नाटक-एकाँकी >> माधवी माधवीभीष्म साहनी
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प्रख्यात लेखक भीष्म साहनी का यह तीसरा नाटक ‘माधवी’ महाभारत की एक कथा पर आधारित है
गालव : महाराज, गुरु-दक्षिणा में मुझे आठ सौ अश्वमेधी घोड़े देने हैं।
ययाति : हैरान होकर आठ सौ अश्वमेधी घोड़े ? क्या ऋषि विश्वामित्र ने यह गुरु दक्षिणा माँगी है ?
गालव : सिर झुकाकर महाराज, दोष मेरा ही है। गुरुदेव ने तो कहा था कि उन्हें गुरु दक्षिणा नहीं चाहिए, तुम बारह विद्याओं में पारंगत हुए हो, यही मेरी गुरु-दक्षिणा है। पर महाराज, मैंने हठ किया, बार-बार आग्रह किया कि मैं तो गुरु-दक्षिणा देकर ही रहूँगा। इस पर गुरुवर क्रुद्ध हो उठे, बोले, 'अच्छा, मेरी गुरु-दक्षिणा आठ-सौ अश्वमेधी घोड़े होंगे।' गुरुदेव की बात सुनकर तो मेरे होश उड़ गये। मैं यह गुरु-दक्षिणा कहाँ से जुटा पाऊँगा। इस पर गुरु महाराज कड़ककर बोले 'अब जाओ और गुरु-दक्षिणा का प्रबन्ध करो।' तब से मैं भटक रहा हूँ, यह गुरु-दक्षिणा मैं अभी तक नहीं जुटा पाया।
ययाति : मैं ऋषि विश्वामित्र को जानता हूं। उन्होंने क्रोध में आकर ही तुमसे यह गुरु-दक्षिणा माँगी है । तुम्हें अभी भी उनके पास लौट जाना चाहिए और उनसे क्षमा-याचना करनी चाहिए।
गालव : सीधा, तनकर खड़ा हो जाता है मैं वचनबद्ध हूँ, महाराज । मैं गुरु-दक्षिणा लेकर ही अब उनके सामने जाऊँगा।
ययाति : बड़े हठी हो, मुनिकुमार । तुम मुट्ठी-भर तण्डुल भी ले जाओगे तो तुम्हारे गुरु प्रसन्न होंगे। तुम उनके शिष्य हो, वह तुम्हें क्षमा कर देंगे।
गालव : नहीं महाराज, मैं वचनबद्ध हूँ। गुरु-दक्षिणा लेकर ही उनके पास जाऊँगा।
ययाति : मुस्कराकर, गालव को पीठ पर हाथ रखते हुए मुझे तुम्हारी निष्ठा और आस्था देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई। पर अश्वमेध के आठ सौ घोड़े तुम कैमे जुटा पाओगे?
गालव : इसीलिए मैं आपके द्वार पर आया हूँ, महाराज ।
ययाति : हंसकर मेरे पास अश्वमेधी घोड़े कहाँ ? मैं अब आश्रमवासी हूँ, राजा नहीं हूँ। मेरे पास तो मेरी सवारी के लिए भी घोड़ा नहीं है, तुम अश्वमेधी घोड़े लेने आये हो, और वह भी एक नहीं, पूरे आठ सौ।
गालव : महाराज ययाति ने राज-पाट त्याग दिया है, मैं जानता हूँ, पर मैं यह भी जानता हूँ कि यशस्वी, दानवीर ययाति ही मेरी अभ्यर्थना का कोई उपाय कर सकते हैं।
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