भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
|
6 पाठकों को प्रिय 145 पाठक हैं |
प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
|| संकल्प ||
ओं यस्मिन्नृचः साम यजूसी यस्मिन् प्रतिष्ठिता रथनाभाविवारा,
यस्मिंश्चित् सर्वमोतं प्रजानां तन्मे मनः शिवसंकल्पमस्तु।
-यजुर्वेद (34/5)
वाङ्मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितं आविराः वीर्म एधि,
वेदस्य म आणीस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीरनेन् आधीतेन,
अहोरात्रान्सन्दधाम्वृतं वदिष्यामि। सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु,
तद्वक्तारमवत्ववतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम्॥
-निर्वाण उपनिषद्
"हे प्रभु ! तेरा दिया हुआ यह मेरा मन उसी प्रकार से समस्त सृष्टि में
केंद्रित है, जिस प्रकार से रथ के पहिए की नाभि में रथ की समस्त शक्ति
केंद्रित होती है। ऐसे ही मेरा मन इस समस्त ज्ञान में कौंद्रित हो और समस्त
प्राणियों के कल्याण में मैं इस ज्ञान को लगा सकूँ।
मेरी वाणी मन में स्थिर हो, मन वाणी में स्थिर हो, हे स्वयंप्रकाश आत्मा!
मेरे सम्मुख तुम प्रकट होओ।
हे वाणी और मन! तुम दोनों मेरे ज्ञान के आधार हो, इसलिए मेरे ज्ञानाभ्यास का
नाश न करो। इस ज्ञानाभ्यास में ही मैं रात-दिन व्यतीत करता रहूँ।
मैं ऋत भाषण करूँगा। सत्य भाषण करूँगा। मेरी रक्षा करो। वक्ता की रक्षा करो।
मेरी रक्षा करो, वक्ता की रक्षा करो, वक्ता की रक्षा करो।"
|