भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
प्रस्तुत अध्याय में पृथ्वी के मूल स्वरूप तथा उसके बदलते धरातलों के कारण व
कारक सहित भूमि के गर्भ से उत्पन्न हुए उद्भिजों, कीट-पतंगों, पशु-पक्षियों व
मानवों की प्रथम पीढ़ी का प्रमाण सहित विश्लेषण किया गया है।
पृथ्वी व प्राणी-उद्भव
अपने खगोलीय अध्ययनों द्वारा आधुनिक विज्ञान यह उद्घाटित कर चुका है कि
अंतरिक्ष में व्याप्त कॉस्मिक धूल कणों से बने नक्षत्रों में हुए तापनाभिकीय
विस्फोटों के कारण ही पृथ्वी आदि ग्रहों का आविर्भाव हुआ था। इसी से
मिलती-जुलती भारतीय मान्यता यह है कि हिरण्यगर्भ के अतिशय पककर फटने पर
तेजोमय धुलोक (सूर्यादि नक्षत्र) तथा उत्तप्त पिंड (पृथ्वी आदि ग्रह)
पृथक्-पृथक् अस्तित्व में आए थे और इनके अलग होने से खाली हुए बीच के भाग में
शाश्वत आठ-पूरब, ईशान कोण (पूर्वोत्तर), उत्तर, वायव्य कोण (पश्चिमोत्तर),
पश्चिम, नैऋत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम), दक्षिण व अग्निकोण
(दक्षिण-पूर्व)-दिशाओं वाला व्योम (अंतरिक्ष) उभरकर दिखाई पड़ने लगा था
(ताभ्यां सा शकलाभ्यां च दिवं भूमिं च निर्ममे, म य व्योम दिशाश्चष्टावपां
स्थानं च शाश्वतम्)। पृथ्वी आदि ग्रहों के मूल स्वरूप को लेकर भी भारतीय
शास्त्र एवं आधुनिक विज्ञान का अभिमत एक जैसा ही रहा है। दोनों अवधारणाएँ यह
मानती हैं कि हिरण्यगर्भ या स्वतः ऊर्जावान चमकीले गोले से अलग हुए ग्रह अपने
मूल स्वरूप में अत्यंत उत्तप्त वायव्य पिंडों के रूप में ही रहे थे। ये सभी
ग्रह अपने निकटवर्ती ऊर्जावान तारों के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव में आकर निश्चित
गति से उस तारे-विशेष का चक्कर लगाते हुए धीरे-धीरे ठंडे होकर ठोस गोलों में
परिवर्तित हो गए। उत्तप्त पिंड से ठंडे होने की प्रक्रिया के दौरान हुए
भूगर्भीय परिवर्तनों के कारण ग्रहों के धरातल कई बार ऊपर उठे तथा कई बार नीचे
दबे। पृथ्वी की पर्वत श्रेणियाँ, पठारों के उन्नत स्थल तथा सागर व महासागरों
की गहराइयाँ इन्हीं भूगर्भीय संकुचनों के परिणाम रहे हैं। यही नहीं, आए दिन
ज्वालामुखियों का लावा उगलना, भू-कंपन की अनवरत घटनाएँ, प्रायद्वीपों व
द्वीपसमूहों का सागर में उभरना, महाद्वीपों का धीरे-धीरे खिसकना आदि यह
प्रमाणित करते हैं कि भूगर्भीय परिवर्तनों का यह दौर निश्चित रूप से अभी तक
थमा नहीं है। भूगर्भीय व धरातलीय बनावटों तथा उन पर पाए गए जीवाश्म अवशेषों
के आधार पर पृथ्वी व इसपर रह चुके या रहनेवाले प्राणियों के विषय में
निष्कर्ष निकालना मानवों के लिए सृष्टि की गूढ़ परतों को उधेड़ने की तुलना
में अपेक्षाकृत अधिक सहज रहा है। भारतीय द्रष्टाओं द्वारा सदियों पूर्व
उद्घाटित तथ्यों के अतिरिक्त आधुनिक भूगर्भशास्त्रियों तथा जीवविज्ञानियों
द्वारा भी इस विषय में विविध शोध किए गए। प्रक्रियागत विविधताओं के उपरांत भी
इन शोधों का परिणाम काफी हद तक एक जैसा ही रहा है। भूगर्भशास्त्रियों के
शोधों के आधार पर तैयार की गई 'प्रिंसीपल ऑफ फिजिकल ज्योग्राफी' नामक पुस्तक
में पृथ्वी को अस्तित्व में आए अब तक का समय जहाँ कुल दो अरब वर्ष माना गया
है, वहीं भारतीय शास्त्रों में वर्णित मन्वंतरों के हिसाब से भी इसकी अब तक
(अप्रैल, 2003) की आयु इसी के आस-पास (1,97,29,49,104 वर्ष) ही बनती है।
पृथ्वी के भूगर्भीय परिवर्तनों व तदनुसार निर्मित चट्टानों एवं इनमें पाए गए
जीवाश्म-अवशेषों के आधार पर भूगर्भशास्त्रियों व जीव-विज्ञानियों ने पृथ्वी
के अब तक के व्यतीत कालखंडों को कुल चार महाकालों में बाँटा है। पहला महाकाल
इयोजोइक या आर्चयोजोइक काल (Eozoic or Archaeozoic Era) के रूप में जाना जाता
है, जिसकी कुल अवधि डेढ़ अरब वर्ष (वर्तमान समय से लगभग दो अरब वर्ष से लेकर
पचास करोड़ वर्ष पूर्व तक) मानी गई है। हालाँकि इस युग (आद्यजीव महाकल्प) के
विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता है, परंतु इतना अनुमान तो
लगाया ही गया है कि पृथ्वी की प्राचीनतम शैले, समुद्रीय उद्भिज तथा एककोषीय
जीव इसी काल में अस्तित्व में आए थे। दूसरा पैलियोजोइक काल (Palaeozoic Era)
की अवधि पचास करोड़ वर्ष पूर्व से लेकर बीस करोड़ वर्ष पूर्व तक आँकी गई है।
भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार इस काल (पुराजीव महाकल्प) में दक्षिण भारत,
दक्षिण अफ्रीका, दक्षिण अमेरिका व ऑस्ट्रेलिया के भू-भाग परस्पर मिले हुए थे।
आज भी यहाँ की जलवायु, वनस्पतियों तथा पशु-पक्षियों में काफी हद तक समानताएँ
पाई जाती हैं। मेरुदंडीय प्राणियों का सर्वप्रथम आविर्भाव इसी युग में हुआ
था। पेड़-पौधों व मछलियों से लेकर जल-स्थलचारी सरीसृप नस्ल के प्राणियों की
उत्पत्ति भी इसी काल में हुई थी। मेसोजोइक (Mesozoic) नामक तीसरे काल की अवधि
बीस करोड़ वर्ष पूर्व से प्रारंभ होकर सात करोड़ वर्ष पूर्व तक मानी गई है।
इस काल (मध्यजीव महाकल्प) में हुए भूगर्भीय परिवर्तनों के कारण पृथ्वी के
दक्षिणी भूखंड के बीच का एक बहुत बड़ा हिस्सा समुद्र में डूब गया। इस
परिवर्तन के कारण संयुक्त से रहे पृथ्वी के इस हिस्से में भारत, अफ्रीका,
ऑस्ट्रेलिया, दक्षिणी अमेरिका आदि अलग-अलग महाद्वीप एवं बहुत सारे
द्वीप-प्रायद्वीप उभरकर सामने आए। भूगर्भशास्त्री जल में डूबे बीच के इस बड़े
भूखंड को लैमूरिया कहते हैं। हालाँकि इस काल के प्रथम पाँच करोड़ वर्षों तक
पृथ्वी पर पड़े भयंकर ताप के कारण अधिकतर प्राचीन प्राणी नष्ट हो गए, किंतु
बाद में परिस्थितियाँ अनुकूल होने पर भीमकाय स्तनपायी प्राणियों से लेकर
उड़नेवाले परदार विशालकाय सर्प आदि भी इसी काल में पैदा हुए। मछलियों,
सरीसृप, डाइनासोर आदि की उत्पत्ति का काल भी यही माना जाता है। चौथा और इस
कड़ी का अंतिम खंड सिनोजोइक काल (Cainozoic Era) नाम से जाना जाता है। इस काल
(नवजीव महाकल्प) का आरंभ आज से सात करोड़ वर्ष पूर्व हुआ था। इस काल को दो
भागों-टर्शियरी (Tarsiary) यानी सात करोड़ वर्ष पूर्व से लेकर डेढ़ करोड़
वर्ष पूर्व तक की अवधि तथा क्वार्टर्नरी (Quarternary) यानी डेढ़ करोड़ वर्ष
पूर्व से लेकर आज तक की अवधि में बाँटा गया है। पूर्व में हुए भौगोलिक
परिवर्तनों के कारण टर्शियरी युग में भारत की अरावली शृंखला का
उत्तरी-पश्चिमी भू-भाग (वर्तमान राजस्थान, कराची आदि) समुद्र में डूबा हुआ था
तथा लैमूरिया भू-भाग जलमग्न होने के कारण विंध्य से दक्षिण में सागर हिलोरें
ले रहा था। 'ऋग्वेद' के दसवें मंडल में वर्णित पूरब व पश्चिम का समुद्र
किंचित् इन्हीं स्थितियों की ओर संकेत करता है। ‘मनुस्मृति' (224) तो
आर्यावर्त की सीमाओं का जिक्र करते हुए इसे दो पर्वतों (हिमालय और विंध्याचल)
तथा पूर्व (बंगाल) व पश्चिम (राजस्थान) के दो समुद्रों से घिरा हुआ घोषित
करता है (आ समुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्राच्च पश्चिमात् तयोरेवान्तरं
गिर्योरार्यावर्त विदर्बुधा)। भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार, आज से 60-70 लाख
वर्ष पूर्व, 40" से लेकर 50° उत्तरी अक्षांश के मध्य स्थित यूरेशिया
(Euro-Asia) का संपूर्ण भू-भाग जलप्लावित रहा था। पश्चिम-दक्षिणी यूरोप से
लेकर मध्य-पूर्व एशिया तक फैले टेथिस (Tethys) नामक इस सागर के कारण अंध
(Atlantic) व प्रशांत (Pacific) महासागर के छोर आपस में मिले हुए थे।
मध्यनूतन काल (मयोसीन-Miocene Period) में धरातलीय परिवर्तनों से अस्तित्व
में आए आल्प्स, कार्पेथियन, बाल्कन, कॉकेशस-अल्ताई आदि पर्वत-शृंखलाओं के
परिणामस्वरूप टेथिस सागर का विस्तृत आकार शनैः-शनैः सिकुड़ता ही नहीं चला
गया, बल्कि सतही उभार के कारण कई खंडों में बँट भी गया। तदंतर सारमैटिक
(Sarmatic), मेयोटिक (Maectic), पॉण्टियन (Pontian), कैरेनगेट (Karangat) व
नियोक्सिनियन (Neoeuxinian) नामक सागरों व झीलों में विभाजित हुए टेथिस बेसिन
से ही आधुनिक भूमध्य सागर, काला सागर, अजोव सागर, कश्यप सागर, कारा बोगाज व
अरल सागर समेत वालकश व वेकाल नामक बड़ी झीलों का अस्तित्व उभरकर सामने आया।
समुद्र-तलों पर पाए गए तलछटों के आधार पर निकाले गए निष्कर्षों के
परिप्रेक्ष्य में 'The Alpha and the Omega' नामक अपनी प्रसिद्ध कृति में Jim
A. Cornwell भी इन्हीं तथ्यों की पुष्टि करते हैं (Major crust movements led
to mountain-building in the Miocene Age i.e. 5 to 7 million years age. As
a result of formation of the Alps, the Carpathians, the Caucasus and the
Altai mountain regions the Tethys Sea shrunk in size and later divided
into number of brakish basins. One of them, the Sarmatic sea, stretched
from the present location of Vienna to the foothills of the Tien-Shan
Mountains and included the modern Black Sea, the Azov Sea, the Caspian Sea
and the Aral Sea)। सिनोजोइक काल (नवजीव महाकल्प) के उत्तरार्ध (क्वार्टर्नरी
युग) को पुनः प्लेइस्टोसीन (Pleistocene यानी अभिनूतन) तथा होलोसीन (Holocene
यानी सर्वनूतन) नामक दो उपखंडों में बाँटा गया। प्लेइस्टोसीन अवधि में हुए
भूगर्भीय संकुचनों के कारण मध्य भारत के विंध्य पर्वत के उन्नत शिखर छोटे
होते चले गए और उत्तर में विशाल पर्वत क्षेत्र हिमालय धरती से बाहर निकलकर
आया। इन अभूतपूर्व भौगोलिक परिवर्तनों के कारण जल में डूबा हुआ लैमूरिया का
कुछ हिस्सा (दक्षिण का बड़ा भाग) भी सिकुड़कर विंध्य क्षेत्र से जुड़ गया,
जिससे भारत का यह वर्तमान स्वरूप अस्तित्व में आया। कालक्रम में हुए अनवरत
भौगोलिक व जलवायविक परिवर्तनों के कारण सिनोजोइक काल के पूर्वार्द्ध में ही
अधिकतर प्राचीन प्राणी नष्ट हो गए थे, परंतु बाद के प्लायोसिन युग मे नवीन
प्राणियों (वानरों व वनमानुषों सहित प्रकृति की अनुपम कृति मानवों) के
प्रादुर्भाव के कारण इस कालखंड का अपना एक विशेष महत्त्व है।
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