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भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

ओम प्रकाश पांडेय

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2684
आईएसबीएन :9789351869511

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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....


उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर सहज रूप से यह महसूस किया जा सकता है कि पाश्चात्य विद्वानों द्वारा घोषित उन तथाकथित डार्क एज के भी बहुत पहले के काल में भारतीय द्रष्टाओं ने मरूतों (मोलेक्यूल्स) से पूर्व के जिन तत्त्वों व शक्तियों की चर्चा की थी, एटम के विश्लेषणों तथा अंतरिक्ष-अनुसंधानों के अपने कार्यक्रमों द्वारा आधुनिक विज्ञान भी उन्हीं अवयवों को एक-एक करके उधेड़ने में लगा हुआ है। आश्चर्य है कि इन तुलनात्मक साम्यताओं के उपरांत भी पाश्चात्य विज्ञान भारतीय ग्रंथों में उद्घाटित तथ्यों को सामान्यतः मेटाफिजिकल या स्पिरिचुअल थॉट कहकर अमान्य कर देते हैं। निश्चित रूप से पाश्चात्य विज्ञान की इस नकारात्मक हठधर्मिता का मूल उद्देश्य अपनी श्रेष्ठता को आधुनिक समाज पर थोपना ही है, किंतु स्वतःपोषित इस बाल-प्रवंचना के कारण ही वह सत्य की अनदेखी करने के अवैज्ञानिक दोषों का भी भागीदार बन रहा है। पाश्चात्य विज्ञान अपनी गरिमा को बनाए रखे-इसके लिए अधिक तार्किक व न्यायसंगत यह होगा कि भारतीय द्रष्टाओं द्वारा अब तक सिद्ध किए गए तथ्यों को वैज्ञानिक कसौटी पर परखकर पूर्ण मान्यता देते हुए इसमें वर्णित आगे के संदर्भो को अपने मार्गदर्शन के साधन के रूप में अपनाने का प्रयास करे। प्राणी-कल्याण के लिए प्रकृति से सामंजस्य बनाए रखने के लिए भारतीय तत्त्वज्ञानियों ने 'तेन त्यक्तेन भुञ्जीथा' (त्याग की भावना से उपभोग करने) का निर्देश देते हुए विज्ञ पुरुषों से यह अपेक्षा की है कि वे अपने संयमित व दायित्वपूर्ण व्यवहार द्वारा अन्य शेष प्राणियों की सभी प्रकार से रक्षा करते रहें (विश्व वयुनानिविद्वान् पुमान् पुमांसं परि पातु विश्वतः -ऋग्वेद 6/75/14)। इसी भावना के अनुरूप ऋग्वेद के इस मंत्र 'स्वस्तिर मानुषेभ्यः ऊर्ध्वम जुगातु भेषजं सम्नो अस्तु द्विपदे सम चतुष्पदे ओऽम् शान्ति शान्ति शान्ति' द्वारा सभी मनुष्यों के समृद्ध होने, उनमें आपसी सद्भावना के विकास के साथ-साथ प्राणियों के प्रति करुणा का भाव जाग्रत् रहने तथा सभी जीव-जंतुओं में जीवन के आधार को फूलने-फलने देने के प्रयासों द्वारा असीम शांति की कामना भी की गई है। प्राकृतिक वातायन को पुष्टता प्रदान करने हेतु यज्ञों की परंपराएँ या फिर नदियों-वनस्पतियों के संरक्षण व संवर्द्धन के लिए इन्हें विभिन्न देवी-देवताओं से संबद्ध करने के प्रयास इसके कुछ ज्वलंत उदाहरण हैं। आधुनिक विज्ञान द्वारा इस भारतीय आशय की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति से वैज्ञानिक परंपराओं में एक ऐसे अध्याय का सृजन होगा, जो विज्ञान की क्षमताओं को दैवीय गुणों से परिपूर्ण कर देंगे। धार्मिक मतांधता के कारण महापुरुषों के चरित्रों के स्थान पर उनके चित्रों को अपनाने से फैली अकर्मण्यताओं व भौतिक ऊहापोह के कारण हो रहे अव्यवस्थित प्राकृतिक शोषणों, अनियंत्रित वायुमंडलीय प्रदूषणों तथा स्वकेंद्रित अभिलिप्साओं से उपजी विध्वंसक मानसिकता में आकंठ डूबे आज के इस आत्मघाती परिवेश में सृष्टि की निरंतरता को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए मानवता को विज्ञान से इसी सार्वभौमिक वात्सल्यता एवं सार्थक व्यावहारिकता की सतत अपेक्षा है।

प्राकृतिक संकुचनों के कारण व्योम में मँडरा रहे परिमंडलीय कणों के बादल (शकधूम या नेबुला) शनैः-शनैः स्वतः ऊर्जावान् चमकीले गोलों (हिरण्यगर्भ) में रूपांतरित होते गए। फिर तापनाभिकीय घनत्वों के कारण इनमें हुए आंतरिक विस्फोटों से मुख्य तारों के छिटके हिस्सों से विभिन्न ग्रहों का तथा इन्हीं से तारे विशेष का अस्तित्व उभरकर सामने आया। इसी प्रकार की एक घटना में आज से लगभग दो अरब वर्ष पूर्व सूर्य नामक तारे में हुए विस्फोट के कारण पृथ्वी आदि नौ ग्रहों का सौरमंडल अस्तित्व में आया। अपनी प्रारंभिक अवस्था में ये सभी ग्रहगण सूर्य की ही भाँति उत्तप्त पिंडों के रूप में रहे थे। मुख्य तारे (सूर्य) से अलग हो जाने के कारण धीरे-धीरे ठंडे होकर ये सभी ग्रहगण ठोस गोलों में परिवर्तित हो गए। इसी प्रक्रिया में ठंडी हो चुकी पृथ्वी पर वायुमंडलों के निर्माण के उपरांत उत्पन्न जलवायविक परिस्थितियाँ यहाँ जैविक उत्पत्ति का कारण बनीं। फेन, मृद, शुष्क, ऊसर, सिकेता, शर्करा, अश्मा, अयस आदि स्तरों से गुजरने के पश्चात् पृथ्वी अंततः वनस्पतियों से आच्छादित हो गई। इस प्रकार पृथ्वी पर जैविक गुणों से परिपूर्ण वनस्पतियों की उत्पत्ति के उपरांत अंडज, स्वेदज व जरायुज प्रकार के गर्भ के तहत विभिन्न जीव-जंतुओं व मानवों की सृष्टि संभव हो पाई।

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