भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
इस तरह करोड़ों वर्ष की प्रक्रियाओं के पश्चात् सभी ग्रहों के पूर्ण अस्तित्व
में आने के बाद मुख्य तारे अपने-अपने सौरमंडलों में बची हुई गैस व धूल को
अपनी ओर खींच लेते हैं, जिससे उनके चारों ओर हलकी परत सी बन जाती है। हमारे
सूर्य के चारों तरफ भी इसी प्रकार की एक परत बनी हुई है, जिसे क्यूपर वेल्ट
कहते हैं। इस प्रकार कॉस्मिक डस्ट से वर्तमान स्वरूप ग्रहण करने में प्रकृति
को हजारों मिलियन वर्षों की खगोलीय प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ा है। आधुनिक
वैज्ञानिकों द्वारा किए गए आकलनों के अनुसार ब्रह्मांड (Universe) को
अस्तित्व में आए अनुमानतः 13.7 विलियन वर्ष व्यतीत हो चुके हैं। प्राकृतिक
गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव के कारण हालाँकि गैलेक्सियों (आकाशगंगाओं) के सभी
पुंज आपस में एक-दूसरे से बँधे हुए हैं, फिर भी एस्ट्रो एक्सपेंशन (खगोलीय
फैलाव) की निरंतर गतिशीलता के कारण गैलेक्सियाँ एक दूसरे से लगातार दूर भी
होती चली जा रही हैं। अंतरिक्ष में व्याप्त कॉस्मिक धूल व गैस के कारण
गैलेक्सियों द्वारा खाली किए गए इन स्थानों पर आश्चर्यजनक रूप से नई
आकाशगंगाओं और तदनुसार सौरमंडलों का जन्म भी होता जा रहा है। पाश्चात्य
विज्ञान का यह मानना है कि फैलाव के चरमोत्कर्ष पर प्रोडक्टिविटी
(प्रजननात्मक क्रियाओं) का ह्रास होने पर, गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव से
प्रकृति में सिकुड़न आना प्रारंभ हो जाएगा। सिकुड़न की यह प्रक्रिया अंततः
इसे अपनी मूल स्थिति यानी सूक्ष्म पिंड में ले आएगी। घनीभूत
सूक्ष्मातिसूक्ष्म पिंड हो जाने की स्थिति में पुनः इनमें पहले जैसा विस्फोट
व तदनुरूप फैलाव तथा रचना की प्रक्रियाएँ प्रारंभ हो जाएँगी। इस तरह सृष्टि
का यह चक्र अनवरत चलता रहता है।
क्लॉडियस टॉलेमी, कॉपरनिकस, गैलीलियो, न्यूटन व आइंस्टीन की शोध श्रृंखलाओं
द्वारा सोलर सिस्टम, गैलेक्सी व नेब्युला के क्रम से कॉस्मिक डस्ट की तह तक
पहुँचनेवाला आधुनिक विज्ञान भारतीय मूल के अमेरिकी अंतरिक्ष वैज्ञानिक
चंद्रशेखर सुब्रह्मण्यम द्वारा प्रतिपादित सिद्धांत के आधार पर सृष्टि की
कारक-शक्ति की दिशा में आगे बढ़ते हुए रेडियंट इनर्जी (प्रकाशमान ऊर्जा) की
झलक पाने का दावा सा करता प्रतीत हो रहा है। एटम (अणु) के विश्लेषण से जो तीन
परमाणु (इलेक्ट्रॉन, प्रोट्रॉन व न्यूट्रॉन) उभरकर आए हैं, उनके प्रारंभिक
कणों का भी पता विज्ञान को लग चुका है। चूंकि इन प्रारंभिक कणों के चुंबकीय
आवेश इनके अपने परमाणुओं के विपरीत होते हैं, अतः इन्हें क्रमशः पॉजिट्रॉन,
ऐंटी-प्रोट्रॉन व ऐंटी-न्यूट्रॉन के नामों से संबोधित किया जाता है। आगे के
शोधों से यह निष्कर्ष निकला है कि जब ये प्रारंभिक कण अपने विपरीत गुणवाले कण
से टकरा जाते हैं, तो एक दूसरे को तुरंत ही विनष्ट कर देते हैं। इस तरह घटित
हुए संघात के एक निमेष से भी कम के अंतर पर सभी अस्थिर कण स्वतः ही प्रकाशमान
ऊर्जा या रेडियंट इनर्जी (गामा फोटॉन-?) में परिवर्तित होकर विलुप्त हो जाते
हैं और शेष स्थिर कण गुणहीन होकर रह जाते हैं। आधुनिक विज्ञान इन विलुप्त हुए
कणों को मीजोन तथा स्थिर गुणहीन कण को न्यूट्रिंज का नाम देते हैं। इन्हीं
विलुप्त हुए परमाणुओं (Mesons) के आवेश के कारण गुणहीन कण (Neutrinos)
चुंबकीय क्षमताओं से परिपूर्ण रहते हैं। इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका के खंड
दो में इस शोध-कार्य का विस्तृत उल्लेख किया गया है। गामा फोटॉन व न्यूट्रिंज
का यह भाव भारतीय शास्त्रों में वर्णित ‘अर्वण' व 'असत्' का ही आधुनिक अनुहार
सा प्रतीत होता है। कॉम्पटन प्रक्रिया द्वारा गामा-रेज तथा हबल प्रक्रिया
द्वारा न्यूट्रिंज का अध्ययन कर प्रकृति के गूढ़ रहस्यों की तह तक पहुँचने के
उद्देश्य से अमेरिका के नेशनल ऐरोनाटिक्स एंड स्पेस एडिमिनिस्ट्रेशन' (नासा)
द्वारा ‘चंद्रा एक्स-रे ऑब्जर्वेटरी' नामक एक अत्यंत उच्च शक्तिमान वेधशाला
को अंतरिक्ष की कक्षा में 23 जुलाई, 1999 को स्थापित किया गया। आगामी वर्षों
में सृष्टि-रहस्य की परतों को उजागर करने में आधुनिक विज्ञान को उच्च
तकनीकीयुक्त ऐसी वेधशालाओं से काफी सकारात्मक अपेक्षाएँ हैं।
पाश्चात्य विज्ञान की अब तक की इन गवेषणाओं का मुख्य आधार द्रष्टव्य पदार्थ
ही रहे हैं। मूल प्रकृति चूँकि तत्त्वों से भी परे की स्थिति है, अतः सिद्ध
की गई इन स्थूल आधुनिक अवधारणाओं की तुलना में तत्त्वातीत दृष्टि द्वारा
सदियों पूर्व स्थापित किए गए भारतीय मानदंड ही अधिक प्रामाणिक, सूक्ष्म तथा
परिष्कृत माने जा सकते हैं। प्रत्यक्षं किं प्रमाणम् के आधार पर वेद की इन
संक्षिप्त ऋचाओं से ही सृष्टि के सर्वांगीण परिदृश्य को आसानी से अनुभूत किया
जा सकता है-
'नासदासीन्नो सदासीत् तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्।।'
'आनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः कि चनास।
तमः आसीत् तमसा गूळहमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदम्।।'
'यदक्रन्दः प्रथमं जायमान उद्यन्त्समुद्राद्रुत वा पुरीषात्।
श्येनस्य पक्षा हरिणस्य वाहू उपस्तुत्यं महि जातं ते अर्वन्।।'
'यमेन दत्तं त्रित एनमायुनगिन्द्र एणं प्रथमो अध्यतिष्ठत्।।'
'त्रीणि त आहुर्दिवि वन्धनानि त्रीण्यप्सु त्रीणयन्तः समुद्रे।
उतेव में वरुणश्छन्स्य र्वन यत्रा त आहुः परमं जनित्रम्।।'
'इमा ते वाजिन्नवमार्जनानी मा शफानां सनितुर्निधाना।।'
'ऋतं च सत्यं चामीद्धात्तपसोऽध्य जायत। ततो राज्जायत।
ततः समुद्रो-अर्णवः।।' (ऋग्वेद-10-129-1, 2,3;1-163-1, 2,4;10-190-1)
अर्थात् 'रचना से पूर्व न तो ब्रह्मांडों में बँटा अंतरिक्ष (व्योम) का यह
स्वरूप था, न ही नक्षत्र, ग्रहादि (रजः) थे। सत् (अव्यक्त) या असत् (व्यक्त)
जैसा कुछ था भी या नहीं-निश्चयपूर्वक कहा नहीं जा सकता। एक आनीत अवातम
(परमात्मा की निश्चेष्ट सी पड़ी शक्ति) की उपस्थिति थी और दूसरी कल्पनातीत
सूक्ष्मातिसूक्ष्म अपने आप ही में स्थिर स्वधा (सत्त्व, रजस व तमस की गुणहीन
अवस्था) थी। चारों तरफ युक्ति से भी नहीं जाना जा सकने वाले (अप्रेकतम्) गूढ़
अंधकार से ढकी प्रकृति अपने सलिल (कल्पना से भी अति सूक्ष्म तरल जैसे कणों की
शांत जैसी, किंतु परस्पर असंबद्ध) अवस्था में सर्वत्र व्याप्त थी। परमात्मा
द्वारा उत्पन्न हुए 'अर्वा' (तेज) को 'त्रित' (स्वधा) ने धारण (ग्रहण) किया
और इस प्रकार यह संघात घोर नाद (यद्दः ) करते हुए श्येन पक्षी की भाँति पंख
फैलाए और हिरण की गति की भाँति तीव्र से ऊपर अंतरिक्ष (उद्यतसमुद्राद्रुत्)
में आपः (अर्वा व स्वधा के संयोग से त्रित में उत्पन्न गुण-पदार्थ यानी वरुण,
मित्र व अर्यमा) में परिवर्तित होकर सर्वत्र फैल गई। इन उत्पन्न तीन बंधनवाले
आपः से अंतरिक्ष (समुद्र) में अर्वण (परमात्मा की शक्ति) ने ब्रह्मांड की
रचना प्रारंभ कर दी। इसी के द्वारा प्राकृतिक पदार्थों का शोधन किया गया,
जिससे कल्याणकारी जागतिक पदार्थ और तदनुसार वर्तमान परिस्थितियों का निर्माण
संभव हुआ। प्राकृतिक स्वरूप के तपने से (चामीद्धात्त्पसो) यह द्रष्टव्य जगत्
प्रकट होता है तथा शक्ति रहित होने पर इस सृष्टि का अंतरिक्ष में लय हो जाता
है और गूढ़ अंधकार जैसी रात्रि प्रकट (राज्जायत) हो जाती है।' 'ऋग्वेद' के इस
प्रसिद्ध नासदीय सूक्त को कविता की निम्नांकित पंक्तियों में बहुत ही सटीक
रूप में प्रस्तुत किया गया है-
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