भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
कालांतर में उद्भिजों तथा वनस्पतियों के औषधिय गुणों से परिपूर्ण अंचलों में,
इन प्राकृतिक संघातों के परिणामस्वरूप क्षरित हुए जीवनदायक अम्लों
(Formaldehyde या Formaldemine) की रासायनिक गुणवत्ताओं के आधार पर धरती के
ऊपर संसेचित हुई विविध प्रकार की आद्य कोशिकाएँ आवश्यकतानुरूप सकारात्मक
तत्त्वों से परिपूर्ण सुरक्षात्मक आवरणों से भी ढक गईं। पृथ्वी की ओजोन परत,
सूर्य का क्यूपर बेल्ट व जगत् के लिए प्रयुक्त ब्रह्मांड का संदर्भ, प्रकृति
में कुछ इसी तरह के सुरक्षात्मक आवरणों की उपस्थिति को ही रेखांकित करते हैं।
जागतिक संरचनाओं की ही भाँति जैविक गर्भों में भी भ्रूण की सुरक्षा व पोषण के
लिए कुछ इसी तरह की कलल या झिल्ली का अस्थायी निर्माण होता है। कुछ जैविक
गर्मों में निर्मित कललों के आवरण कठोर होने के कारण अंडे के रूप में शीघ्र
स्खलित हो जाते हैं, जबकि मानव समेत कुछ जीवों के कलल (झिल्ली) कोमल होने के
कारण प्रसव के क्षण गर्भाशय में ही फट जाते हैं और तदंतर प्रसवोपरांत योनि
द्वारा बाहर गिर जाते हैं। आद्य कोशिकाओं के संरक्षण व पोषण के लिए धरती पर
निर्मित विभिन्न प्रकार के इन्हीं खुरदरी परतों में निश्चित अवधि तक विकसित
होने के उपरांत विभिन्न प्रकार के जीव-जंतुओं समेत अंततः मानव का अद्यतन
स्वरूप प्रस्फुटित हुआ था। इन गर्भो को भूमि, जल व वायु तत्त्व माता यानी
पृथ्वी से तथा अग्नि, आकाश तत्त्व एवं प्राण पिता यानी सूर्य से प्राप्त हुआ
था और अंततः परमात्मा से प्राप्त सातवाँ अंश जीवात्मा के रूप में इन गर्मों
में प्रविष्ट होकर जैविक क्रियाओं का संचालन करने लगा था (तिस्त्रो
मातृस्त्रीन् पितॄन् विभ्रदेक उर्ध्वस्तस्थौ नेमव
ग्लापयन्ति-ऋग्वेद1-164-10)। चूँकि अद्यतन जीवों के शैशव की अभिरक्षा के लिए
कोई पूर्वज नहीं था, अतः धरती की खुरदरी परतों से निर्मित कललों का आकार
आनुपातिक रूप से इतना बड़ा था कि संबंधित जीवगण पूर्ण वयस्क होकर इनमें से
निकलने तक की अवधि की पोषकता को इसमें से प्राप्त कर सकते थे। इस प्रकार
पृथ्वी के गर्भ में परिस्थितिजन्य कारणों से निर्मित हुए इन पर्याप्त
आयतनोंवाली खुरदरी परतों से बाहर निकलनेवाले अमैथुनीय मानवों की कद-काठी भी
तदनुरूप अठारह से लेकर बीस वर्ष के युवाओं की ही भाँति पुष्ट रही थी। प्राणी
उद्भव संबंधी उपर्युक्त धारणाओं के आधार पर ही भारत में सूर्य को पिता व
पृथ्वी को माता (द्यौर्मे पिता जनिता नाभिरत्र बन्धुर्मे माता पृथिवी
महीयम्-ऋग्वेद-1.164.33 ) मानने की परिपाटी विकसित हुई थी। 'माता भूमिः
पुत्रोऽहं पृथिव्याः (अथर्ववेद--12-1-12) की अनुभूति के कारण ही वैदिक ऋषि यह
जान सके थे कि धरती माता अनेक भाषाओं को बोलनेवाले व अनेक धर्मों/विश्वासों
का अनुसरण करनेवाले जनसमूहों को भी समान रूप से धारण करती है (जनं विभ्रती
बहुधा विवाचस नानाधर्माणं पृथिवी यथौकसम्)। धरती को माता मानने की इसी
अवधारणा के कारण ही वैचारिक विभिन्नताओं के उपरांत भी विश्व के सभी समाजों
में जन्मभूमि को मातृभूमि (Mother Land) के एकमेव संबोधन से उद्बोधित किया
जाता है (जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी)।
उपर्युक्त भारतीय अवधारणाओं को वैज्ञानिक आधार पर भी परखा जा सकता है। सूर्य
वस्तुतः हाइड्रोजन से भरा हुआ है। सूर्य के हाइड्रोजन अणुओं में होनेवाले
विस्फोट से ही हीलियम उत्सर्जित हो रहा है और इसी हीलियम के कारण ही सौरमंडल
में व्याप्त परिमंडलों (Particles) व अणुओं (Molecules) के आपसी संघातों से
मूल तत्त्व व इनकी उत्पादक क्षमताएँ अस्तित्व में आती हैं। आधुनिक विज्ञान के
अनुसार अणुओं के रासायनिक गुण उनमें उपस्थित इलेक्ट्रॉन की संख्या व स्थिति
के अनुरूप नियोजित होते रहते हैं। इस तरह कॉस्मिक किरणों व हीलियम के प्रभाव
से इलेक्ट्रॉन की संख्याओं में हुए परिवर्तनों से H, से N., व फिर इसी से C,.
व तदंतर के परिवर्तनों से C, बनता है। यही C,-भूमि, जल व वायु के संसर्ग में
आकर पेड़-पौधे के रूप में धरती पर प्रकट हो जाती है। इस तरह वैज्ञानिक
दृष्टिकोणों से भी जीवन का प्रारंभिक आधार पृथ्वी व सूर्य से ही जुड़ा होता
है। यवन लेखक अरस्तु (Aristotic) भी अपनी पुस्तक 'डी जनरेशन एनिमिलियम' में
पृथ्वी को माता व द्यौ को पिता कहकर ही संबोधित किया है। यही नहीं, ई.पू.
प्रथम सदी में हुए लुकरीटियस नामक एक अन्य विद्वान् ने भी अपने प्राकृतिक
सृजन के सिद्धांत द्वारा यह प्रतिपादित किया था कि वनस्पति समेत सभी जीव-जंतु
एवं प्रथम मानव शिशु, पृथ्वी के ही गर्भ से उत्पन्न हुए थे। इसी अवधारणा के
अनुरूप भारत के पौराणिक चित्रों में पूर्ण वयस्क (आदि-पुरुष) को जहाँ कमल
(यानी कमलवत पृथ्वी) से निकलते हुए दिखाया गया है, वहीं पाश्चात्य चित्रकारों
ने सौंदर्य की देवी वीनस के जन्म-संबंधी दृश्यों को अपनी तूलिका के द्वारा
अंडे से प्रस्फुटित होती षोडशी के रूप में ही उकेरा था।
यौगिक क्रियाओं के परिणामस्वरूप धरती की खुरदरी परतों में निर्मित इन दिव्य
अंडों की वास्तविकता पहले अंडा या फिर मुरगी के यक्ष-प्रश्नों का भी स्वतः ही
निराकरण कर देते हैं।
उपर्युक्त तथ्यों के साथ-साथ भारतीय शास्त्रों की ही भाँति आधुनिक विज्ञान भी
इस बात पर सहमत है कि पृथ्वी पर वनस्पतियाँ पहले अस्तित्व में आई थीं, उसके
बाद जीव-जंतु और अंत में मानव की सृष्टि हुई थी (Man is the end towards
which all the animal creation has tended from first appearance of
vegetations and Palaeozoic fishes. Principles of Zoology, By Dr. Agassiz)।
भारतीय मान्यताओं के अनुसार जीवों की चौरासी लाख योनियों के उपरांत ही
मानवी-जीवन प्राप्त होता है। विष्णुपुराण (1-5-5, 6, 8, 30) में पृथ्वी
द्वारा धारण किए गए गर्भो के इन्हीं क्रमों का उल्लेख करते हुए यह बताया गया
है कि पञ्चपर्वा अविद्या (पंचमहाभूत) के पश्चात् तमोमय जड़ नगादि (वृक्षादि)
के क्रम से तिर्यक (पशु-पक्षी), पितर, असुर, देव तथा विभिन्न वर्णवाले मनुष्य
उत्पन्न हुए थे। आधुनिक वैज्ञानिक भी धरती के जीव-जंतुओं की कुल अनुमानित
संख्या लगभग अस्सी लाख आँकते हैं। इस प्रकार वनस्पतियों की विभिन्न
प्रजातियों समेत ये संख्याएँ लगभग उसी चौरासी लाख के लगभग ही बैठती हैं।
यद्यपि इन दृष्टांतों के आधार पर प्राच्य व पाश्चात्य दोनों ही विकासवाद के
एक ही पायदान पर खड़े दिखते हैं, तथापि स्वरूपगत दृष्टि से इनमें
आमूल-पार्थक्यता है। डार्विन का विकासवाद जहाँ जैविक-प्राणियों में
परिस्थितिजन्य कारणों से घटित योनि-परिवर्तन की संभावनाओं की पुष्टि करता है,
वहीं भारतीय मनीषा यह मानते हैं कि पूर्व संचित कर्मों के गुण-दोष के आधार पर
ही जीव मृत्यु के उपरांत विभिन्न योनियों को ग्रहण करता है। इसमें मानव जैसे
सर्वश्रेष्ठ योनि का पतन स्वरूप वृक्ष जैसे स्थावर योनि को ग्रहण करना या फिर
स्थावर योनियों का निरंतर उन्नति करते हुए तिर्यक (पशु-पक्षी) आदि के क्रम से
मानव योनि ही नहीं अपितु राष्ट्र विशेष, समाज विशेष, जाति विशेष, कुटुंब
विशेष, वर्ण विशेष में नैसर्गिक ऊर्जा व निश्चित आयु परिणाम के साथ जन्म लेना
भी कर्मों के अनुरूप ही फलित होता है। आधुनिक विज्ञान की यह मान्यता है कि
जगत् के किसी पदार्थ का अस्तित्व मिटाया नहीं जा सकता है, बल्कि विखंडन या
क्रम-संकोच के कारण उसका स्वरूप परिवर्तित हो जाता है। व्यष्टि रूप से
प्रकृति के सूक्ष्मातिसूक्ष्म पदार्थों से लेकर समष्टि रूप से वृहद्
ब्रह्मांड तक के लिए यही सिद्धांत लागू होता है। इस तथ्य को यदि ज्यामितीय
आधार पर परखा जाय तो यह स्पष्ट हो जाता है कि किसी सीधी रेखा को अनंत विस्तार
देने पर वह वर्तुल के रूप में प्रारंभिक बिंदु से आकर मिल जाती है। इससे यही
सिद्ध होता है कि प्रकति का प्रत्येक कण गति अनुरूप स्वरूप लेता हुआ पुनर्वति
के सिद्धांत का ही अनुसरण करता है। चूंकि स्थूलकाय जैविक-देह से लेकर मन,
बुद्धि व अहंकार जैसे सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्वरूप प्राकृतिक पदार्थों के यौगिक
घटक ही हैं, अतः स्वरूप परिवर्तन या फिर विघटन की स्थितियों के उपरांत भी
उनका मूल अस्तित्व बना रहता है और संयोजन की अनुकूल परिस्थितियों के बनने पर
संघटकों के गुण-दोष (योग्यं योग्येन युज्यते) के आधार पर ये पुनः उसी अनुरूप
स्वरूपों को ग्रहण कर लेते हैं। किंचित् इन्हीं कारणों से प्राणियों की
जन्मजात-प्रवृत्ति (Instinct) को वैज्ञानिक पूर्वानुभूति का ही प्रतिफल मानते
हैं। अतः इस दृष्टि से पुनर्जन्म या प्रकृति की पूरक क्रियाओं
(प्रकृत्यापूरात्) के आधार पर कर्मानुरूप योनि परिवर्तन की भारतीय अवधारणाएँ
वैज्ञानिक कसौटी पर खरी उतरती हैं, जबकि एक ही जन्म की अवैज्ञानिक अवधारणा के
कारण डार्विन का विकासवाद पाश्चात्य की मनःस्थिति को सहज एवं अनुकूल प्रतीत
होता है।
इस प्रकार पृथ्वी पर विभिन्न प्रजातियों के अमैथुनीय प्राणियों की उत्पत्ति
हो जाने के बाद योनि-समानता (योनेः शरीरम् यानी योनि के अनुरूप ही शरीर) के
आधार पर नर-मादा की मैथुनिक प्रक्रियाओं द्वारा ये सभी प्राणी अपने-अपने
वंशों की वृद्धि में उद्यत हुए। प्रथम अमैथुनीय प्राणियों की उत्पत्ति ही
नहीं, बल्कि उनके जन्म-स्थान के विषय में भी वेदग्रंथ एक प्रकार से अधिकृत
घोषणा करते ही दिखते हैं। ऋग्वेद (1-164-9) के अनुसार ध्रुव से दक्षिण किसी
सुरक्षित स्थान पर (संभवतः तीन करोड़ वर्ष पूर्व उत्तरी हिमालय के आस-पास)
सोम तथा रोहिणी के प्रभाव में सूर्य-रश्मियों के द्वारा पृथ्वी ने अंडज,
स्वेदज तथा जरायुज-इन तीन प्रकार के गर्भो को अपने अंदर क्रमशः धारण किया था
(युक्ता मातासीद् धुनि दक्षिणाया अतिष्ठद् गर्भो वृजनीष्वन्तः अमीमेद वत्सो
अनु गामपश्यद् विश्वरूप्य त्रिषु योजनेषु)। अमेरिकी पुरातत्त्ववेत्ताओं को
उत्तरी-पश्चिमी हिमालय की शिवालिक पहाड़ियों के निचले हिस्से में मिले एक
करोड़ चालीस लाख वर्ष पूर्व के मानवी जीवाश्म व अन्य अवशेष वेदों में वर्णित
उपर्युक्त धारणाओं की ही पुष्टि करते हैं। विज्ञान पर अंतरराष्ट्रीय ख्याति
की पत्रिका 'नेचर' के जनवरी 2001 अंक में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार,
जीनोम वैज्ञानिकों द्वारा संकलित किए गए विभिन्न मानवी जीनों के परीक्षण यही
संकेत देते हैं कि इनके उद्भव-स्रोत एक ही युग्म (नर-नारी) रहे थे, अर्थात्
परीक्षणगत विभिन्न मानवी जातियाँ (Race) एक ही माता-पिता के वंशज रहे हैं। इस
प्रकार चार्ल्स डार्विन द्वारा प्रतिपादित 'विकासवादी सिद्धांत' तथा
पाश्चात्य भाषाविदों द्वारा गढ़े गए मंगोलियन (आस्ट्रीक), काकेशियन (आर्य) व
ऑस्ट्रेलियन (द्रविड़ या अनार्य) की परिकल्पनाओं पर 'विभाजित मानवीय जातियों
(Race) की अवधारणाओं' के विपरीत उपर्युक्त वैज्ञानिक निष्कर्ष भारतीय
मान्यताओं के अनुरूप यही प्रमाणित करते हैं कि जीविका व सुरक्षित निवास की
तलाश में आद्य मानव के वंशज ही विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में फैलते चले गए।
भारतीय शास्त्रों के अध्ययन से यह भी स्पष्ट हो जाता है कि हिम क्षेत्र
(हिमालियन रीजन) से उत्तर (मंगोलियन रीजन), पश्चिम (काकेशियन रीजन) व दक्षिण
(विंध्य-नीलगिरि-अन्नामलाई उपत्यका या ऑस्ट्रेलियाई क्षेत्र) को विस्थापित
हुए ब्रह्मा या आदि पुरुष के वंशज ही क्रमशः दैत्य, देव, दानव, गंधर्व, आर्य,
असुर, द्रविड़-अनार्य-मयांस व नीग्रो-अफ्रीकन आदि काले-गोरे, नाटे-लंबे मानवी
जातियों के रूप में विकसित हुए थे। वैज्ञानिक निष्कर्षों के अनुसार भी विश्व
के अलग-अलग क्षेत्रों में निवास कर रही इन विभिन्न जातियों के रंग तथा
बनावटगत भेदों का कारण जीन विविधताएँ नहीं, बल्कि क्षेत्रगत जलवायविक व
भूगर्भीय प्रभाव ही मुख्य रहे हैं। इस तरह यह स्पष्ट हो जाता है कि सृजन से
अब तक व्यतीत हुए कालखंडों में घटित भूगर्भीय व जलवायविक आपदाओं से बची हुई
आद्य प्राणियों की उत्तरजीवी वंशावलियाँ ही कीट-पतंग, पशु-पक्षी व मानवों के
वर्तमान स्वरूप में आज हमें दृष्टिगोचर हो रही हैं।
सामाजिक संरचना के आरंभिक काल में भावों के आदान-प्रदान के लिए मानवों द्वारा
आंगिक संकेतों का ही प्रयोग किया जाता रहा था। कालांतर में कुछ विशिष्ट
प्रतिभासंपन्न पुरुषों द्वारा प्राकृतिक ध्वनियों का सम्यक् मनन कर उन्हें
दुहराने का प्रयास किया गया। इस उपक्रम में उनके वाक्-अवयवों से प्रस्फुटित
हुई एक, दो, चार, आठ व नौ पदोंवाली वाणियों से ही प्रथम मानवी बोलियों का
अस्तित्व उभरकर सामने आया। वाक्-प्राकट्य के पश्चात् शब्द-शास्त्र की रचना की
गई और इन्हीं के द्वारा परिनिष्ठित हुई मानवी-बोलियों को 'भाषा' कहा गया।
सौरी (सुरों में प्रवृत्त) व राष्ट्री के अपने आद्य उद्बोधनों से मानवों को
संस्कारित करने के कारण कालांतर में भाषा को 'संस्कृत' (सम+कृत) की संज्ञा से
चिह्नित किया जाने लगा। जनसंख्या बढ़ोतरी के साथ उत्पन्न हुए काल, स्थान व
परिस्थिति-भेद के परिणामस्वरूप ध्वनि, शब्द, रूप, अर्थ एवं वाक्य के स्तरों
पर भाषा में परिवर्तन आता गया। फलतः देश-काल के हिसाब से भाषाओं के स्वरूप भी
बदलते गए। समयांतर के साथ भाषा में दक्षता प्राप्त करने के पश्चात् इसे आकार
देने के उपक्रम में कुछ प्रतिभासंपन्न लोगों द्वारा खींची गई कुछ आड़ी-तिरछी
रेखाओं से ही लिपियों का आद्य स्वरूप उभरकर सामने आया।
प्रस्तुत अध्याय में भाषा व लिपियों के प्राचीनतम स्वरूपों से लेकर वर्तमान
तक की यात्रा का क्रमानुसार प्रामाणिक वर्णन किया गया है।
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