, हम दिन-भर यहाँ मीनार के नीचे खड़े रहे। हर बार जब घड़ी बजती तो हमें जैसे बिजली छू जाती। मैं कहूँ, कैसी करामात है! अपने-आप चलती है, अपने-आप बजती है।...

[हानूश इस बीच चक्करों को हौले-हौले हिलाने-चलाने लगा है। धीरे-धीरे घड़ी के प्रति उसका मोह जागने लगा है।]

हानूश : (अपने से बात करते हुए) यह छड़ कौन-सी है?...और, इसी से वज़न बँधा है। समझा!...मैं छोटे चक्कर के पास खड़ा हूँ।

आदमी : कुछ चाहिए? हम मदद करें? हानूश भाई, तुम रोज़ इधर बाग़ में आते हो न। हम रोज़ तुम्हें देखते हैं। हमने अपनी घरवाली से कहा-तुम देखना, हानूश कुफ़्लसाज़ ने ऐसी चीज़ बनाई है जो सदियों तक चलती रहेगी। हम-तुम यहाँ नहीं रहेंगे, हानूश भी नहीं होगा मगर हानूश की घड़ी हमेशा बजती रहेगी।

[हानूश थोड़ा-थोड़ा अपने-आप इधर-उधर चलने लगा है। कयास से पुर्जों पर हाथ रखता है। किसी पुर्जे को पकड़कर हिलाता है। टिक्-टिक् की आवाज़ आने लगती है। उसे छोड़ देता है, टिक्-टिक् की आवाज़ बन्द हो जाती है।]

हानूश : सुनो जी, कौन हो तुम?

आदमी : कहो हानूश भैया, क्या है?

हानूश : इधर नीचे की ओर तो देखो।

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