भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
प्राणी-उद्भव के विषय में इतना जान लेने के पश्चात् यह प्रश्न उठता है कि
उपर्युक्त सभी संरचनाओं का मूल आधार क्या रहा होगा और इनकी उत्पत्ति किन
परिस्थितियों में क्यों और कैसे हुई होगी? इन सभी प्रश्नों के उत्तरों को
तलाशने तथा किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचने से पूर्व आधुनिक विज्ञान व
उद्घाटित भारतीय तथ्यों की सम्यक् विवेचना कर लेना भी अधिक युक्तिपूर्ण व
तर्कसंगत ही रहेगा। जेनेटिक विज्ञानियों के अनुसार, समस्त जीवधारियों का शरीर
कोशिकाओं (Cells) के जटिलतम संयोजन से बनता है और प्राणियों की विविधताओं के
अनुरूप जीवधारियों में इनकी संख्याएँ भिन्न-भिन्न होती हैं। गोल, नलीदार,
वर्गाकार व चपटी आदि बनावटोंवाली सौ से अधिक प्रकार वाली इन कोशिकाओं का
निर्माण प्रोटीन (Protein) से तथा प्रोटीन कुल बीस प्रकार के रासायनिक अम्लों
(Amino Acids) की श्रृंखला-क्रमबद्धता से जैविक शरीर में ही बनते हैं। एमिनो
अम्ल से अस्तित्व में आई कोशिका नाभिक की बाहरी परत (Plasma membrane) में
(एक कोशिका की बनावट) साइटोप्लाज्म (Cytoplasm) नामक एक तरल पदार्थ भरा होता
है। लवण, शर्करा, विटामिन, रासायनिक अम्ल व ऑक्सीजन, कार्बन, हाइड्रोजन,
नाइट्रोजन आदि घुलनशील गैसों के समिम्श्रणों से बने इस तरल पदार्थ के मध्य
में परतों (Nuclear membrane) से ढकी एक केंद्रिका (Nucleus) होती है। एक
सें.मी. के भी लगभग 16,000वें हिस्से के व्यासवाली यह केंद्रिका धागे की
भाँति बनावटवाले तंतुओं (Chromosomes) तथा बिना परतोंवाले एक या उससे अधिक
नाभिक (Nucleolus) से भरी होती है। नाभिक में दो प्रकार के नाभिकीय अम्ल होते
हैं, जिन्हें वैज्ञानिक भाषा में क्रमशः राइबो न्युक्लीक एसिड (RNA) व
डिऑक्सी न्युक्लीक एसिड (DNA) कहा जाता है। राइबो नाभिकीय अम्ल (RNA)
मोलेक्यूल्स का गट्ट होता है, जो प्रोटीन बनाने में मददगार होता है, जबकि
क्रोमोसोम्स की बनावटों के आधार वंशानुक्रम से प्राप्त होनेवाले तत्त्व यानी
डिऑक्सी नाभिकीय अम्ल (DNA) व प्रोटीन को संयुक्त रूप से क्रोमेटीन
(Chromatin) कहते हैं। क्रोमोसोम या गुणसूत्र सदैव जोड़े में होते हैं और
प्रजातियों के अनुरूप कोशिकाओं में इनकी संख्याएँ भिन्न-भिन्न होती हैं।
मच्छर की कोशिका में 6 या 3 जोड़े, मक्खी में 8 या 4 जोड़े, हरी मटर में 14
या 7 जोड़े, मेढक में 26 या 13 जोड़े, चुहिया में 42 या 21 जोड़े एवं मानव
में 46 यानी. एक माता तथा एक पिता का मिलाकर कुल 23 युग्म गुणसूत्र होते हैं।
इन प्रत्येक गुणसूत्र में फलों की भाँति गोल-गोल लटके हुए 26383 से लेकर
39114 वंशाणु (Gene) होते हैं। फलों जैसे दिखनेवाले ये जीन वस्तुतः तंतुओं के
अत्यधिक कसावदार गुच्छ ही होते हैं, जो आनुवंशिक आधार पर शर्करा व फॉस्फेट
तथा नाइट्रोजन जनित एडेनाइन-थाइमीन व गुआनीन-साइटोसीन के जटिल मिश्रणों से
बने डिऑक्सी न्यूक्लीक अम्ल (DNA) से परिपूर्ण होते हैं। वस्तुतः इन नाभिकीय
अम्लों में ही जीवन का रहस्य छिपा रहता है। अनुमानतः एक स्वस्थ मानव के शरीर
में लगभग पचास हजार अरब से भी अधिक कोशिकाएँ होती हैं। प्रत्येक कोशिका में
लगभग नौ अरब परमाणु होते हैं। इन सभी मानव कोशिकाओं के अंदर उपस्थित सभी
तंतु-गुच्छों को आसानी से 1.25 सें.मी. घन के अंदर समेटा जा सकता है, किंतु
यदि इन्हें फैलाकर जोड़ दिया जाए, तब इनकी लंबाई 186 करोड़ कि.मी. (पृथ्वी से
सूर्य तक की दूरी के दोगुने नाप के छह गुणा से भी कुछ अधिक) की ही बैठेगी। इस
तरह कोशिकाओं की केंद्रिकाओं में पाए जानेवाले नाभिकीय अम्ल (Nucleic
Acid-RNA-DNA) ही शरीर-संवर्धन के लिए आवश्यक प्रोटीन व रसायन आदि के
निर्माण-संबंधी जैविक क्रियाओं के साथ-साथ वंशानुक्रम से प्राप्त होनेवाले
गुणों तक को ही नियंत्रित नहीं करते हैं, बल्कि कोशिका-दर-कोशिका की बढ़ोतरी
द्वारा संबंधित प्रजाति के अनुरूप देह का निर्माण भी कर सकते हैं। जीवन के
रहस्य-संबंधी मानव जीनोम की इस अत्याधुनिक खोज के पश्चात् जेनेटिक्स यह दावा
कर रहे हैं कि जीन-परिवर्तन के कार्यक्रमों द्वारा भविष्य में खूबसूरत तथा
प्रतिभाशाली बच्चे (Designer Baby) पैदा करने से लेकर रोग व बुढ़ापे पर भी
काबू पाया जा सकेगा।
अब प्रश्न यह खड़ा होता है कि दैहिक बनावटों व उनके विकास के आधार के रूप में
पहचाने गए-Ribo व Deoxy Nucleic Acids नामक दो विशिष्ट रासायनिक पदार्थों के
मूल स्रोत क्या रहे हैं? यद्यपि वैज्ञानिक परीक्षणों द्वारा यह सिद्ध किया जा
चुका है कि विद्युत् के कृत्रिम प्रभावों से मीथेन (Methane-CH.), अमोनिया
(Ammonia-NH ) व ऑक्सीजन (Oxygen-O,) के सम्मिश्रणों को एमिनो अम्ल में
परिवर्तित किया जा सकता है, किंतु शारीरिक संरचना के लिए आवश्यक नाभिकीय
अम्लों में से एक यानी DNA को जैविक प्राणी जहाँ वंशानुक्रम की श्रृंखला से
प्राप्त करता है, वहीं अन्य (RNA आदि) को उपापचय (Metabolism) की यौगिक
क्रियाओं द्वारा शरीर के अंदर ही अर्जित कर लेता है। जीव विज्ञान के अनुसार,
उपापचय की ये प्रक्रियाएँ वनस्पतियों सहित अमीबा (Amoeba) जैसे एक कोशिकाई
(Unicellular) व सूक्ष्मदर्शीय जीवों से लेकर हाथी जैसे बहुकोशिकाई
(Multicellular) व दीर्घकाय जीवों तक में एक ही जैसे संपादित हुआ करती हैं।
जैविक प्राणियों में होनेवाली उपापचय की इन यौगिक प्रक्रियाओं से विकसित हुई
कोशिकाओं के पूर्ण वयस्क हो जाने पर नर और मादा के बराबर गुणसूत्रों द्वारा
बने शुक्र व डिंब के विशेष संयोग से ही भावी प्रजनन के लिए आवश्यक जीवाणु
अस्तित्व में आता है। शरीर की इन यौगिक क्रियाओं के लिए ऊर्जा
(कार्बोहाइड्रेट व वसा) तथा सामग्री (प्रोटीन) की आपूर्ति क्रमशः
वनस्पतिप्रदत्त गेहूँ, चावल, जौ, बाजरा, ज्वार, मक्का, दाल, फल व सब्जियों
तथा पशुप्रदत्त दूध, दही, घी व आमिष भोजनों के माध्यम से होती है। प्रोटीन
वस्तुतः दाल व पशुप्रदत्त भोजनों में उपस्थित कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन,
नाइट्रोजन व सल्फर, फास्फोरस और लौह का यौगिक घटक है, जबकि वनस्पतिजनित
सीरियल्स, मिलेट्स, रुट्स, स्टेम्स व फ्रूट्स तथा पशु-जनित दूध, दही, मक्खन,
घी व अंडों में विद्यमान कार्बन, हाइड्रोजन और ऑक्सीजन के जटिल मिश्रणों से
क्रमशः कार्बोहाइड्रेट व वसा की ऊर्जा उत्सर्जित होती है। वनस्पति तथा
पशुप्रदत्त इन आहारों में उपस्थित रासायनिक तत्त्वों को कार्बोहाइड्रेट, वसा
व प्रोटीन में बदलने का कार्य प्राणी उपापचय के माध्यम से ही कर पाता है और
उपापचय की इस प्रक्रिया के लिए प्राणी शरीर को आवश्यक एंजाइम्स (Enzymes) की
आपूर्ति वनस्पतियों में उपलब्ध पर्णहरित (Chlorophyll) के सहयोग से ही संभव
हो पाती है। वनस्पतियों के हरे भाग, विशेषकर पत्ते सूर्य-रश्मियों से
निकलनेवाले नीले, बैगनी, नारंगी व लाल रंगों को तो शोषित कर लेते हैं, किंतु
हरा रंग शोषित न होने के कारण प्रत्यावर्तित होने लगता है और इसी के
परिणामस्वरूप यह भाग हरे रंग का आभासित होता है। सौर ऊर्जा के कारण
वनस्पतियों के इसी हरे भाग में विशिष्टि तत्त्व (क्लोरोफिल) मिलता है। जड़ के
माध्यम से मिट्टी व जल के अंश, हवा द्वारा प्राप्त कार्बन डाइऑक्साइड गैस तथा
सूर्य-रश्मियों से प्राप्त ऊर्जा के संघटक को क्लोरोफिल अपने वैशिष्ट्य के
कारण एडीनोसिन ट्राइफास्फेट (ATP) नामक रसायनों में परिवर्तित कर वनस्पतियों
के संवर्धन हेतु भोजन की व्यवस्था कर देते हैं। वनस्पतियों द्वारा संचित की
गई यही ए.टी.पी. सभी जीवित कोशिकाओं के लिए आधारभूत ऊर्जा का काम करती है।
भोजन निर्माण की इस प्रक्रिया (Photosynthesis) के दौरान वनस्पतियाँ ओषजन
वायु (ऑक्सीजन गैस) उत्सर्जित करती हैं, जो प्रकारांतर से अन्य जीवों की
श्वसन-प्रणाली को बनाए रखने में सहयोगी होती हैं। इन्हीं वनस्पतियों द्वारा
प्रदत्त खाद्य पदार्थ या फिर इन वनस्पतियों का भक्षण कर जीवित रहनेवाले जीवों
से प्राप्त वसा आदि का सेवन करके ही अन्य जीवित प्राणी अपने शरीरों का
संवर्धन करने तथा उन्हें बनाए रखने में सफल होते हैं। इस प्रकार प्राणी-पोषण
के आधारस्रोत रही इन वनस्पतियों की उत्पत्ति पंचमहाभूतों (पार्थिव, जलीय,
वायवी, आग्नेय व आकाशीय तत्त्वों) के सहयोग से फूलों में पनपे नर-पराग
(Pollen) व मादा-अंड (Ovule) के संयोग से बने बीज (Seed) से होती है। इस तरह
प्राणी-आहार हो या जीनों में पाए जानेवाले नाभिकीय अम्ल, मामला घूम-फिरकर
वनस्पतियों तथा अंत में पंचमहाभूतों पर ही आकर टिक जाता है। इनकी इसी
अनिवार्यता को देखते हुए यह कहा गया है कि 'अन्न ही शरीर है' या 'शरीर
पंचभूतों से निर्मित हुआ है' (छिति जल पावक गगन समीरा, पंच रचित यह अधम
सरीरा-रामचरितमानस)।
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