भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
इस प्रकार पृथ्वी के व्यतीत कालखंडों का खाका खींचने के बाद विद्वानों का
ध्यान प्राणी-उत्पत्ति पर गया। प्राणी-उत्त्पति विषयक मान्यताएँ सतत
अस्तित्ववाद, विशिष्ट सृजनवाद, महाप्रलयवाद, विकासवाद आदि मतांतरों के कारण
हमेशा से विवादित रही हैं। सतत अस्तित्ववाद जहाँ प्राणियों का उद्भव
प्राकृतिक स्रोतों से मानता है, वहीं परंपरागत आस्थाओं पर आधारित होने के
कारण विशिष्ट सृजनवाद की मान्यताएँ अलग-अलग विश्वासों के साथ विभिन्न
सभ्यताओं में रची-बसी हैं। इसी तरह महाप्रलयवाद का सिद्धांत प्रत्येक प्रलय
(गंभीर प्राकृतिक उथल-पुथल) के बाद प्राणियों की नूतन उत्पत्ति की कल्पना
करता है। इन्हीं क्रमों में प्राणी-उत्पत्ति के स्रोत पर चार्ल्स डार्विन ने
सन् 1856 में प्रकाशित 'Origin of Species' (प्रजातियों की उत्पत्ति) व तदंतर
प्रकाशित 'Descent of Man' (मानव का अवतरण) नामक अपनी पुस्तकों में विकासवाद
के सिद्धांतों को प्रतिपादित किया। इस सिद्धांत के अनुसार, एककोशीय प्राणियों
से कोषाणु-समूह बने, फिर ये कोशाणु-समूह मछली, पक्षी, पशु व वानरों के क्रम
से विकास करते हुए मानवों में परिवर्तित हो गए। वस्तुतः डार्विन का विकासवाद
मानव-गर्भ में पलनेवाले भ्रूण की उत्तरोत्तर वृद्धि के विभिन्न रूपों में भी
अनुभूत किया जा सकता है। चिकित्साशास्त्र के अनुसार मानव-गर्भ में संयोजित
होनेवाले भ्रूण को पूर्ण शिशु के रूप में उभरने से पूर्व एक कोशिकाई (Amoeba)
के क्रम से जलीय (घोंघे, सीपी, मछली आदि), उभयचर (Amphibia), सरीसृप व
स्तनपायी (बंदर, वनमानुष आदि) की विभिन्न अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है।
विकासवाद का यह भी मानना है कि मानव-प्रजातियों में भी आदि मानव से लेकर
आधुनिक मानवों में परिस्थिति के अनुरूप आकार-प्रकार का विकास होता रहा है।
डार्विन का यह सिद्धांत जीवन-संघर्ष, योग्यतम अतिजीविता, आनुवंशिकता, वातावरण
की अनुकूलता तथा नवउत्पत्ति की अवधारणाओं पर आधारित रहा। विकासवाद यह तो कहता
है कि एककोशीय प्राणी ही जीव-निर्माण व तदनुसार प्राणी-विकास के कारक थे;
किंतु इस प्रथम प्राणी के निर्माण के विषय में वह कुछ भी कहने में असमर्थ है।
इसी तरह विकास के प्रतिपादित क्रमों (मछली से लेकर पशु-पक्षी) या फिर वानरों
से मानव-उत्पत्ति की घटनाओं में से एक का भी अरसे से पुनः न चरितार्थ होना भी
इसे वैज्ञानिक कसौटी पर अमान्य कर देता है। इन सभी दोषों के पश्चात् भी मानवी
इतिहास को निर्धारित करने के लिए पाश्चात्य जीवविज्ञानियों ने कमोबेश डार्विन
के विकासवाद के इस कपोल कल्पित सिद्धांत को ही अपना आधार बनाया।
विकासवाद से अभिभूत जीवविज्ञानियों ने अब तक पाए गए मानव-जीवाश्म अवशेषों के
आधार पर आदि-मानव से लेकर कालक्रम के भौगोलिक व जलवायविक उतार-चढ़ाव में नष्ट
तथा पैदा हुई मानवी-संततियों को तीन मुख्य भागों में विभाजित किया है।
आद्य-मानव को अब से छब्बीस लाख से लेकर उन्नीस लाख वर्ष पूर्व की उत्पत्ति
मानते हुए इन्हें प्रोटोन्थ्रोपिक (आद्य मानव) समूह में रखकर
प्लेसियान्थ्रोपस (मानवाभ-वानर), पिथेकान्थ्रोपस (जावा-मानव), सिनान्थ्रोपस
(चीनी-मानव) व इयोन्थ्रोपस (उषा-मानव) के क्रमों में बाँटा गया। इसी प्रकार
पालियान्थ्रोपिक समूह के मानवों को अब से चालीस हजार वर्ष पूर्व तक का मानकर
क्रमशः नियंडर्थल, पेलेस्टाइन, रोडेशियन तथा सोलो मानवों की श्रेणियों में
वर्गीकृत किया गया। उषा मानव तीसरा समूह (नियोन्थ्रोपिक के क्रोमैग्नन और फिर
होमोसैपियन) को आधुनिक मानवों का पूर्वज मानते हुए इनके संभावित आविर्भाव को
आज से बीस से लेकर पच्चीस हजार वर्ष पूर्व के बीच का माना गया। तदनुसार
होमोसैपियन मानव के प्रादुर्भाव से लेकर अब तक के व्यतीत कालखंडों को
पाश्चात्य विद्वानों द्वारा पुरापाषाण (ई. पू. बीस से दस हजार वर्ष),
मध्यपाषाण (ई. पू. दस से छह हजार वर्ष), नवपाषाण (ई. पू. छह से साढ़े चार
हजार वर्ष), ताम्र व कांस्य युग (ई. पू. साढ़े चार से एक हजार वर्ष), लौह युग
(ई.पू. एक हजार वर्ष से सन् 1698 के भाप इंजन के आविष्कार तक), मशीन युग
(सोलहवीं शताब्दी से वर्ष 1944-46 में आविष्कृत कंप्यूटर तक) व कंप्यूटर
युगादि (बीसवीं शताब्दी) में बाँटकर मानवी सभ्यता के इतिहास को सूचीबद्ध करने
का प्रयास किया गया। इसकी कोई संभावना नहीं है कि जीवाश्म-अवशेषों के कालगत
परीक्षण में कहीं कोई त्रुटि रही होगी, किंतु निश्चित रूप से यह तो नहीं कहा
जा सकता है कि पाया गया सबसे पुराना जीवाश्म प्रथम आद्य-मानव का ही रहा होगा
या फिर धरती के सभी स्थानों में उत्खनन की प्रक्रियाओं को अंजाम दिया जा चुका
है। हाल ही में भारत में गोरखपुर, चेन्नलूर तथा बिलोचिस्तान के नाल क्षेत्र
में हुई खुदाई से प्राप्त जीवाश्म के बारे में पुरातत्त्वविदों की धारणाएँ
तीस से पैंतीस लाख वर्ष पूर्व की बनती हैं। इसी प्रकार अमेरिका के येल
विश्वविद्यालय के नृतत्त्वशास्त्री प्रो. इ.एल. साइमंस ने हिमालयी उपत्यका से
एक करोड़ चालीस लाख वर्ष पूर्व की जिन मानव अस्थियों की खोज की है, उसकी
सत्यता की पुष्टि सन् 1964 के अमेरिकी विज्ञान परिषद् की कार्यवाही में भी की
जा चुकी है। इन पुराने जीवाश्मों की खोज के उपरांत तो आद्यमानव से अब तक का
निकाला गया पाश्चात्य का मात्र 26 लाख वर्ष का श्रेणीबद्ध गणित स्वतः ही
गड़बड़ा जाता है। भूगर्भशास्त्री इस बात की पुष्टि करते हैं कि विभिन्न
काल-खंडों में पृथ्वी पर लंबी उष्णताओं व जलप्लावन की घटनाओं के साथ समशीतोषण
कटिबंधों में हिम व अंतर्हिम युगों का, तो उष्ण-कटिबंधों में वृष्टि व
अंतर्दृष्टि युगों का अनवरत दौर चलता रहा है। भारतीय शास्त्रों में इस प्रकार
की प्राकृतिक आपदाओं की घटनाओं को युगांतर व नित्य प्रलय की संज्ञाएँ दी गई
हैं। इन प्राकृतिक व भूगर्भीय उथल-पुथल के कारण अधिकतर वनस्पतियाँ, पशु-पक्षी
व मानव प्रजातियाँ भी समय-समय पर नष्ट होती रही हैं। अतः इन संभावनाओं को भी
नकारा नहीं जा सकता है कि भूगर्भीय उलट-फेर में अब तक पाए गए जीवाश्मों से
कुछ पुराने जीवाश्म इन प्राकृतिक आपदाओं में नष्ट भी हो गए होंगे। 'महाभारत'
में इस प्रकार के कुल 195 घटित युगांतर प्रलयों का जिक्र किया गया है, जो
पृथ्वी-उत्पत्ति से अब तक व्यतीत हुए मन्वंतर व महायुग कालीन प्रलयों के
हिसाब से ही नहीं, बल्कि भूगर्भशास्त्रियों द्वारा उद्घाटित तथ्यों के अनुरूप
भी लगभग ठीक ही बैठते हैं।
उपर्युक्त वर्णित हिमयुगों के खगोलीय कारणों पर इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका
के खंड-18 में विधिवत चर्चा की गई है। इसके अनुसार, अपनी धुरी पर लटू की
भाँति घूमती हुई पृथ्वी 2372 अंश का झुकाव बनाकर घूम भी रही है। पृथ्वी को
अपने इस झुकाव के साथ झूमते हुए चक्कर को पूरा करने में कुल छब्बीस हजार वर्ष
लगते हैं। झूमने की इस प्रक्रिया के कारण पृथ्वी के उत्तरी ध्रुव का सूर्य के
उन्मुख तथा विपरीत झुकाव प्रति तेरह हजार वर्ष के क्रम से पड़ता रहता है।
उत्तरी ध्रुव का झुकाव जब सूर्य के विपरीत रहता है तो तापन्यूनता के कारण
पृथ्वी का उत्तरी गोलार्द्ध (साइबेरिया, रूस, यूरोप, ब्रिटेन, ग्रीनलैंड,
कनाडा सहित उत्तरी अमेरिका के भू-भाग) हिमाच्छादित हो जाता है और चरम अवस्था
में यहाँ बर्फ की परतें धरातल से पंद्रह हजार फीट की ऊँचाई तक पहुँच जाती
हैं। इसी तरह उत्तरी ध्रुव के झुकाव के सूर्य के सन्मुख आने की स्थिति में
सौर-ऊष्माओं के प्रभाव से उत्तरी गोलार्द्ध की बर्फ धीरे-धीरे पिघल जाती है
और यह मानवों के रहने योग्य बन जाता है। पिघली हुई इसी बर्फ के कारण सागरों
के जल-स्तरों में बढ़ोतरी, फिर जलवायविक उष्णता से हुए वाष्पीकरण के कारण
अतिवृष्टि द्वारा जलप्लावनों का संयोग बनता है। समुद्र-तलों से प्राप्त
तलछटों के परीक्षणों व तीस लगातार वर्षों तक किए गए अपने भूगर्भीय अध्ययनों
के उपरांत विलियम रेयन (William Ryan, a Marine geologist of Columbia
University) एवं वाल्टर पिटमैन (Walter Pitman, Scientiest of Lamont-Doherty
Earth Observatory of Palisades, New York) संयुक्त रूप से इस निष्कर्ष पर
पहुँचे हैं कि आज से 20,000 वर्ष पूर्व, हिमयुगी पराकाष्ठा के काल में समुद्र
का जल-स्तर वर्तमान स्थिति की तुलना में जहाँ 400 फीट से भी अधिक नीचे रहा
था, वहीं पृथ्वी के 50° उत्तरी अक्षांश (Latidue) से ऊपर का संपूर्ण भू-भाग
सघन हिम से आच्छादित रहा था। रेयन व पिटमैन के अनुसार, 18,000 वर्ष पूर्व
पृथ्वी के तापक्रमों में अकस्मात् हुई वृद्धि के कारण उत्तरी गोलार्द्ध में
जमे हिमखंडों के तीव्रता से पिघलने के परिणामस्वरूप यहाँ के छिछले भू-भाग में
जहाँ स्थिति के अनुरूप बाढ़ की त्रासदियों का अनवरत क्रम प्रारंभ हुआ, वहीं
समुद्र के जल-स्तरों में भी शनैः-शनैः स्वाभाविक उछाल आता गया। इस आधार पर
आपदाओं का यह क्रम भी हर तेरह हजार वर्ष के अंतराल पर घटता ही रहता है। चूंकि
पाश्चात्य मान्यताओं के अनुसार आधुनिक मानवों को आज से पच्चीस हजार वर्ष
पूर्व से लेकर बीस हजार वर्ष पूर्व के मध्य उत्पन्न तथा जल-प्रलय की
विभीषिकाओं को झेल चुके आदिमानव प्रजातियों (होमोसैपियनों) की शृंखलाओं की ही
वर्तमान कड़ी माना गया है, अतः यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि यूरोपीय
भूखंड में पिछले हिमयुग की आपदा को बीते भी लगभग इतने ही वर्ष हुए होंगे
(Carbon dating of Sediments layers suggest that deluge actually starts
long before the popularly accepted period of Noah's flood i.e. back during
the last great glaciation some 18,000 years ago. Ref.—"Noah's Flood - The
New Scientific Discoveries about the event that change History" by William
Ryan & Walter Pitman)।
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