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भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

ओम प्रकाश पांडेय

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2684
आईएसबीएन :9789351869511

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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....


भारतीय मान्यता के अनुसार, संपूर्ण व्योम में सृष्टि से पूर्व युक्ति से भी अवर्णनीय गूढ़ अंधकार व्याप्त था। अप्रकेत (अज्ञेय) शाश्वत शक्ति (जिसे परमब्रह्म, सत्, ईश्वर, निरंकार, अद्वैत, निर्गुण, ओंकार, परमात्मा, अनंत आदि नामों से संबोधित किया जाता है) की निश्चेष्ट अवस्था थी (यानी Divine Constant Energy was in potential form) तथा अंतरिक्ष में सर्वत्र व्याप्त व अपने आप में स्थिर 'स्वथा' (प्राकृतिक पदार्थों के क्रम संकोचन अवस्था के सूक्ष्मातिसूक्ष्म विकार यानी असत्) की सलिल (कल्पना से भी अति सूक्ष्म तरल कणों की परस्पर असंबद्ध, किंतु शांत) अवस्था थी। अधिष्ठाता शक्ति से उत्पन्न 'तेज' (वैदिक भाषा में जिसे 'अर्वा' व आध्यात्मिक भाषा में 'माया' कहा गया है) भयंकर नाद (स्फोट) करता हुआ अति तीव्र गति से 'स्वधा' में समाहित हो गया। स्वतःस्फूर्त इस तेज में उपस्थित सत्त्व, रज व तम के विशिष्ट संयोग से निश्चेष्ट सी पड़ी स्वधा में त्रित की क्रियात्मक चेतनाएँ प्रविष्ट कर गईं और प्राण व चित्त की ये संयुक्त चेतनाएँ (Animation) ही आकाश (असत) का मंथन करके सृष्टि की कारक बनीं। चूंकि तेज' (प्रकाश) व 'भयंकर नाद' ही सृष्टि-प्रारंभ के सूचक रहे थे, अतः भारतीय शास्त्रों में कहीं-कहीं 'ज्योर्तिब्रह्म' या 'नादब्रह्म' कहकर भी इनकी अभ्यर्थनाएँ की गई हैं। आधुनिक विज्ञान की भी यही मान्यता है कि शाश्वत ऊर्जा या दिव्य तेज (Constant Energy) के प्रभाव से ही ब्रह्मांड (Universe) निर्मित हुआ है। इस ऊर्जा को न तो समाप्त किया जा सकता है, न विभाजित किया जा सकता है और न ही कोई ऐसा उपाय है कि इसे उत्पन्न किया जा सके। वैज्ञानिकों के अनुसार शब्द (नाद) ही ऊर्जा का स्थूल रूप है। प्रकृति से संयुक्त हुई इसी त्रिधात्मक शक्ति (माया के परिवर्धित स्वरूपों) को समष्टि रूप से वेद में अर्वण, सांख्य में महत तथा आध्यात्मिक शब्दावली में चित्त के अलग-अलग नामों से चिह्नित किया गया है। आम लोगों की ग्राह्यता के लिए परवर्ती धार्मिक ग्रंथों में अर्वण या तेज के उपर्युक्त त्रित गुणों को मानवी रूपकों में भी व्यक्त करने का प्रयास किया गया। भारतीय शास्त्रों की यह मान्यता है कि सृष्टि के प्रबंधन (रचना, पालन व संहार) के लिए परमेश्वर ने अपनी माया के सहयोग से ब्रह्मा (सत्त्व), विष्णु (रजस) व महेश (तमस) को पैदा तो किया, किंतु घोर तप (प्रयास) के उपरांत भी ये त्रिदेव अपने जन्मदाता के स्वरूप की बजाय उसके दिव्य हिरण्यमय प्रकाश (तेज-गामा रेज) का ही दर्शन कर पाए थे। भारतीय वाङ्मय में त्रित की इन संयुक्त विशेषताओं के अनुरूप इन त्रिदेवों को शाब्दिक आधार देने के लिए स्वर उच्चारण के तीन मूल आयामों यानी अ, उ, म अक्षरों (अकारो विष्णूर्दीष्टा उकारेस्तु महेश्वरा, म कारेणु उच्चते ब्रह्मा प्रणव वस्तु योमताः) को मिलाकर बने ॐ शब्द की संरचना भी की गई। वस्तुतः शब्दोच्चारण की संपूर्ण प्रक्रिया को निसंपन्न करने के कारण ॐ ही प्रकृति के मूल स्फोट (नादब्रह्म) का वाच्य होने के साथ-साथ 'ब्रह्म' की अनाम सत्ता को सार्थक नाम भी प्रदान करता है। प्रसिद्ध नक्षत्र गतान्वेषी पं. शंकर चरण त्रिपाठी के अनुसार, 'ओमित्येतनदति यः प्रति पाणि शब्दो वाणी यस्मात् प्रसरति पराशब्दो तन्मात्रगर्भा प्राणऽपानो वहति च समौ यो मित्रो ग्रास सक्तौ देहस्थं तं शपदि परमादित्य माद्यम् नमस्ते' (अर्थात् 'जिस शब्द से संपूर्ण वाणी, ध्वनिक्रिया, आकार, चर-अचर, समस्त प्राण एवं शरीर तथा संपूर्ण ब्रह्मांड व उनके भुवन निर्गत होते हैं, उस जाज्वल्यमान ॐ रूपी सूर्य को नमस्कार है') के मंत्र द्वारा ही इस महिमामयी शब्द की सम्यक् व्याख्या परिलक्षित होती है। प्राचीन मिस्र में ईश्वर के लिए संबोधित ‘आमोन', पारसियों का 'हओम', बौद्धों व जैनियों का 'ओम्', ईसाइयों व इसलामिकों का 'आमीन' तथा सिखों का 'ओंकार' वस्तुतः ॐ का ही ध्वन्यात्मक अभ्यंतरण है। यही नहीं, बल्कि अरबी में अल्लाह व गुरुमुखी में ओंकार लिखने की शैली भी संस्कृत ॐ से काफी मिलती-जुलती है।

ईश्वरीय तेज या अर्वण के वेग विशेष से प्रत्युत्पन्न हुई ऊर्जाओं के कारण तीन गुणोंवाले महत् भी तदनुरूप तीन अलग-अलग आवेशों या बंधनों (भारतीय शास्त्रों में जिन्हें त्रिदेवों की कार्मिक शक्ति, यानी ऐं-बुद्धि या सरस्वती, ही-मन या लक्ष्मी व क्लीं-अहंकार या काली के रूपों में वर्णित किया गया है), से संयुक्त हो गए। इन बंधनों से संयुक्त हो जाने के उपरांत ही दिव्य तेज के इन तीनों आयामों में अपने-अपने स्वभावों के अनुरूप गुणोत्पादक क्रियाएँ प्रारंभ हो गईं। भारतीय ग्रंथों में इन त्रित बंधनों या गुणोत्पादक ऊर्जा को स्त्रीवाचक 'माया' नामक संज्ञा के रूप में चिह्नित किया गया है, जबकि गुणातीत शाश्वत ऊर्जा को 'पुरुष' कहकर उद्बोधित किया जाता है। चूँकि त्रित युग्मों के लिए व्यवहृत हुआ 'ऊँ ऐं ह्रीं क्लीं' का यह सूक्ष्म उद्बोधन ही अनंत की अवर्णनीय आद्य-प्रवृत्ति को शाब्दिक आधार प्रदान करने में पर्याप्त दिखता है, अतः भारतीय शास्त्रों में इसे ईश्वर तथा उसकी अंतहीन माया को स्मरण करने के लिए बीज-मंत्र के रूप में ही स्वीकार्य किया गया है। परमात्मा के तेज से अस्तित्व में आई ये प्रतिऊर्जाएँ अपनी प्रक्रियागत क्षमताओं के आधार पर त्रित के अपेक्षाकृत निम्न गुणों की सघन आभाओं से भी आच्छादित हो गईं। कालांतर में वे ही अपनी सात विशेष गतियों (सप्तगतेर्विशेषित्वाच्च-ब्रह्मसूत्र 2-4-5) के कारण जैविक उत्पत्ति के कारक बने। भारतीय ग्रंथों में ऊर्जाओं के इसी परिवर्धित अंश को 'जीवात्मा' (प्राणमय कोश) तथा गुण-विशेष की सघन आभाओं से निर्मित इनके आवरण को ही 'सूक्ष्म शरीर' (मनोमय कोश) के रूप में चिह्नित किया गया है। गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस (3.6-3) में परमात्मा व जीवात्मा के मध्य स्थित माया की इसी कड़ी को राम व लक्ष्मण के मध्य चल रही सीता के प्रत्यक्ष उदाहरण द्वारा समझाने का प्रयत्न किया है (उभय बीच श्री सोहइ कैसी, ब्रह्म जीव बिच माया जैसी)। ब्रह्मसूत्र (3-1-2) में इसकी व्याख्या 'त्यात्मकत्वात्तु भूयस्त्वात्' के रूप में की गई है, जिसका आशय होता है कि सूक्ष्म शरीर तीन तत्त्वों अर्थात् मन, बुद्धि व अहंकार के सहयोग से बना है और चौथा विशिष्ट तत्त्व इसमें समाहित रहता है। इस तरह अविशेषों के विलक्षण संयोगों से निर्मित यह सूक्ष्म शरीर व इसमें अंतर्निहित ऊर्जा इंद्रियातीत होने के कारण किसी भी तरह के उपकरणों या परीक्षणों के माध्यम से सिद्ध नहीं की जा सकती है, जबकि विशेषों से निर्मित पंचभौतिक कायावाले स्थूल शरीर (अन्नमय कोश) को ही नहीं अपितु प्रकृति के सूक्ष्मातिसूक्ष्म कणों (Elementary Particles) को भी विशिष्ट साधनों द्वारा देखा व परखा जा सकता है। सूक्ष्म शरीर को ईसाई मान्यताओं में Spiritual Body (आध्यात्मिक देह) तथा इसलामिक मान्यताओं में 'रूह' कहकर संबोधित किया जाता है। यद्यपि जीवात्मा (Self) के अदृश्यात्मकता के कारण आधुनिक विज्ञान इसे Metaphysic की श्रेणी में धकेल देता है, तथापि आंथ्रोपिक सिद्धांतों के माध्यम से जागतिक चैतन्यता (Universal Consciousness) के तथ्यों को स्वीकार करके वह इसकी स्थिति को एक प्रकार से नकार भी नहीं पाता है।

इसी त्रिधात्मक शक्ति यानी अर्वण या माया के प्रभाव के कारण स्वधा (प्रकृत) की निश्चेष्टताएँ प्राथमिक स्तर पर तीन विभिन्न गुणों (जिन्हें सांख्य में वैचारिक या सात्त्विक, तेजस या राजसिक व भूतादिक या तामसिक अहंकार कहते हैं) से अलंकृत हो उठीं। त्रित के इसी संघात के कारण निःसृत हुए स्वधा के तत्पश्चात् निखार को वेद में वरुण, मित्र व अर्यमा (आधुनिक विज्ञान की भाषा में इन्हें पॉजिट्रान, एंटी-प्रोट्रान व एंटी-न्यूट्रान कहते हैं) के रूप में चिह्नित किया गया है। स्वधा के इस परिवर्धित स्थूल रूप को समष्टि रूप से वेद में आपः तथा विज्ञान की भाषा में एलिमेंटरी पार्टिकल्स कहा गया है। संस्कृत में आपः को 'जल' भी कहा जाता है। अतः इसी भाव के अनुरूप ही उपनिषदों, शास्त्रों, पुराणों तथा विश्व के प्राचीन धर्मग्रंथों में अजामेकां यानी प्रकृति के अनादि तत्त्वों की वाष्पित तरलता को आदि-समुद्र या Primeridial Ocean (सुमेरियन व वेबोलियन सभ्यताओं में तो इसे संस्कृत आपः के समानार्थी ‘अप्सू-Apsu' ही कहा गया है) की संज्ञाएँ दी गई हैं। श्वेताश्वतर उपनिषद् (4-5) के अनुसार-सत, रज व तम के त्रित गुणों से आवृत होकर ही प्रकृति अपने स्वरूप के अनुरूप जड़ पदार्थों को उत्पन्न करने में समर्थ हुई थी (अजामेकां लोहितशुल्ककृष्णां वहीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः)। परवर्ती धार्मिक ग्रंथों में वर्णित अर्धनारीश्वर का विशिष्ट मानवी रूपक भी किंचित् आपः और बंधनों द्वारा निर्मित इन्हीं युग्मों के लिए प्रयुक्त किया गया था। इसकी सम्यक् व्याख्या करते हुए मनुस्मृति (1.34) कहता है कि ईश्वर ने जगत् रूपी शरीर को दो भागों (पुरुष-स्त्री) में विभाजित कर आपसी सहवास द्वारा सृष्टि की उत्पत्ति की (द्विधा कृत्वाऽऽत्मनो देहमर्धेन पुरुषोऽभवत् अर्धेन नारी तस्यां स विराजमसृजत्प्रभुः)। लगभग इसी भाव के अनुरूप मानव-उत्पत्ति विषयक कारणों पर प्रकाश डालते हुए बाइबिल (जेनेसिस) में जहाँ यह बताया गया है कि ईश्वर ने अपने द्वारा रचित प्रथम पुरुष (एडम) की एक पसली की हड्डी निकालकर स्त्री (ईव) की रचना की थी, वहीं कुरआन शरीफ के 'सूरा अल् हुजुरात' की तेरहवीं आयत यह बताती है कि अल्लाह ने लोगों को अपने द्वारा बनाए गए एक मर्द (आदम) और एक औरत (हौव्वा) से पैदा किया था। इसी तरह भारतीय त्रित की भावभित्ति पर प्रतिपादित बौद्धों के बुद्ध, धम्म व मार के अनुरूप ही तदंतर अस्तित्व में आए पंथों अर्थात् ईसाइयों में गॉड, होली सन व डिवाइन घोस्ट या फिर इसलाम में अल्लाह, पैगंबर व शैतान की ट्रीनिटी विकसित हुई।

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