भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
"तब न सत् था, न असत् ही,
न यह संसार था, न ये आकाश,
तब न मरण था, न अमरत्व ही,
रात्रि दिवा से पृथक् नहीं थी,
किंतु गतिशून्य वह स्पंदित हुआ था,
तब केवल वह था, जिसके परे
कोई अस्तित्व नहीं,
वही चराचर था।
तब तम में छिपकर तम बैठा था,
जैसे दूध में जल समाहित हो,
तब मानस के आदि बीज के रूप में प्रथम आकांक्षा उगी
तब शून्य में जो अप्रेकतम था,
वह तप की गरिमा से मंडित हुआ,
स्वतः सिद्ध सिद्धांत व सर्जनशक्ति से स्फुरित,
यह महिमा सर्जनमयी हुई,
असत् से सत् जनमा।"
(साभार-विवेकानंद साहित्य)
Then there was neither being nor not-being,
The atmosphere was not nor sky above it,
Then neither death or deathless existed,
Of day and night there was yet no distinction,
Darkness there was at first in darkness hidden,
The Universe was undistinguished water,
Then for the first time there arose desire,
Which was the primal germ of mind within it,
And thus from Nothing the Being flourshied.
(The Rigveda by Kaegi)
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