भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
शरीर निर्माण में पंचमहाभूतों के अप्रत्यक्ष तथा एंजाइम्स के प्रत्यक्ष
योगदानों के इस रहस्योद्घाटन के उपरांत भी वैज्ञानिक परीक्षणों में यह पाया
गया है कि जीवधारी की प्रामाणिक मृत्यु होने के तुरंत बाद कोशिका, गुणसूत्र व
जीन ही नहीं अपितु उनमें पाए जानेवाले रासायनिक पदार्थ भी मृत शरीर में
ज्यों-के-त्यों बने रहते हैं, किंतु निष्क्रियताओं के कारण उनमें उपापचय
(Metabolism) के स्थान पर अनुपापचय (Catabolism) की विपरीत अवस्थाएँ उजागर
होने लगती हैं। इससे यही प्रमाणित होता है कि जैविक शरीर में उपापचय की इस
प्रक्रिया को गति देने के लिए पंचमहाभूतों व एंजाइम्स के अतिरिक्त एक अदृश्य
शक्ति का भी योगदान होता है। इसी अदृश्य शक्ति के कारण पंचमहाभूतों से
निर्मित प्राणी-शरीर में राग, द्वेष, भय, क्रोध, घृणा, प्रेम, स्वत्व आदि का
बोध पनपता है। चूंकि वैज्ञानिक मर्यादाएँ रसायन व भौतिकी के इस अंतिम
विश्लेषण-बिंदु पर जाकर समाप्त हो जाती हैं, अतः इससे आगे की यात्रा के लिए
जिस पथ को चुना जाता है, वहीं से अध्यात्म (Metaphysics) का क्षेत्र प्रारंभ
होता है। अध्यात्म के इसी पथ पर आगे बढ़ते हुए भारतीय मनीषियों ने न्यूक्लीक
एसिड (नाभिकीय अम्ल) में विद्यमान रहनेवाली अज्ञात शक्ति स्रोत की जटिल
गुत्थियों को सुलझाते हुए यह स्पष्ट किया कि सभी प्राणियों में पाई जानेवाली
यह अदृश्य चैतन्य शक्ति वस्तुतः प्राण ही है, जो गर्भस्थ अंड में प्रवृष्ट
होकर जैविक क्रियाओं का संचालन करने लगती है (अमीमेद्वत्सो अनु
गामपश्चद्विश्वरुप्यं त्रिषु योजनेषु-ऋग्वेद-1-164-9)। अब यहाँ प्रश्न यह
उठता है कि प्राणीमात्र में प्रजनन की क्रियाएँ पुरुष-कण (Sperm) व
स्त्री-अंड (Ovum) के संयोग से होती हैं और यह संयोजन (Zygote) रेतस्
(Gametes) में उपस्थित चैतन्यता के कारण ही संभव हो पाती है, अतः ऐसी स्थिति
में किसी अन्य तत्त्व के प्रयोजन की आवश्यकता क्यों कर पड़ती है? चूँकि रेतस्
की यह चैतन्यता अपनी एकमेवता के कारण भ्रूण (Foetus) या शरीर-निर्माण तक में
ही सीमित रहती है, अतः जैविक विकास के लिए वह अपनी शक्ति के अनुरूप
सर्वव्यापी चैतन्यता के आनुपातिक अंश को भी आकर्षित करती है और तदनुसार
आमंत्रित अंश गर्भस्थअंड में प्रविष्ट होकर अपनी क्षमताओं के अनुरूप एक
निश्चित अवधि तक उस जीवन-विशेष को गति देने लगता है। ऋग्वेद (1-164-1) में
शरीर की चेतनाओं के इस तिहरे स्तर को 'अस्य वामस्य पलितस्य होतुस्तस्य भ्राता
मध्यमो अस्त्यश्नः तृतीयो भ्राता घृतपृष्ठो अस्यात्रापश्यं विश्पति
सप्तपुत्रम्' के भाव द्वारा व्यक्त किया गया है। प्राणीमात्र में श्वसन
क्रियाएँ, ग्रंथि व तंत्रिका-प्रणाली, ज्ञानेंद्रियों के गुण, रक्त-संचालन व
शुद्धीकरण, पाचन-क्रियाएँ तथा मल-मूत्र निकासी के सभी कार्य इसी अदृश्य
महाप्राण (Vital Essence) द्वारा नियंत्रित होते हैं। भारतीय मान्यताओं के
अनुसार प्राण को आत्मा (self) की कृतित्व-शक्ति माना गया है और उभयरूप से यही
आत्मा ही शरीर में परमात्मा के प्रतिनिधि के रूप में उपस्थित रहकर चौबीस गणों
(यानी प्राण वं 23 युग्म गुणसूत्रों) द्वारा जैविक-उत्सर्ग क्रियाओं, अर्थात्
सप्त गतेर्विशेषित्वाच्च (ब्र.सू.-2.4.5) यानी सात प्रकार के प्राण-वायु
(अपान, समान, व्यान, उदान, नाग, कूर्म व कृकल) का संचालन करते हैं (एवं
चतुर्विंशतिस्मितत्वे सिद्धे वपुगृहे, जीवात्मा नियेतेनिघ्नो वसतिः
स्वांतदूतवान)। ब्रह्मसूत्र (1-2-11) प्राणियों में आत्मा व इसकी कृतित्व
शक्ति यानी महाप्राण की स्थिति को मस्तिष्क की गुहा के एक सूक्ष्म रिक्त
स्थान में निश्चित करता है (सप्तशीर्षण्याः प्राणाः गुहां प्रविष्टावात्मानौ
हि तदर्शनातू)। गीता (8/10) में 'ध्रुवोर्मध्ये प्राण' कहकर श्रीकृष्ण ने इसी
स्थिति का संकेत किया है। यद्यपि इस अदृश्य तत्त्व को ढूँढ़ नहीं पाने के
कारण आधुनिक विज्ञान अभी तक इसकी सही व्याख्या नहीं कर सका है, तथापि
ब्रह्मांड में व्याप्त सर्वव्यापी चैतन्यता (Cosmic Consciousness) के तथ्यों
को स्वीकार करके या फिर पोस्टमार्टम की विधि द्वारा पूर्ण मृत्यु को Brain
Death कहकर परिभाषित करते हुए आधुनिक चिकित्सा विशेषज्ञ अप्रत्यक्ष रूप से
शरीर में विद्यमान रही इसी की एक इकाई की सहभागिता की ओर ही इंगित करते रहे
हैं। Brain Research Laboratory (USA) के प्रसिद्ध तंत्रिका विशेषज्ञ Dr.
Robert White तो स्पष्ट रूप से इस विषय में भारतीय मान्यताओं (ब्रह्मसूत्र)
की एक प्रकार से पुष्टि करते ही दिखते हैं। उनके अनुसार- "Since the brain is
the place where the death occurs, the brain is undoubtly regarded as the
seat of the soul." अदृश्य शक्ति की इसी स्वीकार्यता के कारण ही भारतीय
शास्त्रों में चौबीस के बजाय पच्चीस गुणों को (पुरुष इति
पञ्चविंशतिर्गणः-सांख्य) प्राणी अस्तित्व का कारक माना गया है और यह अतिरिक्त
पच्चीसवाँ गण है-जीवात्मा, जो ईश्वर के प्रतिनिधि (कैटेलिक एजेंट) की भाँति
प्राणियों की जीवंतता को बनाए रखती है। प्राणी-शरीर में जीवात्मा तो साक्षी
भाव के रूप में ही बनी रहती है, किंतु मन, बुद्धि व अहंकार में लिपटा इसका
आवरण प्रारब्ध द्वारा अर्जित वृत्तियों के अनुरूप ही शरीर को जीवन के अंतिम
सोपान तक मार्गदर्शन कराता रहता है। ऋग्वेद (1-164-20) में जीवात्मा के इस
द्वय भाव को 'द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परि षस्वजाते, तयोरन्यः
पिप्लमं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति' (अर्थात् दो सुंदर पंखवाले,
समान संबंध रखनेवाले पंछी मित्र की ही भाँति एक वृक्ष यानी शरीर में आश्रय ले
रखे हैं। इन दोनों में से एक तो वृक्ष के फलों का स्वाद लेता है, जबकि दूसरा
मात्र दर्शक ही बना रहता है—Two bright-Feathered bosom friends, flit around
one and same tree; One of them tastes the sweet berries, the other without
eating merely gazes down.) के रूप में व्यक्त किया गया है। इस प्रकार
प्रारब्धजनित फलों का भोग कर तृप्त होने के पश्चात् ये दोनों एक-दूसरे का
अनुगमन करते हुए शरीर की जैविक क्रियाओं को संपादित करनेवाले अवयवों के
क्षतिग्रस्त होने पर उसे एक ही साथ त्याग देते हैं।
जैविक चैतन्यता के मूल स्रोत के रूप में चिह्नित ‘जीवात्मा' तथा शरीर-निर्माण
में सहयोगी माने गए एंजाइम्स के कारक रहे 'वनस्पतियों' के विषय में इतना जान
लेने के पश्चात् यह प्रश्न खड़ा हो जाता है कि पृथ्वी पर इन वनस्पतियों व
उनके विभिन्न प्रकारों का उद्भव कैसे हुआ और इन उद्भवों के लिए बीज कहाँ से
आए? भारतीय शास्त्रों की यह मान्यता है कि पृथ्वी पर वायुमंडल, जल, भूमि आदि
अनुकूल परिस्थितियों के निर्माण के पश्चात् एक समय ऐसा आया होगा, जब सौरमंडल
की स्थिति के अनुरूप पृथ्वी रोहिणी नामक नक्षत्र के अति समीप से गुजरी होगी।
इस परिस्थिति विशेष में सूर्य की विशिष्ट रश्मियों द्वारा रोहिणी की परिधि
में सोम नामक रसायन विशेष के संयोग से जो वीरुद (वैज्ञानिक भाषा में पॉलिमर
यानी जीवनदायिनी शक्ति) उत्पन्न हुए, वे ही पृथ्वी पर भूमि, जल व वायु के
संसर्ग में आकर कालांतर में वनस्पतियों के रूप में विकसित हो गए। जैमिनी
ब्राह्मण (1-355) में इस घटनाक्रम का वर्णन करते हुए यह बताया गया है कि
सूर्य-रश्मियों द्वारा सोम के भेदन से जो छींटे पृथ्वी पर गिरे, वे ही
औषधियों के रूप में उग आए (सोमं वै राजनं यत् सुपर्ण आहरत् समभिनव तस्यवा
विपुणो अपतंस्ता एवेमा औषधयोऽभवन)। संभवतः सर्वव्यापी चैतन्यता (Cosmic
Consciousness) के प्रभाव से प्रकृति में रासायनिक संचेतनाओं के जो समूह
(सोम) उमड़े, सूर्य-ऊष्मा के कारण उनके रिसने से गिरी बूंदें ही अपने
रासायनिक गुणों के अनुरूप जल, मिट्टी व वायु का संसर्ग पाकर पृथ्वी पर
विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों के रूप में उग आई होंगी। सूर्य की रश्मि विशेष
तथा सोम के आपसी संघात से सृजित पृथ्वी के इस दिव्य जैविक गर्भ को धारण करने
के कारण ही रोहिणी को भारतीय ग्रंथों में जैविक सृष्टि की प्रथम स्थानापन्न
माता (Surrogate Mother) होने का श्रेय प्रदान किया गया। मैत्रेयी संहिता
(1-6-9/2) में इसकी व्याख्या इस प्रकार से की गई है कि लोमरहित पृथ्वी पर
देवों अर्थात् प्राकृतिक शक्तियों ने रोहिणी के सहयोग से वीरुदों अर्थात्
विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों को प्रत्यारोपित किया था (ऋक्षा ह वा इयमग्र
आसीत् तस्या देवां रोहिण्यां वीरुधोऽरोहयन्)। इसी प्रकार अथर्ववेद में भी
औषधियों आदि को सोम में ही उत्पन्न (सोम औषधीभिरुद कामत) माना गया है।
मैत्रेयी संहिता में निरूपित किए गए आधारों के परिप्रेक्ष्य में भारतीय दर्शन
यह घोषणा करते हैं कि बीज से वृक्ष व वृक्ष से बीज का चक्र चिरकाल से
अस्तित्व में बना हुआ है (पूर्वानुवृत्तिस्तु पुनश्चरेमं परंपरा व
तरुबीजवृत्ति)। बाइबिल (Genesis-11) के अनुसार भी ईश्वर की इच्छा से पृथ्वी
ने वनस्पतियों, पौधे और फल देनेवाले वृक्षों, जो अपनी किस्म के बीज अपने अंदर
सँजोए हुए थे, 345119 (The land produced vegetation, plants bearing seed
according to their kinds and tree bearing fruits with seed in it according
to their kinds)। कुरआन में भी कुछ इसी तरह का उल्लेख हुआ। इन मान्यताओं को
वैज्ञानिक आधार पर भी परखकर देखा जा सकता है। नेशनल सेंटर फॉर बेसिक साइंसेज
(कोलकाता) के वैज्ञानिक संदीप चक्रवर्ती व एम.एम.सी. कॉलेज की प्रो. सोनाली
चक्रवर्ती ने 'कंप्यूटर सिमुलेशन' के द्वारा यह निष्कर्ष निकाला है कि पृथ्वी
पर जीवन का प्रवेश करोड़ों वर्ष पूर्व अंतरिक्ष से ही हुआ था। 'एस्ट्रोनॉमी
एंड एस्ट्रो फिजिक्स' नामक पत्रिका के दिसंबर 1999 के अंक में प्रकाशित इनका
यह रहस्योद्घाटन ब्रिटेन के खगोल विज्ञानी फ्रेड हायल व चंद्रा विक्रमसिंघे
द्वारा पच्चीस वर्ष पूर्व प्रतिपादित उल्का पिंडों (Meteors) के माध्यम से
पृथ्वी पर जीवन के प्रत्यारोपण सिद्धांतों के साथ-साथ भारतीय अवधारणाओं की भी
वैज्ञानिक पुष्टि करता प्रतीत होता है। इन वैज्ञानिकों के निष्कर्ष के
अनुसार, तारों व ग्रहों की उत्पत्ति से भी पहले अंतरिक्ष में हाइड्रोजन,
कार्बन, ऑक्सीजन, नाइट्रोजन आदि तत्त्वों के अणुओं से युक्त एक विशाल बादल
(Nebula) मौजूद था। इस बादल में हुए आणविक विस्फोटों के कारण ही विभिन्न
तारों व ग्रहों का अस्तित्व उभरकर सामने आया। विस्फोटों की इन्हीं
प्रक्रियाओं के तहत जल, कार्बन डाइऑक्साइड, अमोनिया, हाइड्रोजन सायनाइड आदि
सरल संरचनावाले अणुओं के क्रम से जटिलतम अणुओं का निर्माण हुआ और आगे चलकर
इन्हीं से एलेनिन, ग्लीसाइन आदि उच्च गुणवत्तावाले अमीनो एसिड तथा
ऐओस-डीऑक्सी-राइबो नामक न्यूक्लिक एसिड व उसके महत्त्वपूर्ण अवयय के रूप में
चिह्नित किए गए एडवेनिन आदि अस्तित्व में आए। अमेरिका के मैसाच्युसेट्स जनरल
हॉस्पिटल के अणुजीव वैज्ञानिक जैक जोस्टॉक ने अपने प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध
कर दिया है कि 'थ्रेओस न्यूक्लिक एसिड' (TNA) प्राकृतिक एंजाइमों द्वारा
जोड़ा जा सकता है। यद्यपि RNA व DNA की अपेक्षा इस मोलेक्यूल के
शर्करा-फास्फेट आधार में एक कार्बन परमाणु कम है, तथापि यह आधार जोड़े बनाने
के उत्कृष्ट गुणों से परिपूर्ण है। इन प्रयोगों से यह स्पष्ट हो जाता है कि
सृष्टि में 'राइवो न्यूक्लिक एसिड' से पूर्व TNA का ही निर्माण हुआ होगा।
वैज्ञानिकों के अनुसार प्राणी-संरचना के लिए आवश्यक तत्त्वों से परिपूर्ण
फार्मएल्डिहाइड (Formaldehyde) या फार्मएल्डिमाइन (Formaldemine) नामक
अंतरिक्ष के इन बादलों के रासायनिक अम्ल जब सौर ऊर्जाओं के प्रभाव से समीपस्थ
ग्रह के चुंबकीय कवच को भेदकर उसके वायुमंडल में प्रवेश कर जाते हैं, तब उस
ग्रह-विशेष में प्राणी-उत्पत्ति की प्रक्रियाएँ बलवती हो जाती हैं। मैलबोर्न
(ऑस्ट्रेलिया) के वैज्ञानिकों को अंतरिक्ष में 300 प्रकाशवर्ष की दूरी पर
फार्मएल्डिमाइन के 3000 मिलियन मील लंबे-चौड़े बादल दिखे हैं। सौर ऊर्जाओं के
सकारात्मक सहयोगों के प्रभाव से ग्रह-विशेष के वायुमंडल में प्रविष्ट होने के
उपरांत इन अम्लों की पाँच मूल श्रेणियाँ भूमि, जल व वायु का संसर्ग पाकर
कार्बनिक तत्त्वों में परिवर्तित होकर विभिन्न प्रकार के प्रोटीनों को योजित
करने लगती हैं एवं तदनुरूप सूर्य की किरणों से मिलनेवाली ऊर्जा के सहयोग से
कार्बोहाइड्रेट्स व प्रोटीनों का स्ववर्धन कर धरती के ऊपर विभिन्न प्रकार की
वनस्पतियों के रूप में उग आती हैं।
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