नाटक-एकाँकी >> हानूश हानूशभीष्म साहनी
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आज जबकि हिन्दी में श्रेष्ठ रंग-नाटकों का अभाव है, भीष्म साहिनी का नाटक ‘हानूश’ रंग-प्रेमियों के लिए सुखद आश्चर्य होना चाहिए।
आदमी : यह कुछ रखा है, कोई घड़ी का हिस्सा है क्या?
हानूश : उठाओ तो... (हाथ में लेकर) पेंडुलम है। लीवर टूटने पर पेंडुलम नीचे आ गिरा है। छड़ को जंग लगा हुआ है।
मैंने पहले ही कहा था, यहाँ सीलन बहुत है, पुर्जों को जंग लग गया है। न जाने और क्या टूट गया है!
[नीचे झुककर पुर्जों को टटोलता रहता है। फिर उठ खड़ा होता है और अपना दरबारी कोट उतारकर फेंक देता है और आस्तीनें चढ़ा लेता है।]
तुम्हारे पास कोई कपड़ा है? कोई चिथड़ा हो, ज़रा लाना तो...इधर औज़ारों का बक्सा रखा है, उसमें मिल जाएगा।...जिन पुर्जों पर मैं हाथ रखू, उन्हें ज़रा पोंछते जाना। देखो, उन पर जंग तो नहीं चढ़ा है...धीरे-धीरे, बहुत धीरे-धीरे, घड़ी के पुर्जे बहुत नाजुक होते हैं।...
[काम में खो जाता है।]
इधर, दीवार के पास तेल का एक बर्तन रखा है। उसमें चिथड़ा भिगोकर तो मुझे देना, जल्दी...
[धीरे-धीरे रोशनी मद्धिम पड़ती जाती है। खिड़की के बाहर हलका-हलका उजाला नज़र आने लगा है। हानूश काम में खोता जा रहा है। फेड आउट।
फेड ऑन होने पर दिन चढ़ आया है। अन्दर भी रोशनी ज़्यादा है। रोशनी के दायरे में कात्या हानूश के पास खड़ी है। हानूश आस्तीनें चढ़ाए मशीन पर झुका हुआ है, फिर माथे का पसीना पोंछकर उठ खड़ा होता है।]
हानूश : पहले तो मैंने समझा, कात्या, कि इसे किसी ने जानबूझकर तोड़ा है। मुझे शक था कि शायद गिरजेवालों ने शरारत की है। लीवर टूटा हुआ है। मुझे यक़ीन है, इसे ज़रूर किसी ने तोड़ा है। घड़ी को तोड़ना क्या मुश्किल काम है? पर क्या मालूम, यह लीवर ही कमज़ोर निकला हो!...लगता है, हमें नया लीवर डालना पड़ेगा।
कात्या : (अपनी डबडबाई आँखों को पोंछती है) तुम फिर पहले की तरह बातें करने लगे हो, हानूश, मुझे अच्छा लग रहा है।
[हँसकर आँसू पोंछती है।]
हानूश : कात्या, तुम्हें एक बात बताऊँ...मैं तो यहाँ घड़ी को तोड़ने आया था। मैंने हथौड़ा उठाया भी मगर उसे चला नहीं पाया। कात्या, जब मैंने कमानी पर हाथ रखा तो तुम्हें क्या बताऊँ, मेरे सारे शरीर में झुरझुरी दौड़ गई। मुझे लगा, जैसे मेरा हाथ घड़ी के दिल पर जा पड़ा है-इसके बाद मुझसे घड़ी को तोड़ा ही नहीं गया...मेरा हाथ उठता ही नहीं था।...कात्या, यहाँ पर एक आदमी आया था। कहाँ गया?
कात्या : कौन था?
हानूश : मैं नहीं जानता, कौन था। कोई भोला-भाला-सा आदमी था। अधिकारी मेरी मदद के लिए उसे कहीं से पकड़ लाए थे। कोई लोहार था। मुझसे कहने लगा : 'तुम घड़ी के साथ कैसे रूठ सकते हो हानूश, तुम्हीं ने तो उसे बनाया है। बनानेवाला भी कभी अपनी चीज़ को तोड़ता है!' उसकी बातें सुनकर मुझे शर्म-सी महसूस होने लगी, कात्या। मैं अपने को बहुत छोटा महसूस करने लगा। और फिर, मैंने अपने लिए तो घड़ी नहीं बनाई थी न, कात्या, यह तो सबकी चीज़ थी। एक बार बन गई तो सबकी हो गई, मेरी कहाँ रह गई! मैं कहूँ, लोग तो मुझे घड़ी के लिए आशीर्वाद दे रहे हैं, मेरे हाथों में फूलों के गुच्छे रख जाते हैं और मैं उसे तोड़ने जा रहा हूँ? यह कितनी ओछी बात है! मेरा दिल भर-भर आया कात्या, तुम्हें क्या बताऊँ!...
कात्या : वह आदमी नहीं आता तो भी तुम वही कुछ करते जो तुमने किया।
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