नाटक-एकाँकी >> फूलों की बोली फूलों की बोलीवृंदावनलाल वर्मा
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प्रस्तुत है एक सामाजिक नाटक....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
सिद्धः ताँबे के चूर्ण को मल्लिका की आँच यानी अपनी सखी की माया की सहायता
से किसी बड़ी आँच में पिघलाकर पलाश के पत्तों के रस से मिला दिया जाये और
फिर मुचकुंद का संयोग किया जाये तो चोखा सोना बन जाएगा।
कामिनीः मुचकुंद का संयोग क्या और कैसा ?
सिद्ध : बस, स्वर्ण-रसायन में इतनी ही पहेली और है, थोड़ी देर में बतलाता हूँ, परन्तु सोचता हूँ, पहले हीरे-मोती बना दूँ। अपना सारा स्वर्ण लाओ।
दोनों : बहुत अच्छा
( दोनों जाती हैं और थोड़ी देर में अपना सब गहना लेकर आ जाती हैं।)
सिद्ध : (गहनों को देखकर) तुम्हारे गहनों में कोई हीरे तो नहीं जड़े हैं ?
कामिनी : नहीं, सिद्धराज।
सिद्ध : कोई मोती ?
कामिनी : बहुत थोड़े से।
माया : मेरे पास तो बिल्कुल नहीं हैं।
सिद्ध : कुमुदिनी, तुम अपने मोती गिन लो।
स्वर्ण-रसायन के मोह और लोभ में हमारे देश के कुछ लोग अंधे हो जाते हैं और सोना बनवाने के फेर में किस तरह अपने को लुटवा डालते हैं, यह बहुधा सुनाई पड़ता रहता है। वर्माजी ने उज्जैन के नगर सेठ व्याडि तथा कुछ अन्य के स्वर्ण-मोह और एक ठग सिद्ध एवं उसके शिष्य की कथा को आधार बनाकर यह नाटक लिखा है। निश्चय ही यह कृति पाठकों का भरपूर मनोरंजन करेगी।
कामिनीः मुचकुंद का संयोग क्या और कैसा ?
सिद्ध : बस, स्वर्ण-रसायन में इतनी ही पहेली और है, थोड़ी देर में बतलाता हूँ, परन्तु सोचता हूँ, पहले हीरे-मोती बना दूँ। अपना सारा स्वर्ण लाओ।
दोनों : बहुत अच्छा
( दोनों जाती हैं और थोड़ी देर में अपना सब गहना लेकर आ जाती हैं।)
सिद्ध : (गहनों को देखकर) तुम्हारे गहनों में कोई हीरे तो नहीं जड़े हैं ?
कामिनी : नहीं, सिद्धराज।
सिद्ध : कोई मोती ?
कामिनी : बहुत थोड़े से।
माया : मेरे पास तो बिल्कुल नहीं हैं।
सिद्ध : कुमुदिनी, तुम अपने मोती गिन लो।
स्वर्ण-रसायन के मोह और लोभ में हमारे देश के कुछ लोग अंधे हो जाते हैं और सोना बनवाने के फेर में किस तरह अपने को लुटवा डालते हैं, यह बहुधा सुनाई पड़ता रहता है। वर्माजी ने उज्जैन के नगर सेठ व्याडि तथा कुछ अन्य के स्वर्ण-मोह और एक ठग सिद्ध एवं उसके शिष्य की कथा को आधार बनाकर यह नाटक लिखा है। निश्चय ही यह कृति पाठकों का भरपूर मनोरंजन करेगी।
नाटक के पात्र
पुरुष पात्र
माधव
पुलिन
सिद्ध
बलभद्र
न्यायधीश, अधिकारी, सिपाही,
उज्जैन निवीसी इत्यादि
पुलिन
सिद्ध
बलभद्र
न्यायधीश, अधिकारी, सिपाही,
उज्जैन निवीसी इत्यादि
स्त्री पात्र
कामिनी
माया
माया
पहला अंक
पहला दृश्य
[स्थान : उज्जैन नगरी में कामिनी का सजा हुआ कमरा। कमरे में कई द्वार हैं।
भीतर जाने के लिए एक खुला हुआ है। द्वारों पर विविध प्रकार के रंग-बिरंगे
पुष्पों के बंदनवार लटक रहे हैं। एक कोने में चौके पर चाँदी का पानदान और
भरी चाँदी की सुराही रखी है। पीने के लिए उसी चौकी पर चाँदी के कटोरे रखे
हैं। दो कोनों पर ताँबे के पात्रों में सुगंधित धूप जल रही है। एक ओर एक
चौड़े परंतु छोटे पायेवाले मंच पर कीमती गलीचा बिछा हुआ है। तकियों के
सहारे माधव और पुलिन बैठे हुए हैं। माधव की आयु पच्चीस वर्ष के लगभग होगी।
दृढ़ शरीर का सुंदर युवक है। पुलिन की आयु उससे दो-एक साल कम होगी। वह भी
कम सुंदर नहीं है। माधव की आँखों में सरलता और दृढ़ता है। पुलिन की आँखों
में कभी-कभी कुटिलता झाईं मार जाती है। दोनों व्यवसायी हैं और धनाढ्य।
माधव के पास अधिक धन।
दूसरी ओर एक और बड़ा मंच है। उसके भी पाये ऊँचे नहीं हैं। उसपर भी बहुत बढ़िया गलीचा है; परंतु तकिया नहीं है। इसमंच पर कामिनी और माया जरा अंतर से बैठी हुई हैं। कामिनी के हाथ में तंबूरा और माया के हाथ में मजीरे। दोनों बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण पहिने हैं। दोनों यौवनावस्था में हैं और रूपवती हैं। माया के नेत्रों में मादकता है और आकर्षण। कामिनी की आँखों में सहज ओज, दृढ़ता और आवाहन करनेवाले के लिए छिपा हुआ तिरस्कार है। कामिनी गा रही है, माया मजीरे बजा रही है। वह बीच-बीच में गाती भी है। यह भवन माया का नहीं है। दोनों पड़ोस में रहती हैं। एक-दूसरे के यहाँ आती जाती हैं। आज वसंतोत्सव मनाने के लिए दोनों इकट्ठी हुई हैं। माधव और पुलिन उस समय के चलन के अनुसार कामिनी और माया के नृत्य-गान के लिए आए हैं। वे दोनों गायिकाएँ हैं और कुमारी हैं। केवल नाचना-गाना उनका व्यवसाय है; परंतु इस व्यवसाय को वे अपने घर पर ही करती हैं। समय : संध्या के उपरांत। कमरे में शमादानों में बत्तियों का अच्छा प्रकाश हो रहा है। उस प्रकाश में उन चारों के केशों का तेल और कामिनी तथा माया के वस्त्रालंकार जगमगा रहे हैं। गाने के बीच में माधव और पुलिन एक-एक बार पानी पीने के लिए उठते हैं और कनखियों से उन लोगों को देखते हैं।]
दूसरी ओर एक और बड़ा मंच है। उसके भी पाये ऊँचे नहीं हैं। उसपर भी बहुत बढ़िया गलीचा है; परंतु तकिया नहीं है। इसमंच पर कामिनी और माया जरा अंतर से बैठी हुई हैं। कामिनी के हाथ में तंबूरा और माया के हाथ में मजीरे। दोनों बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण पहिने हैं। दोनों यौवनावस्था में हैं और रूपवती हैं। माया के नेत्रों में मादकता है और आकर्षण। कामिनी की आँखों में सहज ओज, दृढ़ता और आवाहन करनेवाले के लिए छिपा हुआ तिरस्कार है। कामिनी गा रही है, माया मजीरे बजा रही है। वह बीच-बीच में गाती भी है। यह भवन माया का नहीं है। दोनों पड़ोस में रहती हैं। एक-दूसरे के यहाँ आती जाती हैं। आज वसंतोत्सव मनाने के लिए दोनों इकट्ठी हुई हैं। माधव और पुलिन उस समय के चलन के अनुसार कामिनी और माया के नृत्य-गान के लिए आए हैं। वे दोनों गायिकाएँ हैं और कुमारी हैं। केवल नाचना-गाना उनका व्यवसाय है; परंतु इस व्यवसाय को वे अपने घर पर ही करती हैं। समय : संध्या के उपरांत। कमरे में शमादानों में बत्तियों का अच्छा प्रकाश हो रहा है। उस प्रकाश में उन चारों के केशों का तेल और कामिनी तथा माया के वस्त्रालंकार जगमगा रहे हैं। गाने के बीच में माधव और पुलिन एक-एक बार पानी पीने के लिए उठते हैं और कनखियों से उन लोगों को देखते हैं।]
गीत
फूलों से लद गई चाँदनी;
नीले पट पर दमक सँजोई,
नव द्रुमदल पर कसक भगोई;
झूलों पर थक गई कामिनी
फूलों से लद गई चाँदनी।
नीले पट पर दमक सँजोई,
नव द्रुमदल पर कसक भगोई;
झूलों पर थक गई कामिनी
फूलों से लद गई चाँदनी।
माधव : (फूलों से सजे हुए द्वारों को देखकर) आपने जिस तरह द्वारों को
फूलों से सजाया है, उसी तरह गाने के एक-एक अंग को कैसी सुहावनी तानों से
चमका दिया है !
माया : घंटों क्या, पहरों ये अभ्यास किया करती हैं और फिर भी कहती हैं, अभी बहुत कसर है।
कामिनी : द्वारों के बंदनवारों पर फूल सजाने में माया ने इतना श्रम किया है कि मैं तो दंग रह गई।
पुलिन : देखिए न, असली सरसों, पाटल, गेंदा, मचकुंद, तमाल मल्लिका, कुमुद, कामिनी की अलग-अलग और मिश्रित मालाएँ बना-बनाकर किस उत्साह के साथ वसंत का स्वागत किया जा रहा है।
माधव : किस रंग-बिरंगेपन के साथ ! और वैसी ही रंग-बिरंगीपन तानों में भी ! बंदनवारों के फूल चुपचाप कुछ कह रहे हैं-इनकी तानों की कलियाँ भी चिटक-चिटककर कुछ कह रही हैं। उन फूलों की बोली चाहे समझ में आ जाए, पर इनकी कलियों के नाद में मन उलझ-उलझ जाता है। मन उस नाद को कान में बाँधने का बार-बार प्रयत्न करता है; परंतु वह हृदय में सरककर फिर न जाने कहाँ विलीन हो जाता है और न जाने छिपे-छिपे कहाँ से आत्मा को झकझोरता है।
कामिनी : मेरे श्रम का यही बड़ा पुरस्कार है कि मेरी तान आपके मन पर रीझी।
माधव : तान मेरे मन पर रीझी ! या मेरा मन आपकी तान पर सुध-बुध हार गया ! सोने से इस तानों का मोल आँका नहीं जा सकता। तो भी....
कामिनी : (मुसकराकर) सोना तो मैं आपसे बहुत पा चुकी हूँ।
माधव : जिस कंठ से मधुरता बरसानेवाले ऐसे स्वर निकलते हैं, उसकी सजावट के लिए हीरे होने चाहिए।
कामिनी : परंतु हीरे तो बहुत दुर्लभ हैं। क्या करना है ! आपको मेरा गाना रुचता है, मेरे लिए यही बहुत है।
पुलिन : हीरे दुर्लभ हैं ! हाँ, असंभव नहीं, दुर्लभ अवश्य हैं।
माधव : न असंभव हैं न दुर्लभ। देखूँगा। माया, तुम भी बहुत अच्छा गाती हो। वसंतोत्सव के उपलक्ष्य में तुमपर भी बहुत कुछ न्योछावर होना चाहिए।
पुलिन : माया को क्या एक पल भी भुलाया जा सकता है ?
माया : मुझको भी पुरस्कार मिलते ही रहते हैं; परंतु मेरी साध है कि कामिनी के बराबर गा सकूँ।
कामिनी : और मैं तुम्हारी तरह का नृत्य कर सकूँ।
माधव : (मुसकराकर) हाँ, तो अभी आप लोगों का नृत्य भी होगा। घुँधरू कहाँ हैं ?
कामिनी : आ जाएगी।
पुलिन : अपने आप ?
माधव : दोनों भीतर से पहनकर नाचती हुई आओ, तब बात है।
कामिनी : फिर ?
माधव : फिर ? फिर देखा जाएगा।
[दोनों जाती हैं।]
पुलिन : दोनों सुंदर हैं, दोनों कला-कुशल हैं।
माधव : हाँ, कामिनी सूर्य की तरह ओज भरी और माया चंद्रमा की तरह शीतल है-केवल इतना अंतर है।
पुलिन : मुझको तो चंद्रमा की मधुरता प्यारी लगती है।
माधव : अपने-अपने अवसर पर दोनों सुहावने लगते हैं। मेरे लिए दोनों एक-से। मुझको तो फूल की गंध और रूप प्यारा लगता है। बस।
पुलिन : उसी गान के साथ।
[वे दोनों नृत्य के साथ गाती हैं।]
माधव : (नृत्य और गान की समाप्ति पर) किसी दिन हीरों का कंठा अवश्य भेंट करूँगा।
पुलिन : और मैं माया को मोतियों की करधनी।
कामिनी : मोतियों की करधनी इनको लगेगी भी भली।
माधव : कामिनी को मोतियों की करधनी भी दी जाएगी।
पुलिन : (अनमना होकर) आप स्वर्ण बनाना सीख गए हैं, इसलिए आपके लिए सब सुलभ है।
माधव : सीख तो नहीं गया हूँ, सीख रहा हूँ अवश्य।
पुलिन : वैसे भी आपका व्यापार पूरी चमक पर है। लोगों की कल्पना है कि आप स्वर्ण-रसायन जानते हैं।
माधव : जितना स्वर्ण चाहिए है उतना व्यापार से हाथ नहीं पड़ता। इसलिए रसायन के प्रयोग में जुटा रहता हूँ।
पुलिन : मेरा धंधा उतना बड़ा नहीं है। तो भी काफी खर्च करता रहता हूँ। मुझको भी स्वर्ण-रसायन आ जाय।
माया : माधव स्वर्ण बनाने की विधि कहीं लिखते रहते भी हैं। किसी दिन हम लोगों को भी बतला देंगे ?
कामिनी : विद्या अत्यंत गोपनीय है। बतला देने से निकम्मी हो जाती है।
पुलिन : परंतु बतला देने से इनके नृत्य-गान की कला तो और भी अधिक निखरती-उभरती रहेगी।
माधव : (उपेक्षा के साथ) कहाँ रसायन का शास्त्र और कहाँ संगीत-कला !
कामिनी : (मुसकराकर) तो आप बिचारी संगीत-कला पर इतना स्वर्ण क्यों बरसाया करते हैं ? और लोग भी क्यों उसपर इतना मोह बहाते रहते हैं ?
माधव : और लोगों की वे लोग जानें। मैं तो कला की मूर्ति पर सोने को न्योछावर करता हूँ।
कामिनी : परंतु पुरस्कार देते समय आप लेते तो कला का नाम हैं। उसकी बारीकियों को बतलाते-बतलाते उकताते भी नहीं।
माधव : क्योंकि उस कला का संबंध आपसे है। मैं माया के लिए भी यही कहूँगा।
पुलिन : माया का नृत्य उज्जैन भर में कोई नहीं नाच सकता।
कामिनी : एक बात तो सच मिली।
माधव : मैंने शब्द रूप रस गंध और स्पर्श-इन पाँचों के मेल की बात कही थी।
कामिनी : जब तक डाल पर है, तभी तक फूल की शोभा है।
माधव : (मुसकराकर) फिर कभी बतलाऊँगा।
पुलिन : मैं चलूँ। मैंने रस, गंध और स्पर्श के घोल की बात नहीं की।
[जाने के लिए उठता है।]
कामिनी : मैं आपको इस भ्रम में लिपटा हुआ नहीं जाने देना चाहती हूँ। मेरी कला का सम्मान उज्जैन और मालवा में तभी तक है जब तक मेरे शरीर के स्वास्थ्य का उसको आधार प्राप्त है। यह आधार मेरी कला को मेरे अंत समय तक मिलता रहेगा।
माधव : यही मैं भी चाहता हूँ। आप गलत समझीं। मेरी इच्छा है, आपके पास इतना धन हो जाय कि आप एकाग्र होकर कला की सेवा करती रहें-और हर किसी को सुनाने या दिखलाने की आपकी अटक न रहे।
माया : जब आपका रसायनशास्त्र पक्का हो जाय तब हम लोगों को बतला दीजिएगा। फिर हम अपनी कला को और भी संपूर्ण तथा सुंदर बनावेंगी।
माधव : हीरों का कंठा और मोतियों की करधनी सुलभ है, परंतु शास्त्र सहज नहीं।
[नेपथ्य में किवाड़ खटखटाने का शब्द होता है।]
पुलिन : कोई बुला रहा है।
माया : हमारे कला-भवन का कोई पुजारी होगा। देखूँ, कौन है ?
[जाती है और सिद्ध को साथ लेकर आती है। सिद्ध लगभग चालीस वर्ष का हट्टा-कट्टा पुरुष है। गेरुआ वस्त्र पहिने है। जटा रखाए हुए हैं, परंतु दाढ़ी और मूँछ नहीं हैं। कुछ वेश शैवों जैसा, कुछ बौद्ध भिक्षुओं-सा।]
सिद्ध :(माधव से) अरे व्याडि, यहाँ पर
माधव : (बिना किसी उत्तेजना के) यहाँ पर मैं इस नाम से नहीं आता हूँ। अनंत वसंत का सखा होने के कारण कला-भवन में मेरा नाम माधव हो जाता है।
[सिद्ध को आदरपूर्वक बिठलाया जाता है।]
सिद्ध : माधव ! माधव अच्छा नाम नहीं है; परंतु व्यापार और बही-खातों में ‘व्याडि’ नाम ही चलता होगा ?
माधव : यहाँ पर आप बही-खातोंवाले व्याडि को नहीं देख रहे हैं; किंतु कला पर रीझनेवाले माधव को। परंतु सिंद्धराज और कला। यह संयोग समझ में नहीं आया। अथवा सिद्धराज यहाँ किसी मंत्र की दीक्षा देने आए हैं ?
कामिनी : (मुसकराकर) स्वर और ताल के अधिकार में ही तो मंत्र अपनापन प्रकट करते हैं।
सिद्ध : मेरी रसायन को कामिनी की कलामाया के नृत्य और कामिनी के गान से स्फूर्ति मिलती है।
पुलिन : (हँसकर) जैसी हम लोगों को अपने व्यापार के लिए फुरेरु।
सिद्ध : (भौंह को सिकोड़कर और फिर ढीली करके) तो अब कुछ सुनने को मिलना चाहिए। (आश्चर्य के साथ) अरे ! ये दोनों घुँघरू भी बाँधे हैं।
कामिनी : हाँ-हाँ, सुनिए सिद्धराज !
[कामिनी और माया का नृत्य-गान।]
माया : घंटों क्या, पहरों ये अभ्यास किया करती हैं और फिर भी कहती हैं, अभी बहुत कसर है।
कामिनी : द्वारों के बंदनवारों पर फूल सजाने में माया ने इतना श्रम किया है कि मैं तो दंग रह गई।
पुलिन : देखिए न, असली सरसों, पाटल, गेंदा, मचकुंद, तमाल मल्लिका, कुमुद, कामिनी की अलग-अलग और मिश्रित मालाएँ बना-बनाकर किस उत्साह के साथ वसंत का स्वागत किया जा रहा है।
माधव : किस रंग-बिरंगेपन के साथ ! और वैसी ही रंग-बिरंगीपन तानों में भी ! बंदनवारों के फूल चुपचाप कुछ कह रहे हैं-इनकी तानों की कलियाँ भी चिटक-चिटककर कुछ कह रही हैं। उन फूलों की बोली चाहे समझ में आ जाए, पर इनकी कलियों के नाद में मन उलझ-उलझ जाता है। मन उस नाद को कान में बाँधने का बार-बार प्रयत्न करता है; परंतु वह हृदय में सरककर फिर न जाने कहाँ विलीन हो जाता है और न जाने छिपे-छिपे कहाँ से आत्मा को झकझोरता है।
कामिनी : मेरे श्रम का यही बड़ा पुरस्कार है कि मेरी तान आपके मन पर रीझी।
माधव : तान मेरे मन पर रीझी ! या मेरा मन आपकी तान पर सुध-बुध हार गया ! सोने से इस तानों का मोल आँका नहीं जा सकता। तो भी....
कामिनी : (मुसकराकर) सोना तो मैं आपसे बहुत पा चुकी हूँ।
माधव : जिस कंठ से मधुरता बरसानेवाले ऐसे स्वर निकलते हैं, उसकी सजावट के लिए हीरे होने चाहिए।
कामिनी : परंतु हीरे तो बहुत दुर्लभ हैं। क्या करना है ! आपको मेरा गाना रुचता है, मेरे लिए यही बहुत है।
पुलिन : हीरे दुर्लभ हैं ! हाँ, असंभव नहीं, दुर्लभ अवश्य हैं।
माधव : न असंभव हैं न दुर्लभ। देखूँगा। माया, तुम भी बहुत अच्छा गाती हो। वसंतोत्सव के उपलक्ष्य में तुमपर भी बहुत कुछ न्योछावर होना चाहिए।
पुलिन : माया को क्या एक पल भी भुलाया जा सकता है ?
माया : मुझको भी पुरस्कार मिलते ही रहते हैं; परंतु मेरी साध है कि कामिनी के बराबर गा सकूँ।
कामिनी : और मैं तुम्हारी तरह का नृत्य कर सकूँ।
माधव : (मुसकराकर) हाँ, तो अभी आप लोगों का नृत्य भी होगा। घुँधरू कहाँ हैं ?
कामिनी : आ जाएगी।
पुलिन : अपने आप ?
माधव : दोनों भीतर से पहनकर नाचती हुई आओ, तब बात है।
कामिनी : फिर ?
माधव : फिर ? फिर देखा जाएगा।
[दोनों जाती हैं।]
पुलिन : दोनों सुंदर हैं, दोनों कला-कुशल हैं।
माधव : हाँ, कामिनी सूर्य की तरह ओज भरी और माया चंद्रमा की तरह शीतल है-केवल इतना अंतर है।
पुलिन : मुझको तो चंद्रमा की मधुरता प्यारी लगती है।
माधव : अपने-अपने अवसर पर दोनों सुहावने लगते हैं। मेरे लिए दोनों एक-से। मुझको तो फूल की गंध और रूप प्यारा लगता है। बस।
पुलिन : उसी गान के साथ।
[वे दोनों नृत्य के साथ गाती हैं।]
माधव : (नृत्य और गान की समाप्ति पर) किसी दिन हीरों का कंठा अवश्य भेंट करूँगा।
पुलिन : और मैं माया को मोतियों की करधनी।
कामिनी : मोतियों की करधनी इनको लगेगी भी भली।
माधव : कामिनी को मोतियों की करधनी भी दी जाएगी।
पुलिन : (अनमना होकर) आप स्वर्ण बनाना सीख गए हैं, इसलिए आपके लिए सब सुलभ है।
माधव : सीख तो नहीं गया हूँ, सीख रहा हूँ अवश्य।
पुलिन : वैसे भी आपका व्यापार पूरी चमक पर है। लोगों की कल्पना है कि आप स्वर्ण-रसायन जानते हैं।
माधव : जितना स्वर्ण चाहिए है उतना व्यापार से हाथ नहीं पड़ता। इसलिए रसायन के प्रयोग में जुटा रहता हूँ।
पुलिन : मेरा धंधा उतना बड़ा नहीं है। तो भी काफी खर्च करता रहता हूँ। मुझको भी स्वर्ण-रसायन आ जाय।
माया : माधव स्वर्ण बनाने की विधि कहीं लिखते रहते भी हैं। किसी दिन हम लोगों को भी बतला देंगे ?
कामिनी : विद्या अत्यंत गोपनीय है। बतला देने से निकम्मी हो जाती है।
पुलिन : परंतु बतला देने से इनके नृत्य-गान की कला तो और भी अधिक निखरती-उभरती रहेगी।
माधव : (उपेक्षा के साथ) कहाँ रसायन का शास्त्र और कहाँ संगीत-कला !
कामिनी : (मुसकराकर) तो आप बिचारी संगीत-कला पर इतना स्वर्ण क्यों बरसाया करते हैं ? और लोग भी क्यों उसपर इतना मोह बहाते रहते हैं ?
माधव : और लोगों की वे लोग जानें। मैं तो कला की मूर्ति पर सोने को न्योछावर करता हूँ।
कामिनी : परंतु पुरस्कार देते समय आप लेते तो कला का नाम हैं। उसकी बारीकियों को बतलाते-बतलाते उकताते भी नहीं।
माधव : क्योंकि उस कला का संबंध आपसे है। मैं माया के लिए भी यही कहूँगा।
पुलिन : माया का नृत्य उज्जैन भर में कोई नहीं नाच सकता।
कामिनी : एक बात तो सच मिली।
माधव : मैंने शब्द रूप रस गंध और स्पर्श-इन पाँचों के मेल की बात कही थी।
कामिनी : जब तक डाल पर है, तभी तक फूल की शोभा है।
माधव : (मुसकराकर) फिर कभी बतलाऊँगा।
पुलिन : मैं चलूँ। मैंने रस, गंध और स्पर्श के घोल की बात नहीं की।
[जाने के लिए उठता है।]
कामिनी : मैं आपको इस भ्रम में लिपटा हुआ नहीं जाने देना चाहती हूँ। मेरी कला का सम्मान उज्जैन और मालवा में तभी तक है जब तक मेरे शरीर के स्वास्थ्य का उसको आधार प्राप्त है। यह आधार मेरी कला को मेरे अंत समय तक मिलता रहेगा।
माधव : यही मैं भी चाहता हूँ। आप गलत समझीं। मेरी इच्छा है, आपके पास इतना धन हो जाय कि आप एकाग्र होकर कला की सेवा करती रहें-और हर किसी को सुनाने या दिखलाने की आपकी अटक न रहे।
माया : जब आपका रसायनशास्त्र पक्का हो जाय तब हम लोगों को बतला दीजिएगा। फिर हम अपनी कला को और भी संपूर्ण तथा सुंदर बनावेंगी।
माधव : हीरों का कंठा और मोतियों की करधनी सुलभ है, परंतु शास्त्र सहज नहीं।
[नेपथ्य में किवाड़ खटखटाने का शब्द होता है।]
पुलिन : कोई बुला रहा है।
माया : हमारे कला-भवन का कोई पुजारी होगा। देखूँ, कौन है ?
[जाती है और सिद्ध को साथ लेकर आती है। सिद्ध लगभग चालीस वर्ष का हट्टा-कट्टा पुरुष है। गेरुआ वस्त्र पहिने है। जटा रखाए हुए हैं, परंतु दाढ़ी और मूँछ नहीं हैं। कुछ वेश शैवों जैसा, कुछ बौद्ध भिक्षुओं-सा।]
सिद्ध :(माधव से) अरे व्याडि, यहाँ पर
माधव : (बिना किसी उत्तेजना के) यहाँ पर मैं इस नाम से नहीं आता हूँ। अनंत वसंत का सखा होने के कारण कला-भवन में मेरा नाम माधव हो जाता है।
[सिद्ध को आदरपूर्वक बिठलाया जाता है।]
सिद्ध : माधव ! माधव अच्छा नाम नहीं है; परंतु व्यापार और बही-खातों में ‘व्याडि’ नाम ही चलता होगा ?
माधव : यहाँ पर आप बही-खातोंवाले व्याडि को नहीं देख रहे हैं; किंतु कला पर रीझनेवाले माधव को। परंतु सिंद्धराज और कला। यह संयोग समझ में नहीं आया। अथवा सिद्धराज यहाँ किसी मंत्र की दीक्षा देने आए हैं ?
कामिनी : (मुसकराकर) स्वर और ताल के अधिकार में ही तो मंत्र अपनापन प्रकट करते हैं।
सिद्ध : मेरी रसायन को कामिनी की कलामाया के नृत्य और कामिनी के गान से स्फूर्ति मिलती है।
पुलिन : (हँसकर) जैसी हम लोगों को अपने व्यापार के लिए फुरेरु।
सिद्ध : (भौंह को सिकोड़कर और फिर ढीली करके) तो अब कुछ सुनने को मिलना चाहिए। (आश्चर्य के साथ) अरे ! ये दोनों घुँघरू भी बाँधे हैं।
कामिनी : हाँ-हाँ, सुनिए सिद्धराज !
[कामिनी और माया का नृत्य-गान।]
गान
अब आओ, अब आओ,
वन उपवन सब हरे हुए हैं,
नदी सरोवर भरे हुए हैं
तन मन व्याकुल हुए जा रहे
मंजुल पल सब चले जा रहे,
पलक-पाँवड़े सजा दिए हैं,
नूपुर ने स्वर बजा दिए हैं,
अब आओ, अब आओ।
वन उपवन सब हरे हुए हैं,
नदी सरोवर भरे हुए हैं
तन मन व्याकुल हुए जा रहे
मंजुल पल सब चले जा रहे,
पलक-पाँवड़े सजा दिए हैं,
नूपुर ने स्वर बजा दिए हैं,
अब आओ, अब आओ।
पुलिन : थोड़ी देर पहले जैसा-नाचा-गाया था, इस बार उससे बढ़कर हुआ।
सिद्ध : परंतु हम बाबा बैरागियों के पास आशीर्वाद के सिवाय और देने को कुछ नहीं।
माधव : इसपर भी आपका रहन-सहन और खर्च किसी राजा से कम नहीं है।
सिद्ध : आप लोगों का ही दिया हुआ तो है।
पुलिन : यह बात नहीं है। सब जन जानते हैं कि आप दान नहीं लेते।
कामिनी : (उत्सुकता के साथ) लोग कहते हैं कि आप रसायन जानते हैं।
सिद्ध : (आत्मसंतोष के साथ) लोगों का मैं क्या करूँ ? उनसे क्या कहूँ ?
माधव : सुना तो मैंने भी है।
सिद्ध : मान लीजिए, मैं जानता हूँ।
माधव : तो मैं विनय करता हूँ कि सुपात्र को बतला दीजिए।
माया : यहाँ कुपात्र तो कोई भी न होगा।
कामिनी : और मुझको पुरस्कारस्वरूप यदि आप रसायन का मंत्र दे दें तो...
सिद्ध : तो भी आपकी कला बची रहेगी ?
कामिनी : (दबे हुए अभिमान के साथ) कला ने यदि मेरे साथ जन्म लिया है तो वह मेरे मरने तक साथ देगी।
सिद्ध : (सिर हिलाकर) आप अवश्य पुरस्कार के योग्य हैं। रसायन जानने के लिए बहुत तपस्या करनी पड़ती है। मुझको मालूम है व्याडि-माधव-माधव-कितना उद्योग करते चले आ रहे हैं।
माधव : परंतु मैं सफल अभी तक नहीं हुआ।
सिद्ध : (हँसकर) व्याडि से माधव तो हो गए ?
माधव : यह कामिनी की कला की देन है। मैं अपने को सदा ‘माधव’ नाम से पुकारा जाना पसंद करूँगा; परंतु जो रसायन, जान पड़ता है आपके पास है उसके कारण सिद्ध माधव से भी ऊपर है।
कामिनी : इस शास्त्र को जानने के लिए किस प्रकार की सुपात्रता चाहिए ?
सिद्ध : जैसी आप में है।
कामिनी : (प्रसन्न होकर) आप मुझको बतलावेंगे ?
सिद्ध : अवश्य।
माधव : और मुझको ? यदि आप मुझको बतलावेंगे तो मैं उसका जनहित के लिए पूरा उपयोग करूँगा।
सिद्ध : बतला तो मैं दूँगा, परंतु तपस्या करनी पड़ेगी। रसायन का मंत्र बीजरूप में आप सबको बतलाए देता हूँ। उसका वास्तविक रूप समझने के लिए तप करना पड़ेगा, आकाश-पाताल के सिरे मिलाने होंगे।
माया : (हाथ जोड़कर) तो बतलाइए न सिद्ध महाराज, फिर यदि हमारे भाग और तप ने मेल खा लिया तो हम लोग कला को इतनी ऊँचाई पर पहुँचा देंगे कि संगीत के बड़े-बड़े आचार्यों को दाँतों तले उँगली दबानी पड़ेगी।
सिद्ध : (आँखें मूँदकर) बीजरूप में मैं आप सबको रसायन की बात बतलाए देता हूँ; परंतु उसका रहस्य (आँखें खोलकर) अकेली कामिनी को बतलाऊँगा।
[कामिनी की आँख में तिरस्कार उमड़ता है; परंतु वह उसको रोक लेती है।]
कामिनी : आप कब बतलाएँगे, सिद्धराज ?
सिद्ध : (मुसकराकर) कल दोपहर को एकांत में।
माधव : इस समय बीजरूप में ही रसायन का मंत्र बतला दीजिए।
सिद्ध : प्रण करो कि और किसी पर प्रकट नहीं करेंगे। सब प्रण करो।
सब : नहीं प्रकट करेंगे।
सिद्ध : अच्छा, तो सुनो। सावधान होकर याद रखना। पाटल पुष्प के पत्तों का रस तमाम पुष्पों को खरल करके मिलाओ। मल्लिका की लकड़ी की आग में फूँकने से सब का सब स्वर्ण हो जाएगा।
पुलिन : इसमें बीजमंत्र क्या रहा ? आपने तो सारी की सारी क्रिया बतला दी ?
[कामिनी कुतूहल के साथ सिद्ध की ओर देखती है। माधव मन ही मन चिढ़ता है।]
माधव : इन पुष्पों में भारीपन तो कहीं भी नहीं है। इससे स्वर्ण कैसे बन जाएगा ? कामिनी, आपको क्या विश्वास हो गया है ? अनेक प्रयोग किए हैं। रंग तो स्वर्ण जैसा आ जाता है, परंतु धातु स्वर्ण जैसी नहीं बन पाती।
सिद्ध : (व्यंग्य की आकृति करके) यदि गुरु सारी क्रियाएँ ही बतला दे तो चेला गुरु के बाल नोच उठे। इसीलिए कहा कि तपस्या करनी पड़ेगी।
बिना तपस्या के कुछ नहीं बनेगा, कुछ नहीं मिलेगा।
कामिनी : आपकी बात के भीतर कोई रहस्य छिपा हुआ है।
सिद्ध : (तेज होकर) अवश्य इस रसायन से स्वर्ण बनता है। दूसरी के द्वारा स्वर्ण से मोती और हीरे बना सकते हैं। हरसिंगार के फूलों का चूर्ण अलसी के नीले फूलों के रस में मंदार और विष्णुकांत की लकड़ी की आग से तापकर जब स्वर्ण को समेट लेता है तब वह स्वर्ण हीरा बन जाता है। मोती श्वेत फूलोंवाली कटहरी के रस और करौंदी के चूर्ण के संयोग से बन जाते हैं।
माधव : श्वेत फूलोंवाली कटहरी के रस के संसर्ग से सोना बनने की बात तो मैंने भी सुनी है, परंतु करौंदी और कटहरी के फूलों के मेल से मोतियों का बनना विलक्षण जान पड़ता है।
सिद्ध : (सावधान होकर) विलक्षण तो सारी की सारी रसायन है। आपने कभी रत्ती भर भी सोना बना पाया ?
माधव : नहीं बना पाया और न आपकी बताई हुई उतनी क्रिया से ही कभी बना पाने की आशा है।
पुलिन : सिद्धराज, माधव ने बहुत प्रयोग किए हैं और वह एक पोथी में अपने प्रयोगों को टीपते भी रहते हैं।
सिद्ध : पुस्तक इस विषय पर ऋषि नागार्जुन की ही थी। वह छिन्न होकर नष्ट हो गई है। उसकी कुछ बातें हम सरीखे थोड़े से बाबा बैरागियों के पास रह गई है। बीजरूप में मैंने बतला भी दिया है- आप लोगों को सुपात्र जानकर।
माधव : मुझको तो यह बीजरूप व्याजरूप जान पड़ता है-बिलकुल आड़ा-टेढ़ा, कूटक-सा। इन पुष्पों के नामों के पीछे कुछ और है।
सिद्ध : सो तो है ही। उनके पीछे जो कुछ है, उसके समझने के लिए गुरु की कृपा और अपनी तपस्या की आवश्यकता है। नागार्जुन का एकाध उपचार देखना हो तो मेरे साथ चलो। कहोगे, यह तो इंद्रजाल है; परंतु वास्तव में वह सब विज्ञान है।
सिद्ध : परंतु हम बाबा बैरागियों के पास आशीर्वाद के सिवाय और देने को कुछ नहीं।
माधव : इसपर भी आपका रहन-सहन और खर्च किसी राजा से कम नहीं है।
सिद्ध : आप लोगों का ही दिया हुआ तो है।
पुलिन : यह बात नहीं है। सब जन जानते हैं कि आप दान नहीं लेते।
कामिनी : (उत्सुकता के साथ) लोग कहते हैं कि आप रसायन जानते हैं।
सिद्ध : (आत्मसंतोष के साथ) लोगों का मैं क्या करूँ ? उनसे क्या कहूँ ?
माधव : सुना तो मैंने भी है।
सिद्ध : मान लीजिए, मैं जानता हूँ।
माधव : तो मैं विनय करता हूँ कि सुपात्र को बतला दीजिए।
माया : यहाँ कुपात्र तो कोई भी न होगा।
कामिनी : और मुझको पुरस्कारस्वरूप यदि आप रसायन का मंत्र दे दें तो...
सिद्ध : तो भी आपकी कला बची रहेगी ?
कामिनी : (दबे हुए अभिमान के साथ) कला ने यदि मेरे साथ जन्म लिया है तो वह मेरे मरने तक साथ देगी।
सिद्ध : (सिर हिलाकर) आप अवश्य पुरस्कार के योग्य हैं। रसायन जानने के लिए बहुत तपस्या करनी पड़ती है। मुझको मालूम है व्याडि-माधव-माधव-कितना उद्योग करते चले आ रहे हैं।
माधव : परंतु मैं सफल अभी तक नहीं हुआ।
सिद्ध : (हँसकर) व्याडि से माधव तो हो गए ?
माधव : यह कामिनी की कला की देन है। मैं अपने को सदा ‘माधव’ नाम से पुकारा जाना पसंद करूँगा; परंतु जो रसायन, जान पड़ता है आपके पास है उसके कारण सिद्ध माधव से भी ऊपर है।
कामिनी : इस शास्त्र को जानने के लिए किस प्रकार की सुपात्रता चाहिए ?
सिद्ध : जैसी आप में है।
कामिनी : (प्रसन्न होकर) आप मुझको बतलावेंगे ?
सिद्ध : अवश्य।
माधव : और मुझको ? यदि आप मुझको बतलावेंगे तो मैं उसका जनहित के लिए पूरा उपयोग करूँगा।
सिद्ध : बतला तो मैं दूँगा, परंतु तपस्या करनी पड़ेगी। रसायन का मंत्र बीजरूप में आप सबको बतलाए देता हूँ। उसका वास्तविक रूप समझने के लिए तप करना पड़ेगा, आकाश-पाताल के सिरे मिलाने होंगे।
माया : (हाथ जोड़कर) तो बतलाइए न सिद्ध महाराज, फिर यदि हमारे भाग और तप ने मेल खा लिया तो हम लोग कला को इतनी ऊँचाई पर पहुँचा देंगे कि संगीत के बड़े-बड़े आचार्यों को दाँतों तले उँगली दबानी पड़ेगी।
सिद्ध : (आँखें मूँदकर) बीजरूप में मैं आप सबको रसायन की बात बतलाए देता हूँ; परंतु उसका रहस्य (आँखें खोलकर) अकेली कामिनी को बतलाऊँगा।
[कामिनी की आँख में तिरस्कार उमड़ता है; परंतु वह उसको रोक लेती है।]
कामिनी : आप कब बतलाएँगे, सिद्धराज ?
सिद्ध : (मुसकराकर) कल दोपहर को एकांत में।
माधव : इस समय बीजरूप में ही रसायन का मंत्र बतला दीजिए।
सिद्ध : प्रण करो कि और किसी पर प्रकट नहीं करेंगे। सब प्रण करो।
सब : नहीं प्रकट करेंगे।
सिद्ध : अच्छा, तो सुनो। सावधान होकर याद रखना। पाटल पुष्प के पत्तों का रस तमाम पुष्पों को खरल करके मिलाओ। मल्लिका की लकड़ी की आग में फूँकने से सब का सब स्वर्ण हो जाएगा।
पुलिन : इसमें बीजमंत्र क्या रहा ? आपने तो सारी की सारी क्रिया बतला दी ?
[कामिनी कुतूहल के साथ सिद्ध की ओर देखती है। माधव मन ही मन चिढ़ता है।]
माधव : इन पुष्पों में भारीपन तो कहीं भी नहीं है। इससे स्वर्ण कैसे बन जाएगा ? कामिनी, आपको क्या विश्वास हो गया है ? अनेक प्रयोग किए हैं। रंग तो स्वर्ण जैसा आ जाता है, परंतु धातु स्वर्ण जैसी नहीं बन पाती।
सिद्ध : (व्यंग्य की आकृति करके) यदि गुरु सारी क्रियाएँ ही बतला दे तो चेला गुरु के बाल नोच उठे। इसीलिए कहा कि तपस्या करनी पड़ेगी।
बिना तपस्या के कुछ नहीं बनेगा, कुछ नहीं मिलेगा।
कामिनी : आपकी बात के भीतर कोई रहस्य छिपा हुआ है।
सिद्ध : (तेज होकर) अवश्य इस रसायन से स्वर्ण बनता है। दूसरी के द्वारा स्वर्ण से मोती और हीरे बना सकते हैं। हरसिंगार के फूलों का चूर्ण अलसी के नीले फूलों के रस में मंदार और विष्णुकांत की लकड़ी की आग से तापकर जब स्वर्ण को समेट लेता है तब वह स्वर्ण हीरा बन जाता है। मोती श्वेत फूलोंवाली कटहरी के रस और करौंदी के चूर्ण के संयोग से बन जाते हैं।
माधव : श्वेत फूलोंवाली कटहरी के रस के संसर्ग से सोना बनने की बात तो मैंने भी सुनी है, परंतु करौंदी और कटहरी के फूलों के मेल से मोतियों का बनना विलक्षण जान पड़ता है।
सिद्ध : (सावधान होकर) विलक्षण तो सारी की सारी रसायन है। आपने कभी रत्ती भर भी सोना बना पाया ?
माधव : नहीं बना पाया और न आपकी बताई हुई उतनी क्रिया से ही कभी बना पाने की आशा है।
पुलिन : सिद्धराज, माधव ने बहुत प्रयोग किए हैं और वह एक पोथी में अपने प्रयोगों को टीपते भी रहते हैं।
सिद्ध : पुस्तक इस विषय पर ऋषि नागार्जुन की ही थी। वह छिन्न होकर नष्ट हो गई है। उसकी कुछ बातें हम सरीखे थोड़े से बाबा बैरागियों के पास रह गई है। बीजरूप में मैंने बतला भी दिया है- आप लोगों को सुपात्र जानकर।
माधव : मुझको तो यह बीजरूप व्याजरूप जान पड़ता है-बिलकुल आड़ा-टेढ़ा, कूटक-सा। इन पुष्पों के नामों के पीछे कुछ और है।
सिद्ध : सो तो है ही। उनके पीछे जो कुछ है, उसके समझने के लिए गुरु की कृपा और अपनी तपस्या की आवश्यकता है। नागार्जुन का एकाध उपचार देखना हो तो मेरे साथ चलो। कहोगे, यह तो इंद्रजाल है; परंतु वास्तव में वह सब विज्ञान है।
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