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कविता संग्रह >> बर्फ की दीवार

बर्फ की दीवार

धनंजय कुमार

प्रकाशक : ग्रंथ अकादमी प्रकाशित वर्ष : 2001
पृष्ठ :118
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2561
आईएसबीएन :81-85826-90-0

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प्रस्तुत है कविता-संग्रह...

Barf Ki Deewar Dhananjay Kumar a hindi book by Dhananjay Kumar - बर्फ की दीवार - धनंजय कुमार

प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश

अब लगता है लमहों का
खाता भी खुला हुआ है
वक़्त पास या दूर खड़ा हो
नातों से नाता है
आज रात सोने से पहले
सपनों को चुनना है।

शाम का खाना और कैसेट गानों का
चुनना है सपनों की तैयारी में
दूध, शहद शामिल करना है
लहसुन, मिर्च परे रखना है
तारतम्य आगे बढ़ने का बना रहे
सपनों से नाता जुड़ा रहे।
भूखे-प्यासों पर दाना पानी बिखरे
अस्पताल, स्कूल, इलेक्शन का चंदा निकले
घटता रहे बोझ गठरी का छन-छनकर
यों ही उड़ती रहे धूल पगडंडी पर।

पतझड़ है, पत्तों की गूँज धराशायी है
सेज बनी है झुके हुए सूखे पेड़ों की
आनेवाला कल हो या निस्तब्ध समय हो जहाँ-जहाँ आरक्षण है, जाना ही होगा।

कविता


कविता की अंतिम सीमा तक
कवि भी साथ नहीं दे पाया
जो भी पहुँचा अपनी हद तक
सीमाबद्ध सभी को पाया।

कवि प्रेमी भी होते हैं कुछ
नहीं जानते सीमाओं को
चलते ही जाते हैं, लेकिन
एक लक्ष्य किसने अपनाया।

चलते-फिरते आ गिरते हैं
उन्हीं भावनाओं के आगे
जिनकी पंखुड़ियों, पंखों पर
उठकर, उड़कर मन उकताया।

इर्ग-गिर्द एक बिंदु के
कितना ही आतंक बिछाया
जब भी निकले दूर तनिक तो
चुंबक सा आकर्षण पाया।

लेकिन सबकी एक यात्रा
बिंदु, भावना, छवि या कवि हो
एक साथ हैं, फिर भी इनको
एक स्थल पर कभी न पाया।

सबने सबको समझ लिया है
थोड़ी सी पहचान बची है
जाने-आनजाने का अंतर
जिसने जितना ढूँढ़ा, पाया।

कविता की कविता


ज्वाला की लपटें हैं बंद पलक पर
मन में एक विस्फोट हुआ जाता है
नाच रही होंठों पर एक कहानी
यही हमारी कविता की कविता है।

बैठा है छुपकर प्रकाश आँखों में
कानों में सन्नाटा बोल रहा है
जानेवालों का अस्तित्व रुका है
उड़ती धरती पर उड़कर गिरता है
एक रोशनी का फंदा लगता है
कितनी जिंदा लाशें घूम रही हैं
थमी हुई फ़रियादें गूँज रही हैं।

मुट्ठी में भरते हैं मुक्त पवन को
कुछ बातें होंठों से उड़ जाती हैं
कही हुई बातें आधी लगती हैं
यही अनकहे शब्दों की क्षमता है
यही हमारी कविता की कविता है।

अकविता


उसने कहा
आज मैं हूँ उदास
तुम कवि हो
कोई गीत लिखो
जो कर दे मेरा मन
परिवर्तित।

मैंने शायद ऐसी कविता लिखी नहीं थी
इसलिए एक खाली पन्ना
थमा दिया उसके हाथों में।
एकाग्रचित्त और शांत मनस,
उसकी नजरें कुछ देर
टिकीं खाली पन्ने पर
और कुछ देर मेरे चेहरे पर
होंठों की मुसकान लिये आँखों में
मुझसे हाथ मिलाकर चला गया।

रह गया ढूँढ़ता मैं
खाली पन्ने पर
वह कविता
जिसको उसने शायद
पढ़ ही लिया था।

एक शाम


बहुत अजनबी एक शाम थी

चाँद अँधेरे से लिपटा था
घर भी खाली पड़ा हुआ था
आसमान तक परछाईं थी
सबकुछ दूर हुआ जाता था।

बारिश कितनी देर चली थी
सन्नाटा सा बिछा हुआ था
पत्ते कुछ-कुछ बोल रहे थे
धरती से कोहरा उठता था
बादल भी कुछ ठहर गए थे।

कोई घर के दरवाज़े पर
कपड़े की एक थैली लेकर
अंदर-बाहर देख रहा था
उसको यह अहसास नहीं था
घर के बाहर निकल पड़ा है
या घर के अंदर जाना है।

बहुज अजनबी एक शाम थी।

संवाद


मैंने तो इस जीवन में ही
कितने जन्म लिये हैं
इसीलिए शायद नाता है
तुमसे जन्मों का।

लेकिन तुमसे फिर भी
कुछ बातें करनी हैं
केवल तुमसे।

ये अस्तित्व, अहंकार
ये रूप तुम्हारा
शायद छननी बनकर
मेरी बातों का कुछ अर्थ छुपा ले
और बदल दे।

इसीलिए कहता हूँ
चलो चलें बाहर
कमरे से
जीवन से
और कविता से भी।

प्रकाश दृष्टि


अगर मैं छू पाता
तुम्हारी, अपनी और सबकी
अव्यक्त अनुभूतियों को
तो मेरी दृष्टि का
कोई कोण न होता।

पृथ्वी जैसी बड़ी-बड़ी आँखें
बिखर जातीं सौरमंडल में
और समा जातीं
प्रकाश की अनंत दिशाओं में
फिर दृष्टि ख़ुद प्रकाश बन जाती
किसी की व्यक्तिगत धरोहर न होती
प्रकाश-बिंदु की तरह।

आरक्षण


पत्नी बोली आज शाम पिक्चर का
टिकट लिया है
बेटी बोली परसों कॉलिज की मीटिंग है
क्रिसमस की छुट्टी में बुकिंग हुई है बाहर जाने की
दीवाली पर ताश खेलने का प्रोग्राम बना है।

हम तो समझे थे दाने-दाने पर नाम लिखा है
अब लगता है लम्हों का
खाता भी खुला खुला है
वक़्त पास या दूर खड़ा हो
नातों से नाता है
आज रात सोने से पहले
सपनों को चुनना है।

शाम का खाना और कैसेट गानों का
चुनना है सपनों की तैयारी में
दूध, शहद शामिल करना है
लहसुन, मिर्च परे रखना है
तारतम्य आगे बढ़ने का बना रहे
सपनों से नाता जुड़ा रहे।

भूखे-प्यासों पर दाना पानी बिखरे
अस्पताल, स्कूल, इलेक्शन का चंदा निकले
घटता रहे बोझ गठरी का छन-छनकर
यूँ ही उड़ती रहे धूल पगडंडी पर।

पतझड़ है, पत्तों की गूँज धराशायी है
सेज बनी है झुके हुए सूखे पत्तों की
आनेवाला कल हो या निस्तब्ध समय हो
जहाँ-जहाँ आरक्षण है, जाना ही होगा।

एकाग्र


अर्थ मचलते हैं अंबर पर
शब्द थिरकते हैं धरती पर
इन दोनों का जोड़ मिला लूँ
तब मैं अपनी बात कहूँ।

कालचक्र के मध्य बिंदु पर
रूप तुम्हारा उभर सा गया
भावुकता का चित्र बना लूँ
तब मैं अपनी बात कहूँ।

कुछ वापस आए हैं, कुछ
बैठे हैं जाने को तैयार
इनका थोड़ा ध्यान बँटा लूँ
तब मैं अपनी बात कहूँ।

सघन मनस की गहराई में
एक मरुस्थल टिका हुआ है
इसमें कोई नहर निकालूँ
तब मैं अपनी बात कहूँ।

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