भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
सृष्टि-रहस्य
धरती, जिस पर हम खड़े हैं, पृथ्वी (Earth) का ही एक हिस्सा है। नारंगी की तरह
गोल इस पृथ्वी की भूमध्यरेखीय परिधि 40,067 कि.मी. है, जबकि इसका व्यास
12,739.5 कि.मी. है। चार मिनट प्रति अंश की गति से 23 घंटा, 56 मिनट व 4.09
सेकेंड में अपनी धुरी पर एक चक्कर (360 अंश) पूरा करते हुए, निरंतर घूमती हुई
यह पृथ्वी 1600 कि.मी. प्रति मिनट की रफ्तार से | 365 दिन, 5 घंटा, 48 मिनट
45.51 सेकेंड में सूर्य (Sun, व्यास = 13,84,000 कि.मी., पृथ्वी से औसत दूरी
= 14.9 करोड़ कि.मी.) की एक परिक्रमा (छियानबे करोड़ साठ लाख कि.मी. की
परिधि) पूरा करती है। पृथ्वी की ही भाँति एक निश्चित दूरी पर क्रमशः अलग-अलग
स्थित बुध (Mercury, व्यास = 4,849.6 कि.मी., सूर्य से औसत दूरी = 5.76 करोड़
कि.मी.), शुक्र (Venus, व्यास = 12,032 कि.मी., सूर्य से औसत दूरी = 10.75
करोड़ कि.मी.), मंगल (Mars, व्यास = 6,755.2 कि.मी., सूर्य से औसत दूरी =
22.56 करोड़ कि.मी.), बृहस्पति (Jupiter, व्यास = 1,41.968 कि.मी., सूर्य से
औसत दूरी = 77.28 करोड़ कि.मी.), शनि (Saturn, व्यास = 1,19,296 कि.मी.,
सूर्य से औसत दूरी = 141.76 करोड़ कि.मी.), वरुण (Uranus, व्यास = 152,096
कि.मी., सूर्य से औसत दूरी = 285.5 करोड़ कि.मी.), अरुण (Neptune, व्यास =
49,000 कि.मी., सूर्य से औसत दूरी = 449.7 करोड़ कि.मी.) व यम (Pluto, व्यास
= 3,040 कि.मी., सूर्य से औसत दूरी = 586.56 करोड़ कि.मी.) आदि ग्रहगण भी
अपनी-अपनी धुरियों पर घूमते हुए सूर्य की परिक्रमा कर रहे हैं। ग्रहों के इसी
घुमक्कड स्वभाव के कारण अंग्रेजी में इन्हें 'प्लेनेट' कहा जाता है, जो ग्रीक
शब्द- ‘प्लेनेटेस' यानी घुमक्कड़ से ही बना है। सूर्य से सबसे निकट स्थित बुध
को अपनी परिक्रमा पूरी करने में कुल 88 दिन लगते हैं, जबकि सूर्य से सबसे दूर
स्थित यम को अपने परिभ्रण-पथ को पूरा करने में 248 वर्ष लग जाते हैं।
सी.आई.टी., कैलिफोर्निया के खगोलविदों ने अभी हाल में ही, प्लूटो से भी काफी
दूर स्थित, सेडना (Sedna, व्यास = 1,100 मील) नामक विशिष्ट लाल रंग वाले एक
ऐसे नए ग्रह की खोज का दावा किया है जो सूर्य की एक परिक्रमा लगभग 10,500
वर्षों में पूरा करता है। संभवतः सौरमंडल में विद्यमान नौ प्रधान बड़े ग्रहों
के अलावा चक्कर काट रही हजारों छोटी-छोटी ग्रहिकाओं (जिन्हें अंग्रेजी में
Asteriods कहते हैं) में से यह भी एक हो। सूर्य, इसके ग्रहों व ग्रहिकाओं तथा
इनकी परिभ्रमण-परिधि को ही सौरमंडल (Solar System) सौरमंडल कहते हैं। सौरमंडल
के केंद्रबिंदु के दोनों ओर अपरिमित शक्तिसंपन्न नॉडल (Noddle) क्षेत्र है,
जिसे भारतीय मान्यताओं में राहू और केतु तथा पाश्चात्य मान्यताओं में ड्रैगन
हेड (Dragon Head) और ड्रैगन टेल (Dragon Tail) कहा जाता है। इन्हीं दोनों
Noddle points के प्रभाववश सौरमंडल के सभी ग्रहगण सूर्य के चारों तरफ अंडाकार
परिधि में चक्कर काटते रहते हैं। सौरमंडल का क्षेत्र इतना विस्तृत है कि इसके
एक किनारे से दूसरे किनारे तक प्रकाश की गति (एक लाख छियासी हजार दो सौ बयासी
मील प्रति सेकेंड) से दौड़कर पार करना हो तो अनुमानतः दो वर्ष का समय लगेगा।
अब तो अंतरिक्ष की दूरी मापने के लिए प्रकाश की इस निर्धारित गति से भी कई
गुना तीव्र विधि की खोज की जा चुकी है। न्यू जर्सी स्थित नेक अनुसंधान
संस्थान के लिज़न वांग और उनके सहयोगियों ने जुलाई 2000 में लाइट पल्स यानी
(प्रकाश तरंगों) की गति का अध्ययन करने पर यह पाया कि इसकी उच्चतम गति-सीमा
प्रकाश की गति से भी तीन सौ गुनी अधिक है।
हमारा यह सौरमंडल तश्तरी की भाँति गोल व चपटे, लोक या फिर वैज्ञानिक भाषा में
गैलेक्सी (आकाशगंगा) की फैली कई सर्पिल भुजाओं में से एक में स्थित है।
हमारा सौरमंडल आकाशगंगा के साढ़े तैंतीस करोड़वाँ भाग के बराबर है। सूर्य की
धुरी पर घूमते हुए इसे गैलेक्सी के महाचक्र में अपनी परिक्रमा पूरी करने में
पच्चीस करोड़ वर्ष लग जाते हैं। वस्तुतः आकाशगंगा गतिशील चमकीले तारों से
दूधिया हुए अंतरिक्ष के सघन क्षेत्र को कहते हैं। अपने दूधियापन के कारण इसे
मिल्की-वे (दुग्ध-मेखला) भी कहा जाता है। यह (आकाशगंगा) कुल चौदह तारक समूह
(भारतीय शास्त्रों में जिन्हें 'भुवन' तथा वैज्ञानिक भाषा में जिन्हें Spiral
Arms कहा गया है) की पुंज है, जिसमें नक्षत्रों तथा ग्रहों की कुल संख्या दस
अरब (10x10') के लगभग है। प्रकाश की गति यानी एक लाख छियासी हजार दो सौ बयासी
मील या लगभग तीन लाख (3x10) कि.मी. प्रति सेकेंड की रफ्तार से दौड़कर यदि
इसके एक सिरे से दूसरे सिरे तक पहुँचना हो तो कुल सड़सठ करोड़ वर्ष लग
जाएंगे। यह आकाशगंगा अपने केंद्र (जिसे वैज्ञानिक ब्लैक-होल कहते हैं) पर
चक्र की भाँति घूम रही है। गति की आनुपातिक तीव्रता के कारण चक्र की भाँति
निरंतर घूम रही ब्रह्मांड की सभी आकाशगंगाओं के केंद्र पर जो भँवर बन रहे
हैं, वस्तुतः वे ही काले छिद्र (Black Holes) जैसे प्रतीत होते हैं। संभवतः
ऊर्जा के भयंकर विस्फोटों के कारण यहाँ नाभिकीय तत्त्वों (Nucleus Elements)
का इतना सघन घनत्व हो जाता है कि ये प्रकाशकणों (Photons) तक को भी अपने अंदर
समाहित कर लेते हैं। फ्रैंकलिन व मार्शल कॉलेज के खगोलशास्त्रियों ने हबल
स्पेस टेलीस्कोप से सन् 1995 में आकार ले रही कुछ नई आकाशगंगाओं के जो चित्र
खींचे थे, उनसे भी यह पता चला है कि चमकीली तश्तरीनुमा इन गैलेक्सियों के बीच
का भाग काले छेद जैसा ही दिखता है। अमेरिका स्थित मैरीलैंड विश्वविद्यालय के
डॉ. जोसेफ वेबर ने अपने परीक्षण में यह पाया है कि जिस प्रकार सौरमंडल के
ग्रहों को सूर्य की ऊर्जा नियंत्रित करती है, उसी प्रकार आकाशगंगा को उनके
नाभि-केंद्र (ब्लैक-होल) से निर्गत हो रही गुरुत्वाकर्षण की लहरें अनुशासित
करती हैं। जनवरी 2001 में अपने दिल्ली-प्रवास के दौरान ब्रिटेन के प्रसिद्ध
भौतिकशास्त्री व खगोलविद् प्रो. स्टीफन हाकिंग ने ब्लैक-होल्स से संबंधित कुछ
इसी आशय के व्याख्यान दिए थे। उनके अनुसार-"Every region of space are full
of tiny virtual black holes and these are bleading radiation." किंचित्
अपने केंद्र पर चक्र की भाँति घूमने के कारण ही आकाशगंगाओं को वेद की ऋचाओं
में नाभि-चक्र के रूप में परिभाषित किया गया है। भारतीय शास्त्रों के अनुसार
इस तरह के तीन नाभि-चक्रों यानी लोक वाली हमारी आकाशगंगा निरंतर घूम रहे
शकधूम (जगत् या वैज्ञानिक भाषा में नेब्युला) में परिक्रमा कर रही है। शकधूम
की परिधि में परिभ्रमण कर रहे इन चक्रों अर्थात् तीनों लोकों में अपने-अपने
सौरमंडलों वाले सात-सात सूर्य हैं। 'ऋग्वेद' में इनका वर्णन इस प्रकार किया
गया है-
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