भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
विषयानुक्रमणिका
विषय
1. सृष्टि-रहस्य (अनंत या पंद्रह पद्म वर्ष से लेकर दो अरब
27 वर्ष पूर्व का वृत्तांत) : ग्रह (Planet)-सौरमंडल (Solar System)-दुग्ध
मेखला या आकाशगंगा (Milky Way or Galaxy)-शकधूम (Nebula)-ब्रह्मांड (Universe
or Cosmic Egg)-खगोलशास्त्री डाना बैक मैन, जोसेफ बेवर, वैज्ञानिक स्टीफन
हॉकिंग आदि के स्पष्टीकरण-सृष्टि पूर्व की स्थिति-आधुनिक परिप्रेक्ष्य में
वेद वर्णित संदर्भो की व्याख्या-आनीद्वांत (शाश्वत शक्ति की सुसुप्तावस्था या
Potential form of Super Natural Power)-FTET (Primeridial Elements)-अर्वा
(Radient Energy)-त्रित (Metaphysical quality of trinity)-3779: (Cosmic
Dust)-परिमंडलीय कण (Atomic Particles)-परमाणु (Atom)-तन्मात्रा शक्तियाँ
(Potentiality)-मरुत (Molecules)-पंचभूत (Compound Molecule) व तीन तत्त्व
अर्थात् मन, बुद्धि व अहंकार या जागतिक चैतन्यता (Universal
Consciousness)-विंग वैग थ्योरी (गामा-फोटॉन व न्यूट्रिंज / Neutrinz की
विवेचना)-वेद व सांख्य की सृष्टिसंबंधित व्याख्याएँ-पौराणिक चित्रों का
आशय-आधुनिक विज्ञान से अपेक्षाएँ।
2. पृथ्वी व प्राणी-उद्भव (दो अरब वर्ष पूर्व से लेकर दो
लाख 55 वर्ष पूर्व का वृत्तांत) : इयोजोइक-पैलियोजोइक-मेसोजोइक सिनोजोइक
काल-टरशियरी व क्वाटर्नरी पीरियड-दक्षिण भारत का लैमूरिया खंड व उससे
अस्तित्व में आए ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका व दक्षिणी अमेरिका के वर्तमान
स्वरूप-प्राणी उत्पत्ति विषयक मान्यताएँ (सतत अस्तित्वाद-विशिष्ट
सृजनवादमहाप्रलयवाद-विकासवाद तथा इसकी असंगतियाँ)- मानवी प्रजातियाँ
(पिथेकान्थ्रोपस, सिनान्थ्रोपस, इयोन्थ्रोपस, पालियान्थ्रोपिक, नियोन्थ्रोपिक
व होमोसैपियन मानव)-युग विभाग (पुरापाषाण, मध्य पाषाण, नवपाषाण, ताम्र व
कास्य युग, लौह युग, मशीन युग व कंप्यूटर युग)-काल प्रभाग (हिम तथा वृष्टि
काल) और इसके खगोलीय कारण-पृथ्वी व प्राणी-उद्भव के भारतीय संदर्भ-प्राणी,
उत्पत्ति के वैज्ञानिक तथ्य व इसकी भारतीय पुष्टि-वनस्पति व पशु-पक्षी के
क्रम से मानवी उत्पत्ति-जमीन से ही मानवी उत्पत्ति की विभिन्न
अवधारणाएँ-पोलिमर फैक्टर व जिनोम थ्यूरी-उत्तरी हिमालय में ही प्रथम मानव का
जन्म-हिमालियन, मंगोलियन, कॉकेशियन आदि मानव प्रजातियाँ व उनसे प्रसूत वंशजों
का आधुनिक स्वरूप।
3. भाव अभिव्यक्ति के प्रतीक : आंगिक, वाचिक व लिखित
अभिव्यक्तियाँ-ध्वनि-उत्पत्ति व इसके प्रकार-आद्य मानवों में बोलने की
प्रतिभा के विकास में प्रकृति की सहयोगी भूमिका-शब्द-उत्पत्ति की वैदिक
अवधारणा-छंद, उपछंद, मंत्र, पद, ऋचा व सूक्त के माध्यम से भाषा का
सृजन-श्रुति, द्रष्टा व दर्शन का आशय-राष्ट्री व सौरी के क्रम से मानवों को
संस्कारित करने वाली संस्कृत भाषा का प्राकट्य-स्थान, काल व परिस्थिति भेद के
कारण भाषा के स्वरूपों में क्षरण व परिवर्तन-विश्वप्रसिद्ध भाषाविदों का
संस्कृत-संबंधी विचार-भौगोलिक तथा जातिगत आधारों पर आधुनिक विद्वानों द्वारा
भाषायी परिवार का काल्पनिक वर्गीकरण-लिपियों की ऐतिहासिकताओं-संबंधी
विवेचनाएँ-लिपियों के प्रसूत का वेदवर्णित प्रमाण-अंक लिपि व ध्वनि-चिन्हों
के क्रम से लिपियों का विकास-ब्राह्मी व उससे प्रसृत देव तथा शारदा लिपियों
से एशियाई लिपियों का प्राकट्य-भारत में प्रचलित प्राचीन लिपियों के नाम-मध्य
पूर्व एशिया व यूरोप की लिपियाँ-चित्रलिपि (Cuneiform, Hieroglyphic a
Logographics) के क्रम से अक्काडियन (Akkadian) व सेमिटिक (Semitic) एवं इससे
निःसृत आर्मेइक (Armaic) तथा फोनेटिक (Phoenitic) लिपियों द्वारा हिब्रू,
नेवातेन व यूनानी तथा यूनानी से एट्रस्कन व फिर इससे यूरोप की अब्रिअन, रूनी,
ओस्कन व लैटिन लिपियों की उत्पत्ति-लैटिन या रोमन लिपि का विश्वस्तरीय
प्रभाव।
4. कालगणना : समय-माप के प्राचीन सिद्धांत-मयूर, वानर व
मानव कपाल यंत्र-ताम्रपात्र व रेतघड़ी-भारतीय अंक-विद्या से अरबी 'हिंदीसा' व
यूरोपीय 'न्यूमिरिकल्स' का प्राकट्य-सेकेंड के 3,79,675 वें हिस्से से लेकर
निमेष (0.17 सेकेंड) क्षण (0.51 सेकेंड), घटिका (24 मिनट) व प्रहर (तीन घंटा)
के क्रम से समय-इकाइयों का नियमन-पक्ष, मास, ऋतु, अयन, वर्ष, युग, मन्वंतर व
कल्प-प्रमाण से काल-विभाजन-सायन व निरयन पद्धतियाँ-12 राशियाँ व 27
नक्षत्रगण-समय की पाश्चात्य अवधारणाएँ-कलियुग प्रारंभ होने के प्रमाण-सौर व
चांद्र संवत्सर-कैलेंडर का शाब्दिक अर्थ-जूलियन तथा ग्रिगोरियन कैलेंडर का
आशय-ईरानी 'नौरोज', सिंधी 'चेटी चंडी' व चीन /जापान सहित प्राचीन इंग्लैंड व
रोम के नव वर्षों का भारतीय संवत्सरों से साम्यताएँ-पहली जनवरी का
विश्वव्यापी भ्रम-संसार की विभिन्न मानवी सभ्यताओं में प्रचलित संवत्सरों का
ब्यौरा।
5. प्रलय : परिभाषा व भेद-ब्राह्मप्रलय (Universal
Dissolution)-नैमित्तिक प्रलय (Solar Disannul)-युगांतर प्रलय
(External/Internal Collision)-नित्य प्रलय (Periodical Catastrophe)-city
sety (Routine Disaster)Global Warming और Greenhouse गैसों का पृथ्वी पर
पड़ने वाले प्रभाव-नित्य प्रलयों में भारत की स्थितियाँ-अब तक घटित नित्य व
लघु प्रलयों के विवरण-विश्वप्रसिद्ध जलप्लावन (Deluge) की घटना और उससे जुड़े
क्षेत्रों व कालपुरुषों के समयानुसार ब्यौरे।
6. ब्रह्म, ब्रह्मा तथा आदि-पुरुष (दो लाख वर्ष पूर्व से
लेकर छब्बीस हजार वर्ष पूर्व के वृत्तांत) : ब्रह्म का आशय-ब्रह्म व ब्रह्मा
का भेद-ब्रह्मा का आधिभौतिक स्वरूप-मानवी ब्रह्मा व उसके सात क्रम-सातवें
ब्रह्मा की उत्पत्ति व स्थान-मानस पुत्र (अमैथुनीय मानव) एवं औरस पुत्र
(मैथुनीय मानव) का आशय-विभिन्न कालों में मानुषी ब्रह्मा के बदलते स्वरूप।
7. रुद्र-महेश्वर व शैव परंपराएँ : अग्निर्वा रुद्र यानी
सृष्टि की ऊर्जा-इसके सौम्य तथा घोर स्वरूप-रुद्र के पौराणिक चित्रों का
आशय-लिंगभेद-रुद्र के आधिदैविक, आधिभौतिक व आध्यात्मिक स्वरूपों के एकादश
प्रकार-पुराणवर्णित अमैथुनीय रुद्र का मूल स्थान-मानवी रूपकों में एकादश
रुद्र युग्मों की परंपराएँ-रुद्र का विश्वस्तरीय प्रभाव व इनके विभिन्न
नाम-रुद्र द्वारा प्रतिपादित विभिन्न विद्याएँ-E=mc' के आधार पर रुद्र के शिव
व शंकर स्वरूपों द्वारा निर्गुण व सगुण की व्याख्या-शंकर द्वारा स्थापित
आधुनिक वैवाहिक विधि-शंकर पुत्र स्कंद (कार्तिकेय) ही विश्व का प्रथम
टेस्ट-ट्यूब-बेबी-स्कंद की स्कंधनगरी ही स्कैंडेनिहिया-दानव मर्क का राज्य ही
डेनमार्क-गणेश एक दत्तक पुत्र-गजानन यानी गणपति का प्रजातांत्रिक रूपक-शंकर
के पश्चात् हुए रुद्रगण व उनके द्वारा प्रतिष्ठित संप्रदाय।
8. इतिहास : आशय-रूप-स्रोत-पुराण की विशिष्ट विधि व
प्रयोजन-आधुनिक इतिहास (History) की परंपराएँ व उनका संकुचित दृष्टिकोण।
9. पितर या ब्रह्मा के मानस-पुत्र : पितर जाति व इसके
आधुनिक संदर्भ-आदिपुरुष (ब्रह्मा) के प्रथम शिष्यगण यानी मानसपुत्र
(सनकादि-महर्षि-ऋषि)-मरीचि-अत्रि व एट्रीयस-अंगिरा व आर्गिनोरिस-पुलत्स्य व
पुलेसाती या पिलेसगियंस-पुलह या पुलिह-क्रतु व किलितो-वसिष्ट व मगी-अगस्त्य व
उनके शिष्यों द्वारा प्रतिपादित सप्तद्वीपों की संस्कृति-द्रविड़ अर्थात्
विज्ञ या ज्ञानी पुरुष-द्रविड़ व डुइडों के आपसी संबंध-विश्वामित्र-दक्ष
(अग्नि)-भृगु या वर्न बुरियस-काव्य उशना (शुक्राचार्य) या कैकऊस-काबा का
इतिहास-भृगुपुत्र शुक्राचार्य के पुत्र च्यवन व उनके वंशधरों में और्व,
दधीचि, ऋक्ष, ऋचिक, जमदग्नि तथा परशराम के क्रम से बाल्मीकि आदि का
वर्णन-नारद व परवर्ती ऋषियों की परंपराएँ व इनके द्वारा प्रतिपादित
विद्याएँ-विभिन्न ऋषियों द्वारा रचित शास्त्रों का विषय-परा व अपरा विद्याओं
के स्वरूप-ब्राह्मण का तात्पर्य व उनके कृतित्व तथा दायिव।
10. ब्रह्मा के औरस-पुत्र एवं उनके वंशज : स्वायंभुव मनु से
विकसित मनु व प्रजापति की परंपराएँ-प्रियव्रत शाखा (आग्नीघ्र, नाभि, ऋषभदेव व
मनुर्भरत आदि)-उत्तानपाद शाखा (ध्रुव, चाक्षुस आदि)-प्रियव्रत व उत्तानपाद की
सम्मिलित शाखा-नारायण व उनका वंश-वैकुंठ की भौगोलिक स्थिति-अनंग व
सांख्याचार्य कपिल-राजा पद का सृजन-क्षत्रिय जाति की व्युत्पत्ति-वेन-पृथु व
इसके द्वारा जोत-पद्धति का विकसित किया जाना-उर्वरा व उत्पादकता के इच्छित
गुणों से परिपूर्ण हुई धरती का पृथु के प्रभाववश 'पृथ्वी' नामकरण-पृथु के काल
में ही पद ग्रहण करने से पूर्व की शपथ-प्रक्रिया का प्रारंभ-दक्ष की
उत्पत्ति-तदुपरांत हुई कन्याओं के कारण नारायण वंश का पटाक्षेप।
11. प्रस्फुटन का सारांश : जैविक सृष्टि तथा अयोनिज मानवों
की उत्पत्ति का रहस्य-आदिपुरुष यानी ब्रह्मा व उनके मानस तथा औरस पुत्रों व
उनके वंशजों द्वारा विकसित सभ्यताओं से संबंधित घटनाओं का संक्षिप्त ब्यौरा।
समतल धरती, उन्नत पर्वत-शिखर, चंचल झरने, बहती नदियाँ, गहरी झीलें, अथाह
जलराशिवाले विस्तृत सागर, नाना प्रकार के पेड़-पौधे, वनस्पतियाँ तथा विभिन्न
आकार के पशु-पक्षी-कीट-पतंगे व मानवों का यह संसार-कब, कैसे और कहाँ से
अस्तित्व में आया? (स्काई) आकाश में चमकते सूर्य-चंद्र व टिमटिमाते तारों के
प्रकाश का रहस्य क्या है? स्पेस (अंतरिक्ष या व्योम) का आयतन कितना होगा?
गैलेक्सी (आकाशगंगा) या फिर यूनीवर्स (ब्रह्मांड) किसे कहते हैं? इनका स्वरूप
तथा आकार कैसा है? इनकी रचना कब, कैसे और किससे हुई होगी तथा इनका अस्तित्व
कब तक बना रहेगा इत्यादि प्रश्न मानव के मस्तिष्क में गूंजते रहे हैं। चूंकि
ये सभी घटनाएँ मानव-जन्म से काफी पहले की हैं, अतः अपने काल के जैविक,
भौगोलिक व खगोलिक परिवर्तनों के अनुमान-प्रमाण के आधार पर विभिन्न विवेकी
मानवों द्वारा इन रहस्यों की तह तक पहुँचने के अनेकानेक प्रयास अपने-अपने
स्तरों से किए गए। ‘सांख्य दर्शन' (1-60) में अनुमान-प्रमाण के इस आशय को
स्पष्ट करते हुए यह बताया गया है कि जिसका ज्ञान इंद्रियों के प्रत्यक्ष
माध्यम से न हो सके, उसे अनुमान के आधार पर सुनिश्चित किया जाना चाहिए, जैसे
धुआँ को देखकर अग्नि की उपस्थिति का आभास किया जा सकता है
(अचाक्षुषाणामनुमानेन बोधो धूमादिभिरिव वहेः) । प्रत्यक्ष प्रमाण पर आधारित
होने के कारण आधुनिक विज्ञान की खोज स्थूल जगत् से अणु के विघटन (Elementry
particles) तक जाकर समाप्त हो जाती है, जबकि भारतीय तत्त्ववेत्ता एटम से भी
पूर्व की अवस्थाओं अर्थात् Stutionary state of elementry particles or
Nutrinz से आगे बढ़ते हुए अपने इंद्रियातीत ज्ञान के आधार पर सृष्टि के
अव्यक्त स्वरूपों को उजागर करने में सफल हुए। सृष्टि-रहस्य का हल ढूँढ़ने की
उत्सुकता में ऋषियों, दार्शनिकों और वैज्ञानिकों द्वारा किए गए इस तरह के
प्रयासों से जिस विधा का विकास हुआ. उसी से ब्रह्मांडिकी (खगोलशास्त्र), जिसे
आधुनिक विज्ञान की भाषा में कॉस्मोलोजी (Cosmologyy) कहा जाता है, का जन्म
हुआ। आधुनिक वैज्ञानिक परीक्षणों व अंतरिक्ष अनुसंधानों द्वारा उद्घाटित
तथ्यों के माध्यम से सृष्टि, उसके स्वरूप तथा विघटन (प्रकृति में लय हो जाने
की प्रक्रिया का जहाँ एक स्थूल अनुमान मात्र ही लगाया जा सकता है, वहीं वेद
तथा अन्य भारतीय शास्त्रों में वर्णित गृढ़ तथ्यों के सम्यक अध्ययनों द्वारा
इस इंद्रियातीत सत्य की झलक को सहजता से स्वयं ही अनुभूत किया जा सकता है।
प्रस्तुत अध्याय में सृष्टि-रहस्य से संबंधित वैदिक, पौराणिक व वैज्ञानिक
अवधारणाओं को समायोजित करने का प्रयास किया गया है।
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