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भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

ओम प्रकाश पांडेय

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2684
आईएसबीएन :9789351869511

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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....


आधुनिक विज्ञान की भाषा में आपः व त्रित युग्मों के संयोगों से चैतन्य हुए प्रकृति के परिवर्धित गुणों को जहाँ इलेक्ट्रॉन, प्रोट्रॉन व न्यूट्रॉन कहा गया है, वहीं इनसे निर्मित हुए कणों को कॉस्मिक डस्ट (Cosmic Dust) व इसके वाष्य आलोकित परिदृश्य (Aura) को कॉस्मिक रेज (Cosmic Rays) तथा इनके समूहों को परिमंडलीय कण या एटोमिक पार्टिकल्स के नामों से संबोधित किया गया है, जबकि बंधनों से मुक्त रह गए आपः के एकल अवशेषों से ही आकाश या Ether का निस्पृह स्वरूप निखरा था। विज्ञान की भाषा में आकर्षण-विकर्षण से रहित परमाणुओं के समूह, जो परिमंडलों (Atoms) की रचना करने में असमर्थ होते हैं, वस्तुतः आकाश के ही रूप में होते हैं और इन्हीं के माध्यम से एटमजनित तरंगें एक स्थान से दूसरे स्थान को जा पाती हैं। इन्हीं गतिमान परिमंडलीय कणों के आपसी आकर्षण-विकर्षण से पाँच तन्मात्रा शक्तियाँ-Potentiality (परमंडली यानी आटोमिसिटी, रासायनिक या केमिकल एफिनिटी, विकंपन या मोलेक्यूल्स डायनामिक्स, चुंबकीय या मैगनेटिज्म व घर्षण या ग्रैविटी) और फिर इनके प्रभाव से निर्मित हुए अंडे (जिसे ब्रह्मांड या Cosmic Egg कहा गया है) में हुए परिवर्तनों से परिमंडल यानी एटम की रचना हुई। इस हिरण्यगर्भ के पककर फूटने पर बिखरे एटमों के परस्पर आकर्षण-विकर्षण से अस्तित्व में आई इकाई को ही वेद में मरूत (पाश्चात्य विज्ञान की भाषा में मोलेक्यूल) कहा गया है। 'आकाश' नामक निस्पृह महाभूत के अतिरिक्त मरूतों में होनेवाले स्पंदनों से चार अन्य महाभूतों (पार्थिव-Solid, जलीय-Liquid, वायवी-Gasseous व आग्नेय-Radio Active) का स्थूल स्वरूप उभरकर सामने आया। विज्ञान की भाषा में मोलेक्यूल्स में होनेवाले स्पंदनों (Vibrations) से इनका आंतरिक तापमान बढ़ जाता है, जिसके फलस्वरूप ये आग्नेय से परिपूर्ण हो जाते हैं। स्पंदनों की प्रक्रिया में मोलेक्यूल के परिमंडलों (Atoms) के आपस में जकड़े रहने से पार्थिव (Solid या ठोस), इनके त्रिज्या (radius) के फैलने से जलीय (Liquid) तथा त्रिज्या के अत्यधिक फैलाव के कारण परिमंडलों का केंद्र से संबंध विच्छेद होने पर वायवी (Gasseous) अवस्थाएँ निर्मित होती हैं। इन पाँचों प्रकार के स्थूल महाभूतों के विखराव से शकधूम (Nebula) व फिर इन्हीं नेबुलाओं में घटित तापनाभिकीय प्रक्रियाओं के कारण हुए संकुचनों की पराकाष्ठा से प्रतिफलित विस्फोटों के परिणामस्वरूप आकाशगंगाओं (Galaxies) यानी अंतरिक्ष में दृश्यमान तारों व ग्रहों का यह टिमटिमाता जगत् अस्तित्व में आया। कदाचित् मन (Lust), बुद्धि (Intelligence), अहंकार (Ego) आदि सूक्ष्म व पार्थिव, जलीय, वायवी, आग्नेय व आकाशीय आदि पंचमहाभूत के स्थूल तत्त्वों से प्रकटे इस दृश्यादृश्य जगत् के अंतर्निहित भावों को व्यक्त करने के लिए ही ऋग्वेद (10-72-8) में 'अष्टौ पुत्रासो अदितेर्य जातास्तन्व स्परि' या फिर भगवद्गीता (7-4) में 'भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च, अहंकार इतिय में भिन्ना प्रकृतिरष्टधा' का सारगर्भित श्लोक व्यवहृत हुआ है। इसी क्रम में प्राणियों के अनुकूल परिस्थितियों के बनने से कालांतर में रोहिणी व सोम के प्रभाव से सूर्य-रश्मियों द्वारा पृथ्वी पर चार प्रकार की जैविक सृष्टियाँ-उद्भिज, अंडज, स्वेदज तथा जरायुज अस्तित्व में आईं। सृष्टि-निर्माण में प्राकृतिक पदार्थों के इन अमृतमयी अंशदानों (कल्याणकारी देयता या देवत्व) से अभिभूत होकर ही वैदिक ऋषियों ने इन्हें ही विश्व के देव (विश्वेदेवाः) की संज्ञा से विभूषित करके स्वधा, त्वष्टा, आपः, पूषः, वरुण, मित्र, रुद्र, मरुत, इंद्र, अग्नि, सोम, आदित्य, अश्विनों, सविता, वसु, पृथ्वी आदि नामों से स्वस्तिवाचन कर इन विश्वदेवों की अभ्यर्थनाएँ भी की थीं। यही नहीं, प्राकृतिक घात-प्रतिघात के कारण उत्पन्न हुए वायुमंडलीय विकारों (प्रदूषणों) को दूर कर इन विश्वदेवों की जनकल्याणी कृतित्व-शक्ति (देवत्व) तथा वातावरण को पुष्टता प्रदान करने के लिए ऋषियों ने सामान्य जनों में यज्ञ की विधि को भी प्रतिष्ठापित किया। यज्ञ की महत्ता को रेखांकित करते हुए यह तर्क दिया गया कि यज्ञौ वै विष्णुः (यज्ञ ही ईश्वर है) या फिर यज्ञ ही सभी भुवनों का नाभि-केंद्र यानी ऊर्जा का आधार है, अतः यज्ञ से ही प्राणियों का अभीष्ट सिद्ध होता है (यज्ञो भुवनस्य नाभिःओं इष्टो यज्ञो-यजुर्वेद)। इस प्रकार परमात्मा की सजग अग्नि के वेग से बना यह जगत् अपने-अपने अंशों को प्राप्त गति के अनुसार कार्य करता रहता है और गति के शांत होते ही विघटित हो मृतप्राय मूल प्रकृति में इसका लय हो जाता है। परमात्मा की शक्ति से उद्वेलित रचना और विघटन का यह कार्य अंतरिक्ष में दिन और रात की ही भाँति अनवरत रूप से चल रहा है। प्रकृति की इसी गत्यात्मकता को प्रेरणास्वरूप मानते हुए भारतीय शास्त्रों में कर्म को ही मानव-समृद्धि का आधार'उद्योगिनं पुरुषसिंहमुपैति लक्ष्मी' या 'विश्व आधार करम करि राखा, जो जस करय सो तस फल चाखा' कहा गया है। पाश्चात्य अवधारणाओं में भी इसी तथ्य को 'Fortune favours the brave' या फिर Work is Worship' कहकर स्वीकार किया गया है।

कमोबेश भारतीय अवधारणाओं की ही तरह सृष्टि-रहस्य पर एस्ट्रोफिजिकल तथा जिओलॉजिकल विधियों द्वारा प्रतिपादित पाश्चात्य विज्ञान के विग बैंग तथा टपल्सेटिंग सिद्धांतों (कॉस्मोलॉजी) की भी यही मान्यता है कि अपने मूल स्वरूप में यूनिवर्स (ब्रह्मांड या हिरणगर्भ), स्पेस (व्योम) के सीमित क्षेत्र में एक अत्यंत सूक्ष्म पिंड के रूप में सिकुड़ा हुआ था। करोड़ों वर्ष पूर्व इस सतत ऊर्जा रूपी पिंड में ताप नाभिकीय दवावों के कारण हुए एक भयंकर विस्फोट के फलस्वरूप अंतरिक्ष में कॉस्मिक डस्ट तथा गैसीय मैटर्स का एक अनवरत फैलाव प्रारंभ हुआ, जो अब तक यथावत् जारी है। वैज्ञानिकों के अनुसार इस कॉस्मिक डस्ट के एक कण का व्यास 1/50000 इंच है, जबकि धूल व वायवी पदार्थों के मिश्रण की सघनता व्योम में इतनी कम है कि दस लाख वर्गमील की परिधि में यह मात्र एक मिलीग्राम द्रव्य भार रखता है। परस्पर आकर्षण-विकर्षण (कंपनों) से उत्पन्न गति विशेष के कारण बने विभिन्न केंद्रों का चक्कर काटते हुए धूल व गैस के ये बादल (नेब्युला) कालक्रम में तश्तरीनुमा विभिन्न आकारों को ग्रहण करते चले गए। गैसीय दबाव के तापनाभिकीय प्रक्रियाओं द्वारा हुए संकुचन के कारण इन बादलों में चक्कर काट रहे कॉस्मिक धूलों के कण एकत्र होकर धीरे-धीरे ठोस गोलों में परिवर्तित हो गए। चरम घनत्व की स्थिति में संकुचन की प्रक्रिया के रुकने पर इन्हीं ठोस गोलों ने चमकीले तारों व नक्षत्रों का स्वरूप ग्रहण कर लिया और तब इनके वायुमंडल का केंद्रीय ज्वलनांक लगभग दस करोड़ डिग्री सेंटीग्रेट तक पहुँच गया। इन गतिशील चमकीले तारों व नक्षत्रों के समूहों से अंतरिक्ष में तश्तरीनुमा दुग्ध मेखलाओं (मिल्की-वे) का स्वरूप उभरकर सामने आया। फिर तापनाभिकीय घनत्व के कारण आकाशगंगा के इन तारों में हुए आंतरिक विस्फोटों से प्लेनेट्स (ग्रहगण) अस्तित्व में आए, जो गुरुत्वाकर्षण के प्रभाववश मुख्य तारे से क्रमशः एक निश्चित दूरी पर इसके चारों तरफ एक निश्चित गति से चक्कर लगाते हुए धीरे-धीरे ठंडे होते चले गए। मुख्य तारे की गुरुत्वाकर्षण-परिधि के अंदर गतिमान ग्रहों के समूह को ही सोलर सिस्टम (सौरमंडल) के नाम से जाना जाता है।

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