लोगों की राय

भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

ओम प्रकाश पांडेय

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2684
आईएसबीएन :9789351869511

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

145 पाठक हैं

प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....


सप्त युञ्जन्ति रथमेक चक्रमेको अश्वो वहति सप्तनामा,
त्रिनाभि चक्रमजरमनर्व यत्रेमा विश्वा भुवनाधि तस्थुः।
(ऋग्वेद-1.164.2)

अर्थात् 'तीन नाभियोंवाले चक्रों में ही सभी भुवन-नक्षत्र हैं और प्रत्येक नाभि-चक्र में सात-सात रथों का जोड़ है, जिसे एक ही अश्व (प्राकृतिक शक्ति) चलायमान कर रहा है।' वैज्ञानिक अनुसंधानों द्वारा की गई अब तक की खोजों से सात सौरमंडलों की इस भारतीय अवधारणा की लगभग पुष्टि हो जाती है। 16 मार्च, 1998 को नासा (National Aeronautics & Space Administration of America) के जेट प्रोपल्सन प्रयोगशाला से जुड़े खगोलशास्त्रियों ने पृथ्वी से लगभग 220 प्रकाशवर्ष दूर, हमारी आकाशगंगा में, एच.आर.-4796 नामक एक युवा तारे की खोज की थी, जो अंतरिक्ष में अपने परिवार (सोलर सिस्टम) के अन्य ग्रहों को जन्म देता दिखाई पड़ा था। इसी प्रकार यू.सी.एल.ए. (University of California, Loas Angles) के वैज्ञानिकों ने पृथ्वी से मात्र दस से बीस प्रकाशवर्ष की दूरी के बीच आकार ले रहे वेगा, वीटा, पिक्टोरिस व फॉमेलहाट नामक चार नए तारों के सौरमंडलों की खोज की है। जुलाई 2000 में ऑस्ट्रेलियाई खगोल विज्ञानियों ने पृथ्वी से दस प्रकाशवर्ष की दूरी पर एक ऐसे तारे की खोज की है, जिसके इर्द-गिर्द दस ग्रहगण चक्कर लगा रहे हैं। जुलाई 2003 में न्यू साउथ वेल्स (ऑस्ट्रेलिया) स्थित 3.9 मीटर के खगोलीय दूरबीन से वैज्ञानिकों को हमारी पृथ्वी से मात्र 95 प्रकाशवर्ष की दूरी पर एच.डी.-70642 नामक तारे का एक नया सौरमंडल मिला, जिसमें अन्य ग्रहों के अलावा बृहस्पति व पृथ्वी जैसे ग्रह भी देखे गए हैं। फ्लोरिडा विश्वविद्यालय तथा हावर्ड विश्वविद्यालय के खगोलशास्त्रियों ने भी अपने-अपने तरीकों से अध्ययन करके उपर्युक्त इन सभी खोजों की सत्यता की वैज्ञानिक पुष्टि कर चुके हैं। खगोलशास्त्री डानाबैकमैन तो यहाँ तक दावा करते हैं कि यूनिवर्स के तीस प्रतिशत तारों के अपने ग्रह या सोलर सिस्टम हैं। रचना व विघटन के प्राकृतिक सिद्धांतों के अनुरूप आकाशगंगा में बन रहे इन नए सौरमंडलों की वैज्ञानिक उद्घोषणाएँ एक प्रकार से सात सूर्यों की भारतीय मान्यताओं की ही पुष्टि करती प्रतीत होती हैं। 'वायुपुराण' के अनुसार, सूक्ष्म आवरणों से आवृत होकर पृथक्-पृथक् इन सातों सूर्य के मंडलों को भूलोक, भुवलोक, स्वलोक, महलोक, जनःलोक, तपोलोक तथा सत्यलोक के नामों से पुकारा गया है (भूर्लोकश्च भुवश्चैव तृतीयः स्वरितिस्मृतः महर्लोको जनश्चैव तपः सत्यश्च सप्तमः, एते सप्त कृतालोकाछत्राकारा व्यवस्थिताः स्वकैरावरणैः सूक्ष्मैर्धार्यभाणाः पृथक् पृथक्-50/79-80)।

इस तरह अपने-अपने सौरमंडलों के ग्रहों को अपने चारों ओर नचाते हुए ये सभी सूर्य (तारे) जहाँ आकाशगंगा के भँवर में फँसे घूम रहे हैं, वहीं इसी अनुरूप आकाशगंगाएँ (नाभिचक्र) भी संबंधित अवंतिकाओं में तथा अवंतिकाओं का समूह संबंधित नीहारिका की परिधि में गतिमान हैं, जबकि हिरण्यगर्भ यानी शकधूम (नेब्यला) वस्तुतः गैसीय पदार्थों व कॉस्मिक धूलों से भरा अंतरिक्ष का वह सघन क्षेत्र है, जहाँ से चमकीले तारों व नक्षत्रों के पुंज के रूप में आकाशगंगाओं के क्रम से अवंतिकाएँ व नीहारिकाएँ विकसित होती रहती हैं। ऋग्वेद (1-164 Nebula 43) का मंत्रद्रष्टा ऋषि इसी आशय को प्रकट करते हुए कहता है कि व्योम में बहुत विस्तार के साथ मँडरानेवाले इस शकधूम, जिसमें सष्टि-रचना संबंधी प्रथम कार्य संपन्न होते हैं, को मैं समीप से देखता हूँ (शकमयं धूममारादपश्यं विषूवता पर एनावरेण, उक्षाणं पृश्निमपचन्त वीरास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्)। इस प्रकार की अनगिनत आकाशगंगाओं, अवंतिकाओं, नीहारिकाओं व शकधूमों से यह ब्रह्मांड (यूनिवर्स) भरा पड़ा है। अंतरिक्ष-संबंधी विषयों के प्रख्यात वेत्ता रहे आद्य महर्षि शिकामकेतु उद्दालक के अनुसार, एक अरब छियानबे करोड़ उनतीस लाख पाँच सौ बानबे सौरमंडलों से एक आकाशगंगा का और एक अरब छियानबे करोड़ उनतीस लाख उनचास हजार पाँच सौ इकसठ आकाशगंगाओं से एक अवंतिका का स्वरूप उभरता है। इसी प्रकार पौने दो अरब अवंतिकाओं से एक नीहारिका तथा डेढ़ अरब नीहारिकाओं से एक ब्रह्मांड का अनुमान परिलक्षित होता है, जबकि ईश्वरीय सृष्टि में अनंत ब्रह्मांडों (अनन्तम् ब्रह्माण्डम् ब्रहे क्रतम् देवत्व प्रव्हा) की शृंखलाएँ विद्यमान हैं और नित नवीन मनकों के रूप में ब्रह्मांड की यह माला बढ़ती ही रहती है। अमेरिकी-फ्रेंच खगोल सर्वेक्षण टीम के डॉ. डेविड वातुरकी तथा ब्रिटिश-आस्ट्रेलियाई खगोल सर्वेक्षण संस्थान के अंतरिक्ष वैज्ञानिक रिचर्ड एलिस के हवाले 14 फरवरी, 1999 को द संडे टाइम्स (लंदन) में प्रकाशित एक रिपोर्ट में कुंभ राशि के आस-पास लाखों आकाशगंगाओं के एक समूह की खोज की पुष्टि की गई है। वह अंतरिक्ष में एक निश्चित क्रम में झाग जैसी दिखती है। मार्च 2004 में फ्रांस व स्विट्जरलैंड के खगोलविदों के एक संयुक्त दल ने पृथ्वी से 13 अरब 23 करोड़ प्रकाशवर्ष की दूरी पर 'अबेल 1835 आई.आर. 1916' नामक अस्तित्व ले रही एक नई आकाशगंगा को खोजा है, जो फरवरी 2004 में खोजी गई एक अन्य आकाशगंगा से भी 23 करोड़ प्रकाशवर्ष की दूरी पर स्थित होने के कारण पृथ्वी से अब तक खोजी गई आकाशगंगाओं में सबसे अधिक दूरी की ही सिद्ध होती है। इसी क्रम में ऑस्ट्रेलियाई अंतरिक्ष वेधशाला के डॉ. माइकेल ड्रिंकवाटर के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक दल ने वारुमबंगले नेशनल पार्क में लगे एंग्लो-ऑस्ट्रेलियन टेलीस्कोप की सहायता से पृथ्वी से लगभग 6 करोड़ प्रकाशवर्ष की दूरी पर 40 आकाशगंगाओं के एक नए समूह की भी खोज की है। इन वैज्ञानिकों ने इस नूतन समूह को 'अल्ट्रा कंपैक्ट ड्वार्फ गैलेक्सीज' के नाम से चिह्नित किया है। इस तरह वैज्ञानिक अन्वेषणों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि अंतरिक्ष में धूल व गैस के अनगिनत बादल मँडरा रहे हैं और कई मिलियन वर्षों के परस्पर आकर्षण-विकर्षण की तापनाभिकीय प्रक्रियाओं के बाद इन्हीं बादलों (जिसे भारतीय शास्त्रों में शकधूम तथा वैज्ञानिक भाषा में नेब्युला कहा जाता है) से आकाशगंगा (गैलेक्सी) व फिर इसके तारों में चरम घनत्व के आंतरिक दबावों के कारण हुए विस्फोटों से नक्षत्रों /ग्रहों या सौरमंडलों का जन्म होता है। ब्रह्मांडों की इस व्यापक आपसी संबद्धता के आधार पर जियाजारजी गिआरडी नामक एक वैज्ञानिक ने आज से 40-45 वर्ष पूर्व प्रतिपादित 'कॉस्मिक केमिस्ट्री' नामक अपने सिद्धांत द्वारा यह सिद्ध कर दिया था कि पूरे ब्रह्मांड में 'ऑर्गनिक यूनिटी' (जीवंत एकता) है और यह एक मानव शरीर जैसे ही कार्य करती है (Microcosm is the Macrocosm and in fact viceversa too)। उदाहरण के लिए एक जैविक-शरीर की ही भाँति पृथ्वी का 70 प्रतिशत हिस्सा जहाँ जल से परिपूर्ण है, वहीं संपूर्ण ब्रह्मांड में भी जलीय या वाष्पित तत्त्वों की अनुमानित मात्रा ठीक 70 प्रतिशत के ही लगभग बैठती है। भारतीय शास्त्रों में “यत् पिण्डे तत् ब्रह्माण्डे' या फिर पुरुष सूक्त व भगवद्गीता के विराटत्व के माध्यम से सार्वभौमिकता के इस सिद्धांत को सदियों पूर्व ही स्वीकार किया जा चुका है। ब्रह्मांड की व्यापकता का अनुमान मनुष्य अभी तक नहीं लगा पाया है, परंतु अब तक के वैज्ञानिक निष्कर्षों से इस बात की पुष्टि तो अवश्य हो गई है कि कुछ तारे पृथ्वी से इतनी दूरी पर पाए गए हैं कि उनके प्रकाश को (एक लाख छियासी हजार दो सौ बयासी मील प्रति सेकेंड की रफ्तार से चलते हुए) धरती पर पहुँचने पर अभी और कई लाख वर्ष लगेंगे। अन्वेषण प्रक्रियागत होने के कारण उपर्युक्त निष्कर्षों को अंतिम तो नहीं माना जा सकता है, फिर भी निश्चित रूप से इनसे हमें अंतरिक्ष के विराट् स्वरूप की एक झलक तो मिल ही जाती है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book

A PHP Error was encountered

Severity: Notice

Message: Undefined index: mxx

Filename: partials/footer.php

Line Number: 7

hellothai