भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विंध्यांचल तथा पूर्वी ढलान की भौगोलिक बनावटों
के कारण संपूर्ण पृथ्वी में केवल भारत का मध्य प्रांत ही हिम तथा जलप्लावन की
इन प्राकृतिक आपदाओं से अपेक्षाकृत कम प्रभावित रहा है। शायद इसीलिए युगांतर
प्रलयों के उपरांत भी सभी हिमालय मन्वंतरों में यहाँ प्राणियों के यथावत् बने
रहने की उद्घोषणा भारतीय शास्त्रों में की गई है (यदिदं भारतवर्ष
यस्मिनुस्वायंभुवादयः चतुर्दशैते मनवः प्रजासर्गे भवन्त्युत-वायुपुराण-45.
69)। अपनी इस अद्भुत भौगोलिक पृष्ठभूमि के कारण ही प्राणी-उत्पत्ति के मामले
में भारत का दृष्टिकोण सदैव ही पाश्चात्य मान्यताओं से भिन्न रहा है। इस
भौगोलिक आधार पर भारतीय द्रष्टाओं को सर्वकालिक पुरातन तथा इन आद्य प्राकृतिक
घटनाओं का प्रत्यक्षदर्शी मानते हुए, उनके श्रुतियों के परिप्रेक्ष्य में
पृथ्वी तथा मानवी उद्भवों का आकलन करना किंचित् कहीं अधिक ठोस तथा तर्कपूर्ण
प्रतीत होता है।
भारतीय अवधारणाओं के अनुसार, सृष्टि-उत्पत्ति से लेकर अब तक व्यतीत कालखंडों
को सात विभिन्न नामवाले मन्वंतरों में बाँटा गया है। खगोलीय कालगणना के हिसाब
से प्रत्येक मन्वंतर की अवधि 30,85,71,429.9 वर्ष की होती है। इस तरह का पहला
मन्वंतर स्वयंभुवः नाम से हुआ था, जिसमें हिरण्यगर्भ अस्तित्व में आया था।
दूसरे मन्वंतर में हिरण्यगर्भ (स्वयंभुव) के फटने से सूर्य, पृथ्वी आदि प्रकट
हुए। हिरण्यगर्भ के फटने से हुए नाद-घोष के कारण इस मन्वंतर को स्वरोचिष नाम
से पुकारा गया। तीसरे मन्वंतर उत्तम में उत्तप्त ग्रहपिंडों व नक्षत्रों के
चमक के कारण अंतरिक्ष में दुग्ध-मेखला का मनोहारी परिदृश्य उपस्थित हुआ था।
इसके साथ ही ग्रहों से अलग हुए पिंडों से उपग्रह आदि भी बने थे। कुछ वर्ष
पूर्व तक वैज्ञानिकों की भी यह धारणा रही थी कि चंद्रमा ही मूलतः पृथ्वी से
अलग हुआ था। अमेरिका (नासा) के चंद्र (अपोलो) व मंगल (पाथ फाइंडर एवं
अपॉरच्युनिटी) अभियानों के दौरान हुए शोधों से अब यह स्पष्ट हो गया है कि
चंद्रमा के विपरीत मंगल की मिट्टी ही पृथ्वी से मिलती-जुलती (ऑस्ट्रेलियाई
मिट्टी के अनुकूल) है। भारतीय शास्त्रों में तो सदियों पूर्व से ही कुजा
(मंगल) को पृथ्वी का पुत्र (भूमिसुत) माना जाता रहा है, जो उद्घाटित किए गए
वैज्ञानिक निष्कर्षों के अधिक नजदीक दिखता है। चौथे मन्वंतर में उत्पत्त
ग्रहपिंड धीरे-धीरे ठंडे होने लगे और इनकी चमक लुप्त होने से इनकी सतह पर
अंधकार व्याप्त होता गया। इस कारण से इसे तामस कहा गया। पाँचवें मन्वंतर में
जल तथा वायुमंडलों की रचना और तदनुसार जलीय उद्भिजों की उत्पत्ति के कारण
इसका नाम रैवत पड़ा। छठे मन्वंतर में पृथ्वी के जलमग्न हो जाने पर जीवकारक
सोम वनस्पति (वैज्ञानिक भाषा में पोलिमर) अस्तित्व में आए। यह चाक्षुष
मन्वंतर कहलाया। विवस्वान अर्थात् सूर्य के ताप के प्रभाव से सातवें मन्वंतर
में पृथ्वी का भू-भाग जल से बाहर निकला। इस भू-भाग का आकार चूँकि कमल-दल के
सदृश्य रहा था, अतः पौराणिक चित्रों की रचना करते समय देवी-देवताओं, विशेषकर
ब्रह्मा के आसन के रूप में खिले हुए कमल के फूलों को ही चित्रित किया जाता
है। इस प्रकार भू-भाग उभरने के पश्चात् ही प्राणी-अनुकूल परिस्थितियों का
निर्माण हुआ था। विवस्वान की इस भागीदारी के प्रतीकस्वरूप सातवें मन्वंतर का
नाम वैवस्वत मन्वंतर पड़ा। भारतीय मान्यताओं के अनुसार इस खगोलीय मन्वंतर को
प्रारंभ हुए (43,20,000 वर्ष अवधि प्रत्येक के हिसाब से) सत्ताईस महायुग बीत
चुके हैं और चल रहे अट्ठाईसवें महायुग में भी अब तक 38,93,100 वर्ष (अब तक इस
खगोलीय मन्वंतर के कुल 12,05,33,100 वर्ष के लगभग) व्यतीत हो चुके हैं।
भारतीय मान्यता मूलतः सतत अस्तित्ववाद (प्राकृतिक सृजन) के सिद्धांत पर
आधारित है। इसके अनुसार वैवस्वत मन्वंतर के प्रथम नौ महायुगों में ही पृथ्वी
अपने विभिन्न नौ स्वरूपों को धारण करके प्राणी-सृष्टि को उद्यत हुई थी। जल से
बाहर निकली पृथ्वी का पहला स्वरूप फेन जैसा आर्द्र था। तत्पश्चात् यह मृद
यानी कीचड़-मिट्टी में परिवर्तित हुई। फिर जल के पूर्णतः सूखने पर इसका धरातल
शुष्क हो गया। अतिशय शुष्क हो जाने के कारण ही इसका चौथा स्वरूप ऊसर जैसा रहा
था। पाँचवें रूप में यह रेत (सिकता) जैसा दिखने लगा। इसके बाद इसका धरातल
कंकड़ों (शर्करा) से पट गया। सातवें क्रम में शर्करा से यह पत्थरों (अश्मा)
में परिवर्तित हो गई। इसका आठवाँ स्वरूप लौह-स्वर्ण आदि धातुओं (अयः
हिरण्यम्) के बनने का रहा। इस क्रम के अपने अंतिम (नौवें) स्वरूप में अब तक
प्रायः गंजी सी दिखनेवाली पृथ्वी वनस्पतियों, औषधियों आदि से पूर्णतः
आच्छादित हो गई (स श्रान्तस्तेपानः फेनम सृजत स मृदं शुष्का पयूष-सिक्तं
शर्कराम् अश्मानम् अयो हिरण्यम्-औषधि-वनस्पति-असृजत, तेनेमां पृथिवीं
प्राच्छादयत ता वा एता नव सृष्टयः-शतपथ ब्राह्मण-6/1/11/13-14)।
इस प्रकार वैवस्वत मन्वंतर के प्रथम आठ महायुगों के उपरांत जलवायु का, अनुकूल
परिस्थितियों का निर्माण हो जाने पर पृथ्वी पर औषधि, वनस्पति, लता, त्वकसार,
बीरूध व द्रमुक-छह प्रकार के उद्भिजों, अंडज व स्वेदज-दो प्रकार के तिर्यक
योनियों (कीट-पतंग-पक्षी-पशु) तथा मानवों (जरायुज) समेत कुल नौ प्रकार की
जैविक उत्पत्तियाँ हुईं। ये सभी रचनाएँ अपने उद्भव के समय से ही अपने आप में
संपूर्ण तथा योनियों के आधार पर विभाजित रही थीं। प्राकृतिक आपदाओं से किसी
तरह बचे रहे ये उत्तरजीवी अपने उसी आद्य स्वरूप में आज भी विद्यमान हैं।
वर्णित संदर्भों से यह तो पता चल ही गया है कि प्रति तेरह हजार वर्ष के
क्रमिक अंतराल पर होने वाली घोर प्राकृतिक आपदाओं के अलावा युगों/महायुगों के
प्रारंभ पर सातों ग्रहों /सूर्यों के एक स्थान पर एकत्र होने से पृथ्वी पर
भयंकर प्रलयंकारी घटनाएँ घटती रहती हैं (युगान्तकाले संप्राप्ते
कालाग्निर्दहते जगत्-महाभारत वनपर्व-273.35)। इन युगांतर तथा नित्य प्रलयों
के कारण संसार के स्थावर व जंगम-सभी प्रकार के प्राणी नष्ट हो जाते हैं। यह
एक प्रकार से महाप्रलयवाद के सिद्धांत की ही पुष्टि करता है। भारतीय
मान्यताओं के अनुसार, अब तक ब्रह्मा (आदि पुरुष) के कुल सात जन्म हो चुके
हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि पृथ्वी पर मानवों की प्रथम उत्पत्ति से लेकर
अब तक के काल में सात युगांतर प्रलय की घटना हो चुकी हैं। यह मानकर कि प्रति
महायुग में सृष्टि का प्रारंभ ब्रह्मा से हुआ था, वर्तमान (वैवस्वत मन्वतंर
के अट्ठाईसवें महायुग) से पीछे की ओर गणना करके यदि आदि ब्रह्मा का काल
निकाला जाए तो वह तीन करोड़ इकतालीस लाख तैंतीस हजार वर्ष पूर्व (बाईसवें
महायुग) का बैठता है। ये तथ्य वैज्ञानिकों द्वारा 'कंप्यूटर सिमुलेशन' से
प्रतिपादित करोड़ों वर्ष के मानव-उत्पत्ति विषयक सिद्धांत के अनुरूप भी लगभग
ठीक ही बैठते हैं। भारतीय शास्त्रों में जिस महाप्रलय का संदर्भ आया है, वह
वर्तमान महायुग (वैवस्वत मन्वंतर के अट्ठाईसवें महायुग) के प्रारंभ की घटना
रही थी। चूँकि अब तक पाए गए जीवाश्म एक करोड़ चालीस लाख वर्ष पूर्व के आस-पास
का संकेत देते हैं, अतः यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण कदापि नहीं होगा कि पृथ्वी
पर मानवों की प्रथम उत्पत्ति किंचित् इस मन्वंतर के बाईसवें महायुग के अंतिम
चरण (आदि-ब्रह्मा का समय जो संभवतः आज से तीन करोड़ वर्ष पूर्व के आस-पास का
होता है) में ही हुई होगी, जबकि मानवों की वर्तमान शृंखला यानी सातवें
ब्रह्मा का उद्भव-काल दो लाख वर्ष पूर्व का बनता है।
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