भाषा एवं साहित्य >> परिष्कृत हिन्दी व्याकरण परिष्कृत हिन्दी व्याकरणबदरीनाथ कपूर
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व्याकरण संबंधी विवादास्पद बातों का समाधान....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
यदि भाषा ‘बहता नीर’ है तो व्याकरण उसका ‘तटबंध’
जिस प्रकार तटबंध जल धारा का नियमन करता है उसी प्रकार व्याकरण भाषा का।
तटबंध यदि जलधारा को मर्यादा तोड़ने से रोकता है तो व्याकरण भी भाषा को
उल्लंघन करने से रोकता है। जलधारा और भाषा यदि दोनों प्राकृतिक अजस्त्रता
की प्रतीक हैं तो तटबंध और व्याकरण उन्हें मर्यादित करने के मानवीय
अध्यवसाय के। यदि धारा कुपित अवस्था में धन-जन की हानि करती है तो भाषा भी अराजक स्थिति में विचार संपत्ति को विश्रृंखलित करती है। यदि धारा की
अराजकता के बावजूद तटबंध का महत्व अक्षुण्ण रहता है तो भाषा की अराजकता के
बावजूद व्याकरण की उपयोगिता कम नहीं हो सकती।
प्रस्तुत पुस्तक में प्रसिद्ध भाषा विज्ञानी व वैयाकरण डॉ. बदरीनाथ कपूर ने व्याकण के सू्क्ष्म-से-सूक्ष्म उपयोगों को दृष्टिगत करते हुए व्याकरण संबंधी विवादास्पाद बातों का समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। यह पुस्तक हिन्दी व्याकरण का एक मानक स्वरूप स्थापित करने में सफल होगी तथा स्कूल-कॉलेज के छात्र-अध्यापक व सुधी पाठक इससे अपनी भाषा को और परिष्कृत कर पाएँगे, ऐसा हमारा विश्वास है।
प्रस्तुत पुस्तक में प्रसिद्ध भाषा विज्ञानी व वैयाकरण डॉ. बदरीनाथ कपूर ने व्याकण के सू्क्ष्म-से-सूक्ष्म उपयोगों को दृष्टिगत करते हुए व्याकरण संबंधी विवादास्पाद बातों का समाधान प्रस्तुत करने का प्रयास किया है। यह पुस्तक हिन्दी व्याकरण का एक मानक स्वरूप स्थापित करने में सफल होगी तथा स्कूल-कॉलेज के छात्र-अध्यापक व सुधी पाठक इससे अपनी भाषा को और परिष्कृत कर पाएँगे, ऐसा हमारा विश्वास है।
प्रथम संस्करण की भूमिका
यदि भाषा ‘बहता नीर’ है तो व्याकरण उसका
‘तटबंध’।
जिस प्रकार तटबंध जलधारा का नियमन करता है उसी प्रकार व्याकरण भाषा का।
तटबंध यदि जलधारा को मर्यादा तोड़ने से रोकता है तो व्याकरण भी भाषा को
मर्यादा का उल्लंघन करने से रोकता है। जलधारा और भाषा यदि दोनों प्राकृतिक
अजस्रता की प्रतीक हैं, तो तटबंध और व्याकरण उन्हें मर्यादित करने के
मानवीय अध्यवसाय के। यदि धारा कुपित अवस्था में धन-जन की हानि करती है तो
भाषा भी अराजक स्थिति में विचार-संपत्ति को विश्रृंखलित करती है। यदि धारा
की अराजकता के बावजूद तटबंध का महत्त्व अक्षुण्ण रहता है तो भाषा की
अराजकता के बावजूद व्याकरण की उपयोगिता कम नहीं होती।
प्राय: लोग इस बात को भूल जाते हैं कि साहित्यिक (शिष्ट) भाषा सभी देशों और कालों में लेखकों की मातृभाषा अथवा बोलचाल की भाषा से थोड़ी बहुत भिन्न रहती है और वह मातृभाषा के समान, अभ्यास से ही आती है। ऐसी अवस्था में, केवल स्वतंत्रता के आवेश से वशीभूत होकर शिष्ट भाषा पर विदेशी भाषाओं अथवा प्रांतीय बोलियों का अधिकार चलाना एक प्रकार की राष्ट्रीय अराजकता है। यदि स्वयं लेखकगण अपनी साहित्यिक भाषा को, योग्य अध्ययन और अनुकरण से शिष्ट, स्पष्ट और प्रामाणिक बनाने की चेष्टा न करेंगे तो वैयाकरण ‘प्रयोगशरण’ का सिद्धांत कहाँ तक मान सकेगा ?’1
उक्त विचार हिंदी व्याकरण के मूर्धन्य वैयाकरण पं.कामताप्रसाद गुरु ने कोई साठ वर्ष पहले व्यक्त किये थे। लगता है हम लोग महापुरुषों के अनुभवों से सीख लेने के अभ्यस्त नहीं। उपेक्षा-वृत्ति से हम अपने लिए कितने झमेले खड़े करते हैं और इस प्रकार अपनी कितनी हानि भी कर लेते हैं, दुर्भाग्य से इसका हमें जल्दी भान भी तो नहीं होता। संयम और नियम जीवन के हर क्षेत्र में आवश्यक ही नहीं अपरिहार्य भी होते हैं। हमारे देश में सैकड़ों बोलियाँ हैं, दर्जनों राज्य-भाषाएँ हैं और
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1. पं. कामताप्रसाद गुरु. हिन्दी व्याकरण (प्रथम संस्करण)
कई एक विदेशी भाषाएँ भी यहाँ बोली-समझी जाती हैं। यदि सभी लोग मनमाना आचरण करें तो आखिर कहाँ ठिकाना लगेगा। ऐसा नहीं कि बोलियों अथवा अन्य भाषाओं से हिंदी को कुछ नहीं लेना चाहिए। लेना चाहिए, हिंदी ने लिया भी है और ले भी रही है। वह लेती भी रहेगी इसमें भी संदेह नहीं। जीवित भाषाएँ अन्य भाषाओं से शब्द भी ग्रहण करती हैं और प्रयोग-विधाएँ भी, क्योंकि इससे उनका शब्द-भंडार तो उन्नत होता ही है, अभिव्यंजना शक्ति भी विकसित होती है। परंतु इसकी भी एक सीमा होती है। जिस प्रकार प्रकृति-विरुद्ध कोई वस्तु ग्रहण करने से अपच हो जाती है। बाहरी तत्व अलंकार के रूप में ही होने चाहिए, लादी के रूप में नहीं। भारतीय परंपरा में भाषा को देवी माना जाता है अत: हमारे लिए वह पवित्र भी है और पूज्य भी है। वह पवित्र है इसलिए उसे दूषित नहीं करना चाहिए, वह पूज्य है इसलिए उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। हमें सदा स्मरण रखना चाहिए कि अधिकार के प्रति जागरुक तथा कर्त्तव्य के प्रति निष्ठावान होने से ही काम सरता है। भाषा के संबंध में यह बात सोलहो आने सत्य है।
प्रस्तुत व्याकरण को लिखने की प्रेरणा मुझे पं.कामताप्रसाद गुरु के ‘हिंदी व्याकरण’ से ही मिली। गुरुजी ने ‘हिंदी व्याकरण’ की भूमिका में अपने व्याकरण-संबंधी ज्ञान तथा अनुभवों का बड़ा सुन्दर लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। उन्होंने बड़ी ईमानदारी से स्वीकार किया है-
‘यह व्याकरण, अधिकांश में, अंग्रेज़ी व्याकरण के ढंग पर लिखा गया है...(परंतु) हिंदी भाषा के लिए वह दिन सचमुच बड़े गौरव का होगा जब इसका व्याकरण ‘अष्टाध्यायी’ और ‘महाभाष्य’ के मिश्रित रूप में लिखा जाएगा, पर वह दिन अभी बहुत दूर दिखाई पड़ता है।’1
पंद्रह-बीस वर्ष पहले उक्त तथ्य मेरे ध्यान में आया था। उन दिनों काशी में ‘अष्टाध्यायी’ के माध्यम से संस्कृत व्याकरण की शिक्षा देने का कार्य आचार्य ब्रह्मदत्त ‘जिज्ञासु’ कर रहे थे। मैं उनके पास गया। वे प्रशिक्षण-शिविर के आयोजन में व्यस्त थे। उन्होंने अपने ‘त्रैमासिक प्रशिक्षण शिविर’ में भरती हो जाने के लिए कहा। फिर कुछ ही दिनों बाद उनका ‘शिविर’ प्रारंभ हुआ। मैं तीन महीने तक नियमित रूप से वहाँ जाता रहा। ‘अष्टाध्यायी’ के कोई एक हजार सूत्रों का अर्थ करना सिखलाया गया। फिर परीक्षा हुई। मेरा परीक्षा फल चमत्कारिक था-सबसे अधिक अंक। चमत्कारिक इसलिए कि मेरे सहपाठियों में से कई संस्कृत से एम.ए.
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1. वही, भूमिका, पृ.3-4।
तथा पी.एच.डी. भी थे जबकि मुझे संस्कृत नाम को ही आती थी। भाषा और शब्दों के प्रति मेरी रुचि संस्कारगत थी ही, अब ‘अष्टाध्यायी’ की पद्धति ने भी मुझे कुछ बांध-सा लिया। गुरुजी की आकांक्षा की पूर्ति करने की अंत:प्रेरणा हुई और फिर मैं इस कार्य में प्रवृत्त हो गया। आज इसका फल आपके सामने हैं। इस पद्धति को अपनाने से हिंदी व्याकरण के स्वरूप में यदि कुछ सुधार हुआ हो तो उसका पूरा-पूरा श्रेय पं.कामताप्रसाद गुरु एवं पं.ब्रह्मदत्त ‘जिज्ञासु’ को है, मुझे नहीं। मैं तो निमित्त मात्र हूँ। ईश्वर को जिससे जब जैसा कार्य करवाना होता है करवा ही लेता है।
इस पद्धति का स्वरूप ही कुछ ऐसा है कि भाषा की प्रकृति के दर्शन आप से आप होते चलते हैं। संभवत: यही पद्धति हिंदी भाषा की प्रकृति के अनुकूल भी है। हमारे अनेक भाषाशास्त्री इधर विदेशी व्याकरणों के आधार पर नए-नए व्याकरण लिखने में या स्कूली व्याकरण लिखने में परिश्रम कर रहे हैं, वे यदि इस पद्धति को अपनाएँ तो मैं समझता हूँ कि कुछ ही वर्षों के प्रयास से वे हिंदी व्याकरण का मानक स्वरूप स्थिर करने में सफल हो सकते हैं। इस पद्धति में स्पष्टता भी है, रोचकता भी और गणितीय प्रश्नों के हल करने का-सा मजा भी। मैंने कोई असंभव कार्य कर दिखलाने का प्रयास नहीं किया, हाँ, अपने को भाषा की प्रकृति देखने-समझने में अवश्य लगाए रखा है। इस व्याकरण में ऐसे अनेक नियम हैं जिन्हें बीसियों बार लिखना तथा दुहराना पड़ा है और संभव है तिस पर भी वे त्रुटिपूर्ण रह गए हों। पूरे का पूरा व्याकरण भी मुझे अनेक बार नए सिरे से लिखना पड़ा है। इस पद्धति का ही कुछ चमत्कार या आकर्षण था जो मुझे अपनी ओर खींचता था और मैं था कि दस-दस और पंद्रह-पंद्रह घंटे नित्य इसमें खोया-सा रहता था। सच तो यह है कि यह क्रम अब भी चल रहा है। ऐसा नहीं कि कभी उकताहट या खिजलाहट नहीं हुई, परंतु जब कोई नया नियम पकड़ में आता सा दिखाई पड़ता तो सारी उकताहट-खिजलाहट हवा हो जाती, मन अनिर्वचनीय आनंद से भर जाता और मैं फिर दुगने उत्साह से अगले नियम के तंतुओं के संयोजन में जुट जाता।
पं.कामताप्रसाद गुरु की यह इच्छा भी थी कि वे स्वयं ‘कारकों और कालों का विवेचन संस्कृत की शुद्ध प्रणाली के अनुसार करते।’1 परंतु वे ऐसा न कर सके। इस व्याकरण में कारकों और कालों का विवेचन संस्कृत की पद्धति के अनुरूप ही किया गया है।
‘वाच्य’ हिंदी में जितना अधिक सरल और स्पष्ट है उतना ही अधिक हमारे वैयाकरणों ने उसे उलझाया है। पाठक देखेंगे कि ‘वाच्य’ में कहीं पेचीदापन है ही नहीं।
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1. वही, भूमिका, पृ. 4।
व्याकरण संबंधी जितनी भी विवादास्पद बातें मेरे सामने आईं उन सबका समाधान प्रस्तुत करने का मैंने प्रयत्न किया है। समाधान तर्क पर खरा उतरे, मैंने इस संबंध में भी सावधानी बरती है। भूलें हर किसी से होती हैं, मैं ही उनसे कैसे बच सकता हूँ।
इस पुस्तक का सुधार-संशोधन आचार्य प्रवर पं.विश्वनाथ मिश्र द्वारा हुआ है। सच तो यह है कि सच्चे गुरु के रूप में उन्होंने अपने तपोबल से पत्थर को पारस बनाने का प्रयास किया है। यह पुस्तक उन्हें सादर समर्पित है। राष्ट्रभाषा-पतंजलि श्रद्धेय स्वामी निगमानंदजी एवं परम पूज्य स्वामी डॉ.सर्वदानंदजी ने भी मुझे अनेक बहुमूल्य सुझाव दिए हैं इनके प्रति नतमस्तक होना भी मैं अपना कर्तव्य समझता हूं। शब्दर्षि बाबू रामचंद्र वर्मा को भी इस अवसर पर मैं कैसे भूल सकता हूं। उनके आशीर्वाद से ही तो यह कार्य संपूर्ण हुआ है। अपनी शब्दगोष्ठी के सदस्यों के अनवरत सहयोग से भी मेरा कार्य सरल हुआ है। श्री शिवनाथ प्रसाद बेरी, डा.ब्रजमोहनजी एवं श्री शिवनाथ राघव शब्दगोष्ठी के प्राण रहे हैं।
मैं यहाँ उन वैयाकरणों के प्रति भी अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूँ जिनके ग्रंथों से मैं लाभावन्वित हुआ हूं। उनमें से प्रमुख हैं आचार्य किशोरीदास वाजपेयी एवं राष्ट्रभाषा-पतंजलि स्वामी निगमानंदजी। हिंदी जगत वाजपेयी जी तथा निगम बाबा की सेवाओं से कभी उऋण नहीं हो सकता।
अंत में अपने उदार पाठकों से। इस ज्ञानयज्ञ में उनकी भी तो आहुति चाहिए। जो त्रुटियाँ, भूलें अथवा विसंगतियाँ उन्हें दिखाई पड़े, उनसे मुझे वे अवश्य परिचित कराएँ। मैं उनके सुझावों का सदुपयोग भी करूंगा और उन्हें धन्यवाद भी दूंगा।
प्राय: लोग इस बात को भूल जाते हैं कि साहित्यिक (शिष्ट) भाषा सभी देशों और कालों में लेखकों की मातृभाषा अथवा बोलचाल की भाषा से थोड़ी बहुत भिन्न रहती है और वह मातृभाषा के समान, अभ्यास से ही आती है। ऐसी अवस्था में, केवल स्वतंत्रता के आवेश से वशीभूत होकर शिष्ट भाषा पर विदेशी भाषाओं अथवा प्रांतीय बोलियों का अधिकार चलाना एक प्रकार की राष्ट्रीय अराजकता है। यदि स्वयं लेखकगण अपनी साहित्यिक भाषा को, योग्य अध्ययन और अनुकरण से शिष्ट, स्पष्ट और प्रामाणिक बनाने की चेष्टा न करेंगे तो वैयाकरण ‘प्रयोगशरण’ का सिद्धांत कहाँ तक मान सकेगा ?’1
उक्त विचार हिंदी व्याकरण के मूर्धन्य वैयाकरण पं.कामताप्रसाद गुरु ने कोई साठ वर्ष पहले व्यक्त किये थे। लगता है हम लोग महापुरुषों के अनुभवों से सीख लेने के अभ्यस्त नहीं। उपेक्षा-वृत्ति से हम अपने लिए कितने झमेले खड़े करते हैं और इस प्रकार अपनी कितनी हानि भी कर लेते हैं, दुर्भाग्य से इसका हमें जल्दी भान भी तो नहीं होता। संयम और नियम जीवन के हर क्षेत्र में आवश्यक ही नहीं अपरिहार्य भी होते हैं। हमारे देश में सैकड़ों बोलियाँ हैं, दर्जनों राज्य-भाषाएँ हैं और
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1. पं. कामताप्रसाद गुरु. हिन्दी व्याकरण (प्रथम संस्करण)
कई एक विदेशी भाषाएँ भी यहाँ बोली-समझी जाती हैं। यदि सभी लोग मनमाना आचरण करें तो आखिर कहाँ ठिकाना लगेगा। ऐसा नहीं कि बोलियों अथवा अन्य भाषाओं से हिंदी को कुछ नहीं लेना चाहिए। लेना चाहिए, हिंदी ने लिया भी है और ले भी रही है। वह लेती भी रहेगी इसमें भी संदेह नहीं। जीवित भाषाएँ अन्य भाषाओं से शब्द भी ग्रहण करती हैं और प्रयोग-विधाएँ भी, क्योंकि इससे उनका शब्द-भंडार तो उन्नत होता ही है, अभिव्यंजना शक्ति भी विकसित होती है। परंतु इसकी भी एक सीमा होती है। जिस प्रकार प्रकृति-विरुद्ध कोई वस्तु ग्रहण करने से अपच हो जाती है। बाहरी तत्व अलंकार के रूप में ही होने चाहिए, लादी के रूप में नहीं। भारतीय परंपरा में भाषा को देवी माना जाता है अत: हमारे लिए वह पवित्र भी है और पूज्य भी है। वह पवित्र है इसलिए उसे दूषित नहीं करना चाहिए, वह पूज्य है इसलिए उसकी उपेक्षा नहीं करनी चाहिए। हमें सदा स्मरण रखना चाहिए कि अधिकार के प्रति जागरुक तथा कर्त्तव्य के प्रति निष्ठावान होने से ही काम सरता है। भाषा के संबंध में यह बात सोलहो आने सत्य है।
प्रस्तुत व्याकरण को लिखने की प्रेरणा मुझे पं.कामताप्रसाद गुरु के ‘हिंदी व्याकरण’ से ही मिली। गुरुजी ने ‘हिंदी व्याकरण’ की भूमिका में अपने व्याकरण-संबंधी ज्ञान तथा अनुभवों का बड़ा सुन्दर लेखा-जोखा प्रस्तुत किया है। उन्होंने बड़ी ईमानदारी से स्वीकार किया है-
‘यह व्याकरण, अधिकांश में, अंग्रेज़ी व्याकरण के ढंग पर लिखा गया है...(परंतु) हिंदी भाषा के लिए वह दिन सचमुच बड़े गौरव का होगा जब इसका व्याकरण ‘अष्टाध्यायी’ और ‘महाभाष्य’ के मिश्रित रूप में लिखा जाएगा, पर वह दिन अभी बहुत दूर दिखाई पड़ता है।’1
पंद्रह-बीस वर्ष पहले उक्त तथ्य मेरे ध्यान में आया था। उन दिनों काशी में ‘अष्टाध्यायी’ के माध्यम से संस्कृत व्याकरण की शिक्षा देने का कार्य आचार्य ब्रह्मदत्त ‘जिज्ञासु’ कर रहे थे। मैं उनके पास गया। वे प्रशिक्षण-शिविर के आयोजन में व्यस्त थे। उन्होंने अपने ‘त्रैमासिक प्रशिक्षण शिविर’ में भरती हो जाने के लिए कहा। फिर कुछ ही दिनों बाद उनका ‘शिविर’ प्रारंभ हुआ। मैं तीन महीने तक नियमित रूप से वहाँ जाता रहा। ‘अष्टाध्यायी’ के कोई एक हजार सूत्रों का अर्थ करना सिखलाया गया। फिर परीक्षा हुई। मेरा परीक्षा फल चमत्कारिक था-सबसे अधिक अंक। चमत्कारिक इसलिए कि मेरे सहपाठियों में से कई संस्कृत से एम.ए.
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1. वही, भूमिका, पृ.3-4।
तथा पी.एच.डी. भी थे जबकि मुझे संस्कृत नाम को ही आती थी। भाषा और शब्दों के प्रति मेरी रुचि संस्कारगत थी ही, अब ‘अष्टाध्यायी’ की पद्धति ने भी मुझे कुछ बांध-सा लिया। गुरुजी की आकांक्षा की पूर्ति करने की अंत:प्रेरणा हुई और फिर मैं इस कार्य में प्रवृत्त हो गया। आज इसका फल आपके सामने हैं। इस पद्धति को अपनाने से हिंदी व्याकरण के स्वरूप में यदि कुछ सुधार हुआ हो तो उसका पूरा-पूरा श्रेय पं.कामताप्रसाद गुरु एवं पं.ब्रह्मदत्त ‘जिज्ञासु’ को है, मुझे नहीं। मैं तो निमित्त मात्र हूँ। ईश्वर को जिससे जब जैसा कार्य करवाना होता है करवा ही लेता है।
इस पद्धति का स्वरूप ही कुछ ऐसा है कि भाषा की प्रकृति के दर्शन आप से आप होते चलते हैं। संभवत: यही पद्धति हिंदी भाषा की प्रकृति के अनुकूल भी है। हमारे अनेक भाषाशास्त्री इधर विदेशी व्याकरणों के आधार पर नए-नए व्याकरण लिखने में या स्कूली व्याकरण लिखने में परिश्रम कर रहे हैं, वे यदि इस पद्धति को अपनाएँ तो मैं समझता हूँ कि कुछ ही वर्षों के प्रयास से वे हिंदी व्याकरण का मानक स्वरूप स्थिर करने में सफल हो सकते हैं। इस पद्धति में स्पष्टता भी है, रोचकता भी और गणितीय प्रश्नों के हल करने का-सा मजा भी। मैंने कोई असंभव कार्य कर दिखलाने का प्रयास नहीं किया, हाँ, अपने को भाषा की प्रकृति देखने-समझने में अवश्य लगाए रखा है। इस व्याकरण में ऐसे अनेक नियम हैं जिन्हें बीसियों बार लिखना तथा दुहराना पड़ा है और संभव है तिस पर भी वे त्रुटिपूर्ण रह गए हों। पूरे का पूरा व्याकरण भी मुझे अनेक बार नए सिरे से लिखना पड़ा है। इस पद्धति का ही कुछ चमत्कार या आकर्षण था जो मुझे अपनी ओर खींचता था और मैं था कि दस-दस और पंद्रह-पंद्रह घंटे नित्य इसमें खोया-सा रहता था। सच तो यह है कि यह क्रम अब भी चल रहा है। ऐसा नहीं कि कभी उकताहट या खिजलाहट नहीं हुई, परंतु जब कोई नया नियम पकड़ में आता सा दिखाई पड़ता तो सारी उकताहट-खिजलाहट हवा हो जाती, मन अनिर्वचनीय आनंद से भर जाता और मैं फिर दुगने उत्साह से अगले नियम के तंतुओं के संयोजन में जुट जाता।
पं.कामताप्रसाद गुरु की यह इच्छा भी थी कि वे स्वयं ‘कारकों और कालों का विवेचन संस्कृत की शुद्ध प्रणाली के अनुसार करते।’1 परंतु वे ऐसा न कर सके। इस व्याकरण में कारकों और कालों का विवेचन संस्कृत की पद्धति के अनुरूप ही किया गया है।
‘वाच्य’ हिंदी में जितना अधिक सरल और स्पष्ट है उतना ही अधिक हमारे वैयाकरणों ने उसे उलझाया है। पाठक देखेंगे कि ‘वाच्य’ में कहीं पेचीदापन है ही नहीं।
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1. वही, भूमिका, पृ. 4।
व्याकरण संबंधी जितनी भी विवादास्पद बातें मेरे सामने आईं उन सबका समाधान प्रस्तुत करने का मैंने प्रयत्न किया है। समाधान तर्क पर खरा उतरे, मैंने इस संबंध में भी सावधानी बरती है। भूलें हर किसी से होती हैं, मैं ही उनसे कैसे बच सकता हूँ।
इस पुस्तक का सुधार-संशोधन आचार्य प्रवर पं.विश्वनाथ मिश्र द्वारा हुआ है। सच तो यह है कि सच्चे गुरु के रूप में उन्होंने अपने तपोबल से पत्थर को पारस बनाने का प्रयास किया है। यह पुस्तक उन्हें सादर समर्पित है। राष्ट्रभाषा-पतंजलि श्रद्धेय स्वामी निगमानंदजी एवं परम पूज्य स्वामी डॉ.सर्वदानंदजी ने भी मुझे अनेक बहुमूल्य सुझाव दिए हैं इनके प्रति नतमस्तक होना भी मैं अपना कर्तव्य समझता हूं। शब्दर्षि बाबू रामचंद्र वर्मा को भी इस अवसर पर मैं कैसे भूल सकता हूं। उनके आशीर्वाद से ही तो यह कार्य संपूर्ण हुआ है। अपनी शब्दगोष्ठी के सदस्यों के अनवरत सहयोग से भी मेरा कार्य सरल हुआ है। श्री शिवनाथ प्रसाद बेरी, डा.ब्रजमोहनजी एवं श्री शिवनाथ राघव शब्दगोष्ठी के प्राण रहे हैं।
मैं यहाँ उन वैयाकरणों के प्रति भी अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करता हूँ जिनके ग्रंथों से मैं लाभावन्वित हुआ हूं। उनमें से प्रमुख हैं आचार्य किशोरीदास वाजपेयी एवं राष्ट्रभाषा-पतंजलि स्वामी निगमानंदजी। हिंदी जगत वाजपेयी जी तथा निगम बाबा की सेवाओं से कभी उऋण नहीं हो सकता।
अंत में अपने उदार पाठकों से। इस ज्ञानयज्ञ में उनकी भी तो आहुति चाहिए। जो त्रुटियाँ, भूलें अथवा विसंगतियाँ उन्हें दिखाई पड़े, उनसे मुझे वे अवश्य परिचित कराएँ। मैं उनके सुझावों का सदुपयोग भी करूंगा और उन्हें धन्यवाद भी दूंगा।
-बदरीनाथ कपूर
16-9-77
द्वितीय संस्करण की भूमिका
‘परिष्यकृत हिंदी व्याकरण’ का यह दूसरा संस्करण हिंदी
जगत के
समक्ष प्रस्तुत करते हुए मुझे हर्ष हो रहा है। अनेक विद्वानों के सुझावों
के अनुसार इसमें अनेक संशोधन तो किए ही हैं कुछ नियमों में भी परिवर्तन
किया है। आशा है कि इस नए रूप में पाठक इसे अधिक उपयोगी पाएँगे।
शब्दलोक,
47, लाजपत नगर,
वाराणसी-2
शब्दलोक,
47, लाजपत नगर,
वाराणसी-2
-बदरीनाथ कपूर
23-5-97
पहला प्रकरण
व्याकरण. भाषा. वाक्य . शब्द.
१. विचार-विनिमय तथा चिंतन-मनन के उस
माध्यम को
‘भाषा’ कहते हैं जो वाग्-ध्वनियों एवं तत्संबंधी
संकेत-चिह्नों पर अवलंबित होता है।
२. भाषा के सार्वदेशिक विशेषतया संस्कृत रूप को मानक भाषा या परिनिष्ठित भाषा कहते हैं, एवं क्षेत्रीय विशेषतया प्राकृत रूप को बोली।
३. किसी भाषा के बोलने तथा लिखने के नियमों की व्यवस्थित पद्धति को ‘व्याकरण’ कहते हैं।
४. भाषा की ऐसी इकाई को ‘वाक्य’ कहते हैं जिसके द्वारा कोई पूरी बात कही गई है जैसे-
पानी बरस रहा है।
वह दिल्ली में रहता है।
तुमने क्या खाया ?
मैंने कुछ नहीं खाया।
तुम वहाँ गए थे न ?
हाँ, मैं वहाँ गया था।
उक्त सभी वाक्य हैं।
५. प्रयोजन के आधार पर वाक्यों के सात भेद हैं-
(1) विधानसूचक,
(2) आज्ञासूचक,
(3) प्रश्नसूचक,
(4) विस्मयादिसूचक,
(5) इच्छासूचक
(6) संदेहसूचक,
(7) संकेतसूचक।
६. उस वाक्य को ‘विधानसूचक’ कहते हैं जिसमें कोई तथ्य या विवरण प्रस्तुत किया गया हो अथवा कोई सूचना दी गई हो, जैसे-
एक राजा के चार बेटे थे (तथ्य)
कल बहुत पानी बरसा। (विवरण)
राम कल आएगा। (सूचना)
7. उस वाक्य को ‘आज्ञासूचक’ कहते हैं जिसमें किसी को किसी काम में प्रवृत्त करने के लिए आदेश या निदेश किया गया हो, जैसे-
चले जाओ यहाँ से (आदेश)
कल वहाँ चले जाना (निदेश)
8. उस वाक्य को ‘प्रश्नसूचक’ कहते हैं जिसमें किसी से पूछा जाए और फलत: जिसके उत्तर की अपेक्षा हो, जैसे-
तुम क्या कर रहे हो ?
वहाँ तुम कब जाओगे ?
तुमने खा लिया ?
9. ‘प्रश्नसूचक’ वाक्य की पहचान वाक्य में प्रयुक्त किसी प्रश्नसूचक सर्वनाम, संज्ञा-विशेषण या क्रिया-विशेषण से, क्रियापद पर दिए जानेवाले जोर से तथा लिखित वाक्य में उसके अंत में रखे जानेवाले प्रश्नचिह्न से होती है, जैसे-
तुम क्या करोगे ? (प्रश्नसूचक सर्वनाम)
तुम कितने पैसे लोगे ? (प्रश्नसूचक संज्ञा-विशेषण)
तुम कब जाओगे ? (प्रश्नसूचक क्रिया-विशेषण)
तुमने खा लिया ? (क्रियापद पर ज़ोर)
10. ऐसे वाक्य को ‘विस्मयादिसूचक’ कहते हैं जिसमें विस्मय, आवेश, आह्लाद, दुख आदि की अभिव्यक्ति सहसा या उत्कट रूप से हुई हो, जैसे-
अरे, उसे गोली लगी ! (विस्मय)
फेंकों उसे कमरे से बाहर ! (आदेश)
गला घोंट दूँगा उसका ! (आवेश)
कैसा सुंदर दृश्य है ! (आह्लाद)
वह भी चल बसा ! (दुख)
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1. ‘विधान’ का अर्थ है-शासन। इस शब्द का प्रयोग अनेक वैयाकरणों ने किया है। इसीलिए इसे यहाँ भी लिया गया है। वस्तुत: इस शब्द से ठीक ठीक आशय व्यक्त नहीं होता। परंतु जब तक कोई और उपयुक्त शब्द नहीं सुझाया जाता तब तक हम इसी का प्रयोग करने को विवश हैं।
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11. ‘विस्मयादिसूचक’ वाक्य की पहचान वाक्य में प्रयुक्त विस्मयादिसूचक शब्द या चिह्न तथा विशेष स्वर-प्रवाह से होती है।
12. ऐसे वाक्य को ‘इच्छासूचक’ कहते हैं जिससे इच्छा या अभिलाषा व्यक्त होती हो, जैसे-
ईश्वर तुम्हारी उमर लंबी करे।
तुम पर कभी आँच न आए।
भगवान उसका भला करे।
(टिप्पणी-‘राम पुस्तक खरीदना चाहता है’। यह वाक्य ‘विधानसूचक’ है। इसमें तथ्य का प्रस्तुतीकरण किया गया है। दूसरे इस वाक्य में ‘शब्द’ विशेष द्वारा इच्छा व्यक्त की गई है। वाक्य-रूप इच्छा सूचक नहीं।)
13. ऐसे वाक्य को ‘संदेहसूचक’ कहते हैं जिससे किसी बात का अनिश्चय प्रकट होता हो, जैसे-
वह आया होगा।
इन दिनों वहाँ पानी बरसा होगा।
14. ऐसे वाक्य को ‘संकेतसूचक’ या ‘हेतुहेतुमत्’ कहते हैं जिससे इस बात का संकेत होता है कि किसी काम का होना या न होना किसी अन्य कार्य या बात पर अवलंबित है, जैसे-
अगर पानी बरसा तो मैं आऊँगा।
वह नहीं आया तभी तो मुझे जाना पड़ा।
15. जब ‘आज्ञासूचक’ वाक्य निषेधकारक होता है तब उसे निषेधात्मक आज्ञासूचक वाक्य कहते हैं, जैसे-
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1. विस्मयादि वाक्य के अंत में तो विस्मयादि चिह्न सामान्यतया रखा ही जाता है परंतु कुछ लोग वाक्य के आरंभ में विस्मयादि शब्द प्रयुक्त होने पर उसके बाद भी उसे रखते हैं जैसे-
अरे ! उसे गोली लगी !
सामान्यतया उक्त स्थिति में विस्मयादिसूचक शब्द के बाद अल्पविराम ही रखा जाता है परंतु जब वक्ता या लेखक विस्मयादि शब्द ही प्रयुक्त करके रुक जाए तब उसके बाद विस्मयादिसूचक चिह्न का प्रयोग अवश्य होता है, जैसे- अरे !
दूसरे यह भी ध्यान रखना चाहिए कि विस्मयादिसूचक वाक्य में प्रश्न की भी विवक्षा हो सकती है, जैसे-
-उसे गोली लगी !
-हाँ।
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तुम मत जाओ। (निषेधात्मक आदेशसूचक)
आप न जाना। (निषेधात्मक निदेशसूचक)
16. ‘आज्ञासूचक’ के अतिरिक्त अन्य सभी प्रकार के वाक्य जब नकारबोधक अर्थ के सूचक होते हैं तब उन्हें नकारात्मक वाक्य कहते हैं, जैसे-
पानी आज नहीं बरसा। (नकारात्मक विधानसूचक)
वह डूब नहीं मरा ! (नकारात्मक विस्मयादिसूचक)
कहीं दिन डूब न जाए। (नकारात्मक इच्छासूचक)
क्या वह वहाँ नहीं गया था ? (नकारात्मक प्रश्नसूचक)
वह नहीं आया होगा। (नकारात्मक संदेहसूचक)
पानी न बरसा तो फसल भी नहीं होगी (नकारात्मक संकेतसूचक)
17. जिस वाक्य से वक्ता या लेखक की बात पूरी-पूरी व्यक्त न हो उसे अधूरा वाक्य कहते हैं, जैसे-
(1) आपके सब काम हमसे अच्छे होते हैं (आपके सब काम वस्तुत: हमसे अच्छे नहीं बल्कि हमारे कामों से अच्छे होते हैं।)
(2) शराब पीना विष से भयंकर है (या तो होना चाहिए शराब पीना विषपान से भयंकर है, अथवा होना चाहिए शराब विष से भयंकर है।)
18. यदि संदर्भ से अधूरे वाक्य का भी अर्थ स्पष्ट हो तो उसे (लघु) वाक्य ही कहते हैं, जैसे-
-क्या वहाँ जाओगे ?1
-हाँ, जाऊँगा।2
-जाऊँगा।
19. रचना संबंधी दोष अथवा अर्थ-संबंधी संशय या अस्पष्टता होने पर वाक्य असाधु माना जाता है, जैसे-
(क) रचना संबंधी दोष
उसकी कुछ समझ में न आया।1
(ख) अर्थ संबंधी संशय
आपके पास पढ़ने का आदेश देने के लिए अपना रेडियो हो सकता है।2
(ग) अर्थ-संबंधी अस्पष्टता
वह पति के प्रति पीड़ाग्रस्त हो उठी।3
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1. प्रस्तुत वाक्य में ‘तुम’ कर्ता लुप्त है अत: वाक्य अधूरा है। परंतु वक्ता जिससे कह रहा है वह (मध्यम पुरुष) तो उसके सम्मुख ही है, अत: संदर्भ से ज्ञान हो जाता है कि ‘तुम’ वाक्य में छिपा हुआ है।
2. ‘हाँ, जाऊँगा’ भी (लघु) वाक्य है, क्योंकि संदर्भ से स्पष्ट है कि इसका आशय है-हाँ, मैं जाऊँगा।’ हिंदी की प्रकृति तो लाघव सिद्धांत को इस सीमा तक स्वीकार करती है कि उक्त प्रसंग में केवल ‘हाँ’ या केवल ‘जाऊँगा’ कहने से भी आशय व्यक्त हो जाएगा। अत: ‘हाँ’ और ‘जाऊँगा’ भी यहाँ (लघु) वाक्य ही हैं।
20. जो वाक्य व्याकरण के नियमों अथवा भाषा की सहज प्रकृति के विरुद्ध हो, उसे अशुद्ध वाक्य कहते हैं, जैसे-
लड़की आता है।4
मैं मेरे घर जाऊँगा।5
21. वाक्य की रचना जिन अर्थवान् ध्वनि-समूहों से होती है उन्हें ‘शब्द’ कहते हैं, जैसे-
राम राजा है।
मोहन घर गया।
कल पानी बरसेगा।
राम, राजा, है, मोहन, घर, गया, कल, पानी, बरसेगा-सभी शब्द हैं।
22. सामान्यतया शब्द नाम, गुण या क्रिया के सूचक होते हैं परंतु जो शब्द नाम, गुण या क्रिया के सूचक तो नहीं होते परंतु वाक्य रचना में अवश्य सहयोगी होते हैं उन्हें सहायक शब्द कहते हैं, जैसे-
आज ही राम ने मोहन और श्याम को स्टेशन से घर तक पहुँचाया।
शब्द- आज, राम, मोहन, श्याम, स्टेशन, घर, पहुँचाना।
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1. प्रस्तुत वाक्य में ‘कुछ’ शब्द को ठीक स्थान पर न रखने से दोष आ गया है। वाक्य का साधु रूप तो है-
उसकी समझ में कुछ न आया।
2. प्रस्तुत वाक्य से यह संशय होता है कि रेडियो आपको आदेश देने के लिए है अथवा इसलिए है कि आप उसके द्वारा दूसरों को आदेश दें।
3. इस वाक्य से तो पता ही नहीं चलता कि लेखक आखिर कहना क्या चाहता है।
4. वाक्य का शुद्ध रूप है-
लड़की आती है।
5. यह वाक्य बंगला या मराठी भाषा की प्रकृति के तो अनुकूल हैं परंतु हिंदी की प्रकृति के अनुकूल नहीं। हिंदी की प्रकृति के अनुकूल इसका रूप होगा-
मैं अपने घर जाऊँगा।
२. भाषा के सार्वदेशिक विशेषतया संस्कृत रूप को मानक भाषा या परिनिष्ठित भाषा कहते हैं, एवं क्षेत्रीय विशेषतया प्राकृत रूप को बोली।
३. किसी भाषा के बोलने तथा लिखने के नियमों की व्यवस्थित पद्धति को ‘व्याकरण’ कहते हैं।
४. भाषा की ऐसी इकाई को ‘वाक्य’ कहते हैं जिसके द्वारा कोई पूरी बात कही गई है जैसे-
पानी बरस रहा है।
वह दिल्ली में रहता है।
तुमने क्या खाया ?
मैंने कुछ नहीं खाया।
तुम वहाँ गए थे न ?
हाँ, मैं वहाँ गया था।
उक्त सभी वाक्य हैं।
५. प्रयोजन के आधार पर वाक्यों के सात भेद हैं-
(1) विधानसूचक,
(2) आज्ञासूचक,
(3) प्रश्नसूचक,
(4) विस्मयादिसूचक,
(5) इच्छासूचक
(6) संदेहसूचक,
(7) संकेतसूचक।
६. उस वाक्य को ‘विधानसूचक’ कहते हैं जिसमें कोई तथ्य या विवरण प्रस्तुत किया गया हो अथवा कोई सूचना दी गई हो, जैसे-
एक राजा के चार बेटे थे (तथ्य)
कल बहुत पानी बरसा। (विवरण)
राम कल आएगा। (सूचना)
7. उस वाक्य को ‘आज्ञासूचक’ कहते हैं जिसमें किसी को किसी काम में प्रवृत्त करने के लिए आदेश या निदेश किया गया हो, जैसे-
चले जाओ यहाँ से (आदेश)
कल वहाँ चले जाना (निदेश)
8. उस वाक्य को ‘प्रश्नसूचक’ कहते हैं जिसमें किसी से पूछा जाए और फलत: जिसके उत्तर की अपेक्षा हो, जैसे-
तुम क्या कर रहे हो ?
वहाँ तुम कब जाओगे ?
तुमने खा लिया ?
9. ‘प्रश्नसूचक’ वाक्य की पहचान वाक्य में प्रयुक्त किसी प्रश्नसूचक सर्वनाम, संज्ञा-विशेषण या क्रिया-विशेषण से, क्रियापद पर दिए जानेवाले जोर से तथा लिखित वाक्य में उसके अंत में रखे जानेवाले प्रश्नचिह्न से होती है, जैसे-
तुम क्या करोगे ? (प्रश्नसूचक सर्वनाम)
तुम कितने पैसे लोगे ? (प्रश्नसूचक संज्ञा-विशेषण)
तुम कब जाओगे ? (प्रश्नसूचक क्रिया-विशेषण)
तुमने खा लिया ? (क्रियापद पर ज़ोर)
10. ऐसे वाक्य को ‘विस्मयादिसूचक’ कहते हैं जिसमें विस्मय, आवेश, आह्लाद, दुख आदि की अभिव्यक्ति सहसा या उत्कट रूप से हुई हो, जैसे-
अरे, उसे गोली लगी ! (विस्मय)
फेंकों उसे कमरे से बाहर ! (आदेश)
गला घोंट दूँगा उसका ! (आवेश)
कैसा सुंदर दृश्य है ! (आह्लाद)
वह भी चल बसा ! (दुख)
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1. ‘विधान’ का अर्थ है-शासन। इस शब्द का प्रयोग अनेक वैयाकरणों ने किया है। इसीलिए इसे यहाँ भी लिया गया है। वस्तुत: इस शब्द से ठीक ठीक आशय व्यक्त नहीं होता। परंतु जब तक कोई और उपयुक्त शब्द नहीं सुझाया जाता तब तक हम इसी का प्रयोग करने को विवश हैं।
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11. ‘विस्मयादिसूचक’ वाक्य की पहचान वाक्य में प्रयुक्त विस्मयादिसूचक शब्द या चिह्न तथा विशेष स्वर-प्रवाह से होती है।
12. ऐसे वाक्य को ‘इच्छासूचक’ कहते हैं जिससे इच्छा या अभिलाषा व्यक्त होती हो, जैसे-
ईश्वर तुम्हारी उमर लंबी करे।
तुम पर कभी आँच न आए।
भगवान उसका भला करे।
(टिप्पणी-‘राम पुस्तक खरीदना चाहता है’। यह वाक्य ‘विधानसूचक’ है। इसमें तथ्य का प्रस्तुतीकरण किया गया है। दूसरे इस वाक्य में ‘शब्द’ विशेष द्वारा इच्छा व्यक्त की गई है। वाक्य-रूप इच्छा सूचक नहीं।)
13. ऐसे वाक्य को ‘संदेहसूचक’ कहते हैं जिससे किसी बात का अनिश्चय प्रकट होता हो, जैसे-
वह आया होगा।
इन दिनों वहाँ पानी बरसा होगा।
14. ऐसे वाक्य को ‘संकेतसूचक’ या ‘हेतुहेतुमत्’ कहते हैं जिससे इस बात का संकेत होता है कि किसी काम का होना या न होना किसी अन्य कार्य या बात पर अवलंबित है, जैसे-
अगर पानी बरसा तो मैं आऊँगा।
वह नहीं आया तभी तो मुझे जाना पड़ा।
15. जब ‘आज्ञासूचक’ वाक्य निषेधकारक होता है तब उसे निषेधात्मक आज्ञासूचक वाक्य कहते हैं, जैसे-
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1. विस्मयादि वाक्य के अंत में तो विस्मयादि चिह्न सामान्यतया रखा ही जाता है परंतु कुछ लोग वाक्य के आरंभ में विस्मयादि शब्द प्रयुक्त होने पर उसके बाद भी उसे रखते हैं जैसे-
अरे ! उसे गोली लगी !
सामान्यतया उक्त स्थिति में विस्मयादिसूचक शब्द के बाद अल्पविराम ही रखा जाता है परंतु जब वक्ता या लेखक विस्मयादि शब्द ही प्रयुक्त करके रुक जाए तब उसके बाद विस्मयादिसूचक चिह्न का प्रयोग अवश्य होता है, जैसे- अरे !
दूसरे यह भी ध्यान रखना चाहिए कि विस्मयादिसूचक वाक्य में प्रश्न की भी विवक्षा हो सकती है, जैसे-
-उसे गोली लगी !
-हाँ।
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तुम मत जाओ। (निषेधात्मक आदेशसूचक)
आप न जाना। (निषेधात्मक निदेशसूचक)
16. ‘आज्ञासूचक’ के अतिरिक्त अन्य सभी प्रकार के वाक्य जब नकारबोधक अर्थ के सूचक होते हैं तब उन्हें नकारात्मक वाक्य कहते हैं, जैसे-
पानी आज नहीं बरसा। (नकारात्मक विधानसूचक)
वह डूब नहीं मरा ! (नकारात्मक विस्मयादिसूचक)
कहीं दिन डूब न जाए। (नकारात्मक इच्छासूचक)
क्या वह वहाँ नहीं गया था ? (नकारात्मक प्रश्नसूचक)
वह नहीं आया होगा। (नकारात्मक संदेहसूचक)
पानी न बरसा तो फसल भी नहीं होगी (नकारात्मक संकेतसूचक)
17. जिस वाक्य से वक्ता या लेखक की बात पूरी-पूरी व्यक्त न हो उसे अधूरा वाक्य कहते हैं, जैसे-
(1) आपके सब काम हमसे अच्छे होते हैं (आपके सब काम वस्तुत: हमसे अच्छे नहीं बल्कि हमारे कामों से अच्छे होते हैं।)
(2) शराब पीना विष से भयंकर है (या तो होना चाहिए शराब पीना विषपान से भयंकर है, अथवा होना चाहिए शराब विष से भयंकर है।)
18. यदि संदर्भ से अधूरे वाक्य का भी अर्थ स्पष्ट हो तो उसे (लघु) वाक्य ही कहते हैं, जैसे-
-क्या वहाँ जाओगे ?1
-हाँ, जाऊँगा।2
-जाऊँगा।
19. रचना संबंधी दोष अथवा अर्थ-संबंधी संशय या अस्पष्टता होने पर वाक्य असाधु माना जाता है, जैसे-
(क) रचना संबंधी दोष
उसकी कुछ समझ में न आया।1
(ख) अर्थ संबंधी संशय
आपके पास पढ़ने का आदेश देने के लिए अपना रेडियो हो सकता है।2
(ग) अर्थ-संबंधी अस्पष्टता
वह पति के प्रति पीड़ाग्रस्त हो उठी।3
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1. प्रस्तुत वाक्य में ‘तुम’ कर्ता लुप्त है अत: वाक्य अधूरा है। परंतु वक्ता जिससे कह रहा है वह (मध्यम पुरुष) तो उसके सम्मुख ही है, अत: संदर्भ से ज्ञान हो जाता है कि ‘तुम’ वाक्य में छिपा हुआ है।
2. ‘हाँ, जाऊँगा’ भी (लघु) वाक्य है, क्योंकि संदर्भ से स्पष्ट है कि इसका आशय है-हाँ, मैं जाऊँगा।’ हिंदी की प्रकृति तो लाघव सिद्धांत को इस सीमा तक स्वीकार करती है कि उक्त प्रसंग में केवल ‘हाँ’ या केवल ‘जाऊँगा’ कहने से भी आशय व्यक्त हो जाएगा। अत: ‘हाँ’ और ‘जाऊँगा’ भी यहाँ (लघु) वाक्य ही हैं।
20. जो वाक्य व्याकरण के नियमों अथवा भाषा की सहज प्रकृति के विरुद्ध हो, उसे अशुद्ध वाक्य कहते हैं, जैसे-
लड़की आता है।4
मैं मेरे घर जाऊँगा।5
21. वाक्य की रचना जिन अर्थवान् ध्वनि-समूहों से होती है उन्हें ‘शब्द’ कहते हैं, जैसे-
राम राजा है।
मोहन घर गया।
कल पानी बरसेगा।
राम, राजा, है, मोहन, घर, गया, कल, पानी, बरसेगा-सभी शब्द हैं।
22. सामान्यतया शब्द नाम, गुण या क्रिया के सूचक होते हैं परंतु जो शब्द नाम, गुण या क्रिया के सूचक तो नहीं होते परंतु वाक्य रचना में अवश्य सहयोगी होते हैं उन्हें सहायक शब्द कहते हैं, जैसे-
आज ही राम ने मोहन और श्याम को स्टेशन से घर तक पहुँचाया।
शब्द- आज, राम, मोहन, श्याम, स्टेशन, घर, पहुँचाना।
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1. प्रस्तुत वाक्य में ‘कुछ’ शब्द को ठीक स्थान पर न रखने से दोष आ गया है। वाक्य का साधु रूप तो है-
उसकी समझ में कुछ न आया।
2. प्रस्तुत वाक्य से यह संशय होता है कि रेडियो आपको आदेश देने के लिए है अथवा इसलिए है कि आप उसके द्वारा दूसरों को आदेश दें।
3. इस वाक्य से तो पता ही नहीं चलता कि लेखक आखिर कहना क्या चाहता है।
4. वाक्य का शुद्ध रूप है-
लड़की आती है।
5. यह वाक्य बंगला या मराठी भाषा की प्रकृति के तो अनुकूल हैं परंतु हिंदी की प्रकृति के अनुकूल नहीं। हिंदी की प्रकृति के अनुकूल इसका रूप होगा-
मैं अपने घर जाऊँगा।
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