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द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

ओम प्रकाश पांडेय

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2684
आईएसबीएन :9789351869511

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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....


जब द्रष्टव्य जगत का अनुमान लगाना ही रोमांचकारी हो, तब अपरिमित ब्रह्मांड (भारतीय शास्त्र तो अनंत ब्रह्मांड में विश्वास करते हैं) तथा उसके उद्भव के बारे में विचार करना भी एक प्रकार से मानवीय सामर्थ्य से परे की युक्ति ही मानी जाएगी। इन सीमाबद्ध विवशताओं के उपरांत भी मानवी जिज्ञासाओं की तृप्ति के लिए ऋषियों, दार्शनिकों तथा वैज्ञानिकों द्वारा विविध कालों में सृष्टि-रहस्य की परतों को खोलने के अनेकानेक प्रयास अपने-अपने ढंग से किए गए। यही नहीं, अंतरिक्ष अभियानों व वेधशालाओं के माध्यम से अंतरिक्ष अनुसंधान की दिशा में आधुनिक विज्ञान आज भी सतत प्रयत्नशील है। पूर्ववर्ती तथा आधुनिक शोधों में प्रक्रियागत भिन्नताओं के उपरांत भी इनके निष्कर्षों में सत्य की आश्चर्यजनक एकरूपता ही झलकती है। वैज्ञानिक शोधों द्वारा यह सिद्ध किया जा चुका है कि स्पेस (अंतरिक्ष) सघन रूप से गैसीय पदार्थों तथा कॉस्मिक धूलों से भरा पड़ा है और ब्रह्मांड वस्तुतः इन प्राकृतिक पदार्थों के गतिमान होने से उत्पन्न तापनाभिकीय आकर्षण-विकर्षण का ही परिणाम है। इस विषय में भारतीय अवधारणा यह है कि अवस्तु (शून्य) से वस्तु प्राप्त नहीं की जा सकती है (नावस्तुनो वस्तुसिद्धिः-सांख्य-1.78)। अतः सत् व असत्-दोनों रूप में समान प्रकृति (सदासद् समानः प्रकृतेर्दयो-साख्य-1.69) ही नहीं जानने योग्य आदि पदार्थ के रूप में सर्वत्र सुसुप्त अवस्था में विद्यमान थी (आसीविंद तमोभूतम प्रज्ञातमलक्षणम्-प्रसुप्तमिव सर्वत्रः-मनुस्मृति-1.7) और ईश्वरीय प्रेरणा से उत्सर्जित ऊर्जा द्वारा ही इनमें राग (आकर्षण) व विराग (विकर्षण) का प्रस्फुटन हुआ तथा इसी से सृष्टि का प्रारंभ फलित हुआ था (रागविरागयार्योगः सृष्टि-सांख्य-2.9)। अब प्रश्न उठता है कि इन जड़ प्राकृतिक पदार्थों में चैतन्यता (गति) कैसे आई? इस विषय में प्रसिद्ध वैज्ञानिक आइजेक न्यूटन (1642-1726 ई.) द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत अधिक तार्किक होगा। उनकी यह मान्यता रही है कि प्रकृति का कोई भी कण अपनी निश्चल अवस्था से चलायमान अवस्था में बिना किसी बाहरी प्रभाव के नहीं आ सकता है। न्यूटन से भी कई सहस्राब्दी पूर्व व्यासदेव द्वारा रचित ब्रह्मसूत्र में भी इसी बात की उद्घोषणा की गई है कि जब तक कोई बाहरी प्रभाव न पड़े, तब तक प्रकृति की गति उलट नहीं सकती है (व्यतिरेकानवस्थितेश्चानपेक्षत्वात्।। ब्र.सू.-2.2.4)।  इन निष्कर्षों से यही प्रमाणित होता है कि बाहरी तत्त्व के अभाव में अवस्था परिवर्तन निश्चित रूप से संभव नहीं है। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि जड़ प्रकृति को गतिमान करने के लिए एक अनन्य शक्ति की उपस्थिति अनिवार्य है। इस अनन्य शक्ति के स्रोत पर न्यूटन कोई प्रकाश नहीं डाल सके, किंतु उनके द्वारा रचित 'नेचुरलिस प्रिंसिपिया मैथमेटिका' नामक पुस्तक में सुझाए गए दिशा-निर्देशों पर आगे बढ़ता हुआ आधुनिक विज्ञान स्पष्ट रूप से संपूर्ण जगत् का नियंत्रक एक सर्वोच्च शक्ति (Super Natural Power) को ठहराता है। उसके अनुसार, पूरा ब्रह्मांड इस शक्ति के द्वारा नियंत्रित क्षेत्र में ही समाहित है। विज्ञान की भाषा में शक्ति के इस क्षेत्र को क्वांटम फील्ड (Quantum Field) के नाम से जाना जाता है। यह क्षेत्र दो तरह का है-पहला, प्रकट क्षेत्र तथा दूसरा, मौलिक क्षेत्र। द्रष्टव्य जगत् का अस्तित्व प्रकट क्षेत्र (Visible Field) कहलाता है, परंतु इस द्रष्टव्य जगत् (सूर्य, चंद्र, पृथ्वी आदि ग्रहगणों) को यदि इनके निश्चित स्थानों से हटा दिया जाए तो भी शक्ति का मौलिक क्षेत्र (Primeridial Field) बचा रह जाएगा। इस मौलिक क्षेत्र से परे कुछ भी शेष नहीं बंचता है और इसर्का अतिक्रमण भी नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि प्रत्येक प्रकट क्षेत्र का अस्तित्व इसी मौलिक क्षेत्र के गर्भ से प्रसूत होता है, जबकि इस क्षेत्र की ऊर्जाओं को नियंत्रित करनेवाली सर्वोच्च शक्ति का स्रोत एक अद्वितीय चेतना है। यही चेतना अपनी अनन्य बुद्धिमत्ता से पूरे ब्रह्मांड को परिचालित कर रही है। आन्थ्रोपिक कॉस्मोलॉजिकल प्रिंसिपल का मूल वक्तव्य, कि पृथ्वी पर जो कुछ भी घटित हो रहा है, वह सोच-समझकर बनाए गए नियमों के अनुसार शृंखलाबद्ध है, निश्चित रूप से एक सर्वोच्च चेतना (संचालक) की त्रुटिहीन बुद्धिमत्ता को ही इंगित करता है। प्रसिद्ध वैज्ञानिक प्रो. स्टीफन हॉकिंग ने अपनी पुस्तक 'The Universe in a Nutt-shell' में ब्रह्मांड के उद्भव से संबंधित इसी अवधारणा को उचित माना है (Onthropic principle seems to be essential when dealing with the origin of the Universe.)। मूर्धन्य गणितज्ञ रॉजर पेनरोज का यह निष्कर्ष कि "A Universe whose laws do not take consciousness into account is not much of Universe." स्वतः ही सर्वोच्च चेतना से संबंधित वैज्ञानिकों की इस अस्फुट अवधारणाओं को बल प्रदान कर देते हैं। सुपर नेचुरल पॉवर से संबंधित इन सिद्धांतों के आधार पर मूल नियंता के प्रामाणिक अस्तित्व तक पहुँचने में आधुनिक विज्ञान को अभी और कितने वर्ष लगेंगे, यह तो भविष्य के गर्भ में छिपा है, परंतु भारतीय द्रष्टाओं ने अपने अतींद्रिय ज्ञान द्वारा इस अज्ञात शक्ति तथा इसके अधिष्ठाता की रूपरेखा को सदियों पूर्व ही उद्घाटित कर दिया था। इनके अनुसार, ईश्वरीय प्रेरणा से उत्सर्जित ऊर्जा द्वारा ही प्रकृति में राग (आकर्षण-Attraction), विराग (विकर्षण-Repulsion) तथा वैराग्य (विषादNeutral) के त्रित गुणों (जिन्हें आध्यात्मिक भाषा में क्रमशः तम, रज व सत तथा वैज्ञानिक भाषा में शून्यावेश, ऋणावेश व धनावेश कहा गया है) का प्रस्फुटन हुआ है। प्रकृति में उत्पन्न इन्हीं राग (आकर्षण) व विराग (विकर्षण) के आपसी घर्षण द्वारा सृष्टि का प्रारंभ फलित हुआ था (रागविरागयार्योगः सृष्टि -सांख्य-2.9)। चूंकि संचालिका शक्ति ही प्रकृति के गतिमान होने और तदनुसार ब्रह्मांड-उत्पत्ति का कारण बनी, इसीलिए भारतीय मनीषीयों ने इसी मूल शक्ति को ईश्वरीय ऊर्जा तथा इसे ही जगत् के स्थावर-जंगम-सभी का स्रोत माना (ईशा वास्यामिदं सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्-ईशावास्योपनिषद्)। सृष्टिकारकस्वरूपा इस इंद्रियातीत हिरण्यमयी शक्ति को ऋषियों ने जहाँ माया कहकर संबोधित किया, वहीं इसके अधिष्ठाता के अवर्णनीय आकार की कल्पना मात्र से रोमांचित होकर इन्हें ही असीम अंतरिक्ष का धारणकर्ता (अक्षराम्बरान्तधृतेः) स्वीकार कर ऋषियों ने परमसत्ता (ब्रह्म) के विराटत्व को केवल समझाने का प्रयास ही नहीं किया, अपितु अनंत के इस अंतहीन विस्तार के कारण कभी इति-इति या फिर इसके इंद्रियातीत (इंद्रियों द्वारा न जाना जा सकने योग्य) स्वरूप के कारण कभी नेति-नेति की घोषणाएँ कर व्यर्थ के अन्वेषणात्मक प्रक्रियाओं पर विराम लगाने का भी प्रयत्न किया। इन निषेधात्मक उपदेशों के उपरांत भी मानवीय जिज्ञासाओं की संतुष्टि के लिए ऋषियों ने ब्रह्म तथा उसकी माया का संक्षिप्त परिचय देना भी आवश्यक समझा। ईश्वर की महिमा का गुणगान करते हुए ऋषियों ने जहाँ इसे अमरत्व से पूर्ण विश्व की आत्मा तथा सर्वज्ञ, सर्वगत तथा सभी भुवनों व लोकों का नियंता कहकर पुकारा, वहीं इसे ही सृष्टि आरंभ करने के लिए सार्वभौम्य चेतना का उत्पत्तिकर्ता भी माना (स तन्मयो ह्यमृत ईशसंस्थोज्ञः सर्वगो भुवनस्यास्य गोप्ता, य ईशेऽस्य जगतो नित्यमेव नान्यो हेतुर्विद्यत ईशनायश्वेताश्वतरोपनिषद्-6.17)। इसी सार्वभौम्य चेतना, यानी सृष्टि की कारणभूता शक्ति को परा-माया मानते हुए इसे ही अखिल जगत् की माता के रूप में चर-अचर जगत् की अदृश्य अधीश्वरी या त्रिगुणात्मक शक्ति के रूप में भी स्वीकार किया गया (मातर्जगतोऽखिलस्य विश्वेश्वरी चराचरस्य आधारभूता जगतस्त्वमेका त्रिगुणात्मकशक्तिभूता परमासि माया)। ईश्वर की यह माया सत्त्व, रज व तम के अपनी त्रिगुणात्मक वैशिष्ट्य के आधार पर बुद्धि, मन व अहंकार के अपेक्षाकृत स्थूल स्वरूपों में प्रत्यावर्तित होकर स्पंदन करने लगती हैं। माया का यह स्पंदन ही 'प्राण' कहलाता है, जबकि मन, बुद्धि व अहंकार को समष्टि रूप से 'चित्त' कहा गया है; इसी चित्त से देश, काल व निमित्त (कारण व कार्य) का स्वरूप उभरता है, जो प्रकारांतर में चर-अचर जगत् का कारक बनता है। वस्तुतः दृश्यादृश्य जगत् के ये सभी प्रपंच माया की अभिव्यक्ति मात्र ही हैं। चूँकि ब्रह्म माया से भी परे है, अतः माया-जनित मन, बुद्धि व अहंकार या देश, काल व निमित्त की सीमित परिधि में रहते हुए उसके सर्वत्र विद्यमान रहने की अनुभूति तो की जा सकती है, परंतु उसके आकार-प्रकार, गुण-धर्म आदि की कोई कल्पना नहीं की जा सकती है। किंचित् यही कारण है कि भारतीय-दर्शन में ब्रह्म की व्याख्या करने से सामान्यतः बचने का प्रयास किया गया है और यदि कहीं कुछ कहा भी गया है तो उसे ज्ञेय-अज्ञेय की पराकाष्ठा का क्षितिज भर ही माना गया है। भारतीय वाङ्मय में ईश्वरीय प्रार्थना के लिए प्रयुक्त 'तव तत्त्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वरः यादृशोऽसि महादेवाय तादृशाय नमो नमः' (अर्थात् आपके व्यक्त स्वरूप को ही समझना जब कठिन हो, तब आपका अव्यक्त स्वरूप, चाहे वह जो भी हो और जैसा भी हो, उसी रूप में स्तुत्य है) की भावाभिव्यक्ति इसी का प्रमाण है। संभवतः ईश्वर संबंधी द्वंद्वातीत अनुभूति की इसी चरमावस्था के कारण भारतीय दर्शनों में दृश्यादृश्य जगत् के मूल अस्तित्व को ईश्वर के अतिरिक्त अन्य के लिए अविज्ञेय स्वीकार करते हुए (यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन् त्सो अंग वेद यदि वा न वेद-ऋग्वेद-10-129-7) इसे रचना (Creation) की बजाय ईश्वरीय माया का प्रकटीकरण (Manifestation) मात्र ही माना गया है। मुंडकोपनिषद् (1-1-7) में इसी तथ्य को रेखांकित करते हुए यह बताया गया है कि जिस तरह ऊर्णनाभि (मकड़ी) अपने ही शरीर से तंतुओं को निकालकर जाल बुनती है, उसी तरह यह सारा दृश्यादृश्य जगत् भी ईश्वरीय अंश (माया) से ही प्रादुर्भूत हुआ है।' इस प्रकार प्रमाण, शब्द, अनुमान तथा अतींद्रिय ज्ञान के आधार पर सृष्टि-रहस्य के अपने गूढ़ अनुभवों द्वारा भारतीय द्रष्टाओं ने प्रकृति के क्रमागत प्रक्षेप व प्रलय के चरित्र को श्रुतियों के माध्यम से जहाँ शब्दों में संयमित करना चाहा, वहीं इसके अंतर्निहित भावों को जन-सापेक्ष बनाने के उद्देश्य से कहीं-कहीं उन्हें रूपकों एवं चित्रों का भी सहारा लेना पड़ा।

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