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भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

ओम प्रकाश पांडेय

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2684
आईएसबीएन :9789351869511

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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....

भाव अभिव्यक्ति के प्रतीक


प्राणी-उत्पत्ति के पश्चात् इनमें भूख, प्यास, भय, क्रोध, प्रेम, घृणा, हर्ष, विषाद आदि मानसिक (Psychical) भावों को व्यक्त करने के लिए अंग-स्फुरण तथा ध्वनि-स्फुटन की भौतिक (Physical) क्रियाओं का प्राकट्य हुआ। जैविक प्राणियों द्वारा किए गए अंग-स्फुरणों (आंगिक विधियों) में क्रोध प्रकट करने के लिए बंदरों द्वारा होंठों को विचित्र प्रकार से फैलाकर दाँतों का भींचना, प्रतिरोध के लिए सर्पो द्वारा फन फैलाना या ऊदबिलावों का अपने बालों का खड़ा कर लेना, बचाव के लिए कछुओं द्वारा अपने खोल में दुबकना, प्यार-प्रदर्शन के लिए श्वानों द्वारा पूँछ हिलाना व हर्षातिरेक होने पर मनुष्यों का हँसना या मुसकराना आदि तथा ध्वनि-स्फुटनों (वाचिक प्रवृत्तियों) के प्रारंभिक चरणों के रूप में मक्खियों का भिनभिनाना, पक्षियों का चहचहाना, मेढकों का टर्राना, साँपों का फुफकारना, भेड़ों का बिबियाना, बकरियों का मिमियाना, गधों का रेंकना, कुत्तों का भौंकना, घोड़ों का हिनहिनाना, हाथियों का चिंघाड़ना, शेरों का दहाड़ना व मानवों द्वारा उच्चारित ओ, आह, ओह, हिस्स, धिक्, छिह, हो-हो आदि भावबोधक ध्वनियाँ शामिल हैं। मानव तथा मानवेतर जीवों द्वारा भाव-अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त किए गए इन्हीं प्रतीकों को क्रमशः संकेत (Symbol) व बोली (Dialect) की संज्ञाओं से चिह्नित किया गया है। इसी क्रम में व्यक्तिगत रूप से मानव विशेष द्वारा निःसृत ध्वनि को वाक् (Voice) तथा परिनिष्टत रूप से मानवीय समाज द्वारा व्यवहृत बोली को भाषा (Language) कहा जाता है। यद्यपि व्यावहारिक दृष्टि से मानवी समाज द्वारा भाव प्रकट करने के लिए प्रयुक्त की गई बोलियों की उत्कृष्ट शैली को ही 'भाषा' की मान्यता दी गई है, तथापि व्यापक अर्थों में भावाभिव्यक्ति के समुच्चय का प्रतिनिधित्व करने के कारण जैविक प्राणियों द्वारा व्यवहृत किए गए तत्संबंधी प्रतीकों को भी भाषा की ही श्रेणी में रखा जा सकता है। इस आधार पर पशु-पक्षियों तथा अन्य मानवेतर जीवों में उनकी संकुचित मानसिक व वाचिक क्षमताओं के कारण भाषा का स्वरूप आंगिक (सांकेतिक या Symbolic) तथा ध्वन्यात्मक (Onomotopoetic) के निम्न स्तरों तक ही सीमित रहा, जबकि ज्ञानेंद्रियों व कर्मेंद्रियों की नैसर्गिक उत्कृष्टताओं के कारण मनुष्यों में इसका स्वरूप अत्यधिक परिष्कृत व सुस्पष्ट र हा। मानवों द्वारा उच्चारित ध्वनियों की उत्पत्ति के विषय में आचार्य पाणिनि (पाणिनीय शिक्षा, 6-8 में) यह स्पष्ट करते हैं कि सर्वप्रथम चेतनतत्त्व (आत्मा) का ज्ञानतत्त्व (बुद्धि) के साथ संपर्क होता है और वह अपने अभीष्ट अर्थ को व्यक्त करने की इच्छा से मन को प्रेरित करता है तथा मन शारीरिक शक्ति को प्रेरित करता है, जिससे वायु में प्रेरणा उत्पन्न होती है (आत्मा बुद्ध यासमेत्यार्थान् मनो युक्ते विवक्षया, मनः कायाग्निमाहन्ति स प्रेरयति मारुतम्)। यह प्रेरित वायु उरःस्थल, अर्थात् फेफड़ों में गतिशील होकर मंद्र ध्वनि को उत्पन्न करती है (मारुतस्तूरसि चरन् मन्द्रं जनयति स्वरम्), वही उर्ध्वगामी वायु मूर्धा में अवरुद्ध होकर मुख में पहुँचती है तथा पाँच प्रकार से विभक्त होकर ध्वनियों को उत्पन्न करती है (सोदीर्णो मूर्च्यभिहतो वक्त्रमापद्य मारुतः, वर्णान् जनयते तेषां विभागः पंचधा स्मृतः)। चूँकि मानवेतर प्राणियों के विपरीत मनुष्यों में चेतना व बुद्धि का आनुपातिक समन्वय बना रहता है। अतः अन्य जीवों की अपेक्षा मानवी ध्वनियों की प्रायिकताओं या आवृत्तियों (Frequencies) में विविधताएँ (Variations) अधिक होती हैं। मानवीय ध्वनियों में पाई जानेवाली इन विविधताओं को मुख्यतः उदात्त, उदात्तर, अनुदात्त, अनुदात्ततर, निघात, स्वरित व एकश्रुति-इन सात भागों में बाँटा गया है। कालांतर में इन्हीं से सात प्रधान सुरों षड्ज, ऋषभ, गंधार, मध्यम, पंचम, धैवत व निषाद् का तथा चौबीस श्रुतियों का अस्तित्व उभरकर सामने आया। ध्वनि-उच्चारण के लिए मनुष्यों को स्वर-यंत्र (Larynx), स्वर-तंत्री (Vocal Chord), ऊर्ध्व-कंठ (Gutter), आलिजिहा (Uvula), तालु (Palate), जिह्वा (Tongue), दाँत (Teeth) व ओष्ठ (Lip) आदि वाक्-अवयवों (Vocal organs) का सहयोग लेना पड़ता है। इन अवयवों के माध्यम से उच्चारित की जानेवाली मानवी-ध्वनियों को दो भागों-स्वर (Vowel) व व्यंजन (Consonent) में बाँटा गया है। इसी तरह स्वरों को तीन भागों-हस्व, दीर्घ व प्लुत तथा स्वरों के सहयोग से प्रस्फुटित व्यंजनों को दो मुख्य वर्गों-अभ्यंतर तथा बाह्य में विभाजित किया गया है। स्वघोष के वैशिष्ट्य के कारण स्वरों को अक्षर (अर्थात् जिसका क्षरण न हो-न क्षरतीति) या Syllable तथा सघोष की परावलंबिता के कारण व्यंजनों को अनाक्षरित (Non-Syllable) की श्रेणियों में रखा गया है। मानवी-स्मृति (Human Memory) द्वारा चिह्नित किए गए इन्हीं स्वरों तथा व्यंजनों से वर्ण (Alphabet) तथा क्रियाओं पर आधारित अथों को प्रकट करने के लिए इन्हीं वर्गों के सुसंयोग से अर्थात् व्युत्पत्ति सिद्धांत (Etymology) अनुसार पद (शब्द) बने। फिर रचना के आधार पर इन शब्दों के तीन भेद-रूढ़, यौगिक व योगरूढ़ किए गए। इन्हीं अर्थमूलक पदों या शब्दों के समूह (Vocabulary) से पदबंध (Phrase) व फिर इनसे वाक्य (Sentence) तथा वाक्य-विन्यास (Composition of Sentence) के आधार पर ही अंततः भाषा (Language) का निर्माण हुआ। कालांतर में ध्वनिमूलक भाषा की सुदृढ़ता को प्राप्त करने के उपरांत मानवों में चित्रलिपि (Pictographic), सूत्रलिपि (Logographic), ब्राह्मीलिपि के क्रम से लिखने की कलाओं, अर्थात् आधुनिक लिपियों (Scripts) का विकास हुआ। देश-काल के हिसाब से ध्वनि, शब्द, रूप, अर्थ व वाक्य में आए आंतरिक व बाह्य परिवर्तनों से भाषा के स्वरूप में आई विविधताओं के उपरांत आज भी मानवों द्वारा भाव-अभिव्यक्ति के इन तीनों आयामों, यानी आंगिक भाषा (Gesture or Body Language), aileleh 9191 (Speech or Vocal Language) तथा लिखित भाषा (Pictography/Scripts or Written Language) का ही यथावत् प्रयोग किया जा रहा है।

भाव-अभिव्यक्ति के लिए प्रयुक्त किए गए इन सभी साधनों में सबसे विशिष्ट स्थान संवाद की मुखरता का ही रहा है। यही कारण है कि नेत्रग्राह्य (आंगिक), कर्णग्राह्य (वाचिक) व स्पर्शग्राह्य (लिखित) आदि प्रतीकों के माध्यम से अस्तित्व में आई 'भाषा' मूल रूप से ध्वनियों के द्वारा ही निखरने में सफल रही है। स्थूल रूप से ध्वनियाँ अणुओं में होनेवाले कंपनों (Vibration) से उत्पन्न होती हैं तथा इन्हीं कंपनों के कारण उत्पन्न बारंबारता (Oscillation) व प्रबलता (Loudness) के अपने अंतर्निहित गुणों के परिणामस्वरूप लहरों (Wave) के माध्यम से कर्णग्राह्य होती है। सामान्यतः इन ध्वनि-तंरगों की गतियाँ 400 गज (Yards) प्रति सेकेंड की होती हैं, किंतु तरल व ठोस पदार्थों में इनकी गतियाँ कई गुणा अधिक बढ़ जाती हैं। आधुनिक प्रणाली में ध्वनियों की बारंबारता या निरंतरता को हर्ट्ज तथा तीव्रता या प्रबलता को डेसीबल में नापा जाता है। एक हलकी फुसफुसाहट को लगभग दस डेसीबल के बराबर, हलकी बातचीत को लगभग बीस डेसीबल के बराबर तथा सामान्य वार्तालाप को तीस डेसीबल के बराबर आँका गया है, जबकि साफ और समझने लायक बारंबारताओं को नब्बे से लेकर दस हजार कंपन यानी हर्ट्ज (Herts) प्रति सेकेंड का ही माना गया है। मानवी क्षमताओं के अनुरूप एक सौ बीस डेसीबल तक के दबाव को सुरक्षित झेल सकने वाले एक स्वस्थ मनुष्य के कान बीस हजार कंपन प्रति सेकेंड (20000Hz or 20 KHz) वाली ध्वनियों तक को ही सुन सकते हैं। इससे अधिक हर्ट्जवाली ध्वनियों को 'पराश्रव्य' (Ultra-sonic) कहा जाता है। वैज्ञानिक भाषा में वायुकणों (Air-particles) के दबाव (Compression) तथा विरलन (Rare faction) के कारण वायुमंडल में होनेवाले उतार-चढ़ावों या परिवर्तनों (Variations) से ही ध्वनियाँ निःसृत होती हैं। भारतीय संदर्भो में इन्हें आधिभौतिक ध्वनियाँ कहा गया है। इसी परिप्रेक्ष्य में भौतिक उपकरणों के कृत्रिम घर्षण या आघात द्वारा वायुकणों को उद्वेलित करके भी कुछ ध्वनियाँ प्रकट की जाती हैं। घंटा, घड़ियाल, ढोल-मंजीरा, कॉल-बेल, टेलीफोन की घंटी, गाड़ियों की गड़गड़ाहट आदि को इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। इन्हें सामान्यतः भौतिक ध्वनियों की संज्ञा दी जा सकती है। वायुमंडलीय दबाव (Atmospheric Pressure) से होने वाले परिवर्तनों द्वारा निःसृत इन ध्वनियों के अतिरिक्त अंतरिक्ष में व्याप्त आधिदैविक शक्तियों के परस्पर आकर्षण-विकर्षण से परमेष्ठिमंडलों (Super Atomic Space) में भी कुछ अति विशिष्ट प्रकार की ध्वनियाँ प्रस्फुटित होती रहती हैं। अपोलो अभियान पर गए नासा के अंतरिक्ष यात्रियों को शून्य में अनुभूत हुई कुछ अद्भुत ध्वनि-तरंगें किंचित् इसी श्रेणी की ही रही होंगी। भारतीय मान्यताओं के अनुसार नाद (स्फोट) अर्थात् ध्वनि की मूल उत्पत्ति परम् ब्रह्म से निःसृत तेज से हुई थी और प्रकारांतर में इसका प्रसारण आधिदैविक तथा आधिभौतिक रूपों से होता हुआ विद्युत-चुंबकीय तरंगों (Electro-Magnetic waves) के माध्यम से अंततः समस्त ब्रह्मांड में फैल गया। ऋग्वेद के प्रथम मंडल का मंत्र (163-1) इसी ओर संकेत करते हुए यह उद्घोषित करता है कि अनंत चेतना से सर्वप्रथम उत्पन्न हुई ऊर्जा (तेज) घोर नाद करती हुई तीव्र गति से अंतरिक्ष में सर्वत्र फैल गई थी (यदक्रन्दः प्रथमं जायमान उद्यन्त्समुद्राद्रुत वा पुरीषात)। आधुनिक विज्ञान भी यही मानता है कि समस्त ब्रह्मांड ऊर्जा से ही निर्मित है और इस ऊर्जा को न तो समाप्त किया जा सकता है, न ही विखंडित। कोई ऐसा उपाय भी नहीं है कि इसे उत्पन्न किया जा सके। उसके अनुसार इसी ऊर्जा से ध्वनि की उत्पत्ति हुई है। संभवतः सृष्टि के प्रारंभ में परम चेतना द्वारा तेज (ऊर्जा) व नाद (शब्द) एक साथ ही उत्सर्गित हुए होंगे, किंतु अपनी-अपनी नैसर्गिक गतियों के अनुरूप वे प्रकारांतर में ही अनुभूत हो पाए हों। उदाहरण के लिए, आकाश में मेघों के आपसी घर्षण से विद्युत् व गर्जना एक ही साथ निःसृत होते हैं, परंतु अपनी चपलता के कारण प्रकाश की चमक गड़गड़ाहट से पूर्व ही प्रकट हो जाया करती है। किंचित् ऊर्जा से शब्द की उत्पत्ति-संबंधी अवधारणाओं के मूल में गति की विभिन्नताएँ ही कारण रही होंगी। इस मतांतर के उपरांत भी आधुनिक विज्ञान व भारतीय दर्शन इस बात पर एकमत दिखते हैं कि नाद और ऊर्जा-दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। चूँकि ध्वनि भी ऊर्जा का ही एक रूप है। अतः यह भी आदि और अंत से रहित तथा सर्वव्यापक है। इस दृष्टि से सृष्टि-निर्माण में दोनों की सहभागिता स्पष्ट रूप से प्रमाणित होती है। इसी आधार पर भारतीय आस्थाओं में सृष्टि के कारक रूपी तेज व शब्द की अभ्यर्थनाएँ ज्योतिर्ब्रह्म व नादब्रह्म के आलंकारिक विशेषणों से भी की गई हैं। घोरतम ब्रह्मनाद तथा इसकी प्रतिध्वनियों के रूप में प्रसारित घोर देववाक् (आधिदैविक व आधिभौतिक ध्वनियों) की तुलनाओं में जैविक प्राणियों द्वारा उद्घोषित ध्वनियाँ अपेक्षाकृत अति सामान्य व सीमित स्तर की होती हैं। जैविक प्राणियों के क्रम में मानवों द्वारा उच्चारित आक्षरिक (syllabic) तथा अनाक्षरिक (Non-Syllabic) ध्वनियों से प्रस्फुटित वर्णों (Alphabet) की नींव पर ही अंततः आधुनिक भाषा का यह बहुमंजिला भवन निर्मित हो पाया है।

अब प्रश्न उठता है कि हूह, होह्, खिक्, ओह्, पूह, फिस्स आदि अस्फुट ध्वनियों को निकालनेवाले अद्यतन मानव, आक्षरिक तथा अनाक्षरिक जैसे स्पष्ट ध्वनियोंवाले वर्गों को उच्चारित तथा चिह्नित किस प्रकार से कर पाए होंगे? फिर आदि मानवों द्वारा इन वर्गों के संयोग से शब्दों की व्युत्पत्तियाँ किस प्रकार से संभव हो पाई होंगी तथा इन शब्दों का अर्थों से संबंध कैसे स्थापित हुआ होगा? भाषाविदों से लेकर साधारण जनों तक को उद्वेलित करनेवाले इन यक्ष-प्रश्नों के समाधान हेतु तात्कालिक मानवों का प्रकृति से सामंजस्य स्थापित करने की असाधारण क्षमताओं का आकलन किया जाना भी आवश्यक हो जाता है। भर्तृहरि के अनुसार ईश्वरीय देन के रूप में विद्यमान् यह 'प्रतिभा' प्रत्येक जीव में पृथक्-पृथक् अंशों में रहती है और आवश्यकतानुसार विभिन्न स्थितियों में वह इन जीवों को क्षमतानुसार कार्य करने की प्रेरणा देती है (यथा द्रव्यविशेषाणां परिपाकैरयत्नजाः मदादिशक्तयो दृष्टाः प्रतिभास्तद्वतां तथा-वाक्यपदीय-2.148)। वसंत ऋतु में कोयल द्वारा उच्चारित मधुर ध्वनि; बया आदि पक्षियों द्वारा निर्मित सुंदर घोंसले; मकड़ी द्वारा बुना गया जटिलतम जाल; वर्षा से पूर्व चीटियों द्वारा निर्मित सुरक्षित विवरों में विस्थापन आदि असाधारण कृतित्व इन्हीं के कुछ उदाहरण हैं। यह सर्वविदित है कि मानव स्वभावतः अनुकरणशील होता है। अनुकरण की इस प्रक्रिया में उसका स्वत्व उभरकर सामने आ जाता है। व्यक्ति का aस्वत्व उसके ज्ञान के आधार पर विकसित होता है। ज्ञान की प्रखरता चिंतन व मनन से निखरती है। चिंतन व मनन की निपुणताएँ स्मृति-तंत्र की कुशलताओं पर निर्भर रहती हैं और स्मृति-तंत्र की कुशलताएँ अभ्यास के द्वारा ही उत्कृष्टताओं को प्राप्त करती हैं। मानवों का यही वैशिष्ट्य उसे इतर जीवों से अलग करता है, अन्यथा आहार, निद्रा, भय, मैथुन आदि स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ तो सभी प्राणियों में समान रूप से विद्यमान रहती हैं (आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्यमेतत्पशुभिः नराणाम्, ज्ञानं हि तेषामधिको विशेषो ज्ञानेन हीनाः पशुभिः समानाः)। प्रसिद्ध समाजशास्त्री R.M. Maciver ने अपनी चर्चित पुस्तक 'Society' में कुछ इसी तरह के भावों को व्यक्त किया है। मनुष्यों के स्वभाव का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं--"Human being are certainly imitative, but in the process of imitation their own social natures are gradually developed." इस तथ्य के प्रमाण हेतु तोता और मानव-शिशु के दृष्टांतों का उल्लेख किया जा सकता है। मनुष्यों द्वारा सिखाए जाने पर तोता कुछ मानवी शब्दों को बोलना तो सीख लेता है, किंतु भावाभिव्यक्ति के लिए मनुष्यों जैसी भाषा का प्रयोग नहीं कर पाता है। इसके विपरीत मानव-शिशु अपनी नैसर्गिक प्रतिभा के बल पर परिवार व समाज के वरिष्ठ सदस्यों की बोली व व्यवहार की नकल करते हुए अंततः अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व निर्मित कर लेता है। मनोवैज्ञानिकों द्वारा किए गए परीक्षणों से यह भी सिद्ध हो चुका है कि मानवी परिवेश से वंचित रखे गए शिशुओं का मस्तिष्क अविकसित ही रह जाता है, जबकि एकाकी परिवेश में पल्लवित किए गए शिशु प्रायः गूंगे ही निकलते हैं। इन साक्ष्यों से यह स्पष्ट हो जाता है कि मानवों को भाषा व व्यवहार-संबंधी प्राथमिक शिक्षाओं का पाठ पढ़ाने के लिए एक अदद शिक्षक व सम्यक् मानवी परिवेश की अनिवार्यता होती है। चूंकि अद्यतन मानवों का न तो कोई पूर्वज रहा था, न ही कोई अभिभावक और न ही कोई मानवी परिवेश। अतः उनके अंदर भाषा व व्यवहार-संबंधी मानवी गुणों का अंकुरण प्राकृतिक शक्तियों की अतिशय सहयोगी भूमिकाओं के कारण ही संभव हो पाया होगा। अनुभव बताते हैं कि इंद्रियजनित अपंगताओं की स्थिति में संबंधी मानव की अतींद्रिय क्षमताओं में अभूतपूर्व निखार आ जाता है। संभवतः संपूर्णतः प्रकृतिवत् रहे आद्य मानवों में विवेक की कोंपलें उनकी इन्हीं अति विकसित अतींद्रिय क्षमताओं (प्रतिभाओं) के कारण ही अंकुरित हो पाई होंगी। जिस प्रकार दृश्यग्राह्य यंत्र (Spectrograph) प्रकाश व ध्वनि की आवृत्तियों को अलग करते हुए उन्हें पृथक्-पृथक् रूप से एकत्र कर लेती हैं, उसी प्रकार प्रतिभा भी मस्तिष्क ग्रंथियों द्वारा गृहीत ज्ञान व तत्त्व की मीमांसा करके यह निर्णय करती है कि उनमें से कितना अंश ग्राह्य है और कितना त्याज्य । प्रतिभा के इसी गुण-विशेष के कारण ही उसे शास्त्रों में नवनवोन्मेषशालिनी प्रज्ञा की संज्ञा से भी विभूषित किया गया है (प्रज्ञा नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा मता)। नव-नवोन्मेष प्रज्ञा की अपनी इसी विशिष्टता के कारण प्रतिभा व्यक्ति-भेद के आधार पर एक ही तत्त्व या ज्ञान को विभिन्न रूपों में प्रस्तुत करती है। इसी तरह व्यक्ति, काल तथा स्थान के आधार पर भाषा-भेद की संभावनाएँ भी बलवती हो जाती हैं। प्रकृति में व्याप्त ज्ञानवर्द्धक सूक्ष्मातिसूक्ष्म तरंगों को ग्रहण करने के लिए अपरिमित क्षमताओंवाले दिव्य संकेतकों की आवश्यकताएँ होती हैं। रेडियो तथा दूरदर्शन प्रसारण केंद्रों में लगे कुछ इसी तरह के साधारण उपकरणों (Modulator) के द्वारा इलेक्ट्रोमैग्नेटिक वेवों के माध्यम से संचारित की गई ध्वनियों व चित्रों को दूरदराज के श्रोता व दर्शक निश्चित प्रायिकताओं (Frequencies) पर अपने घरेलू उपकरणों (Radio/TV) की सहायता से समय के उसी अनंतर (Fraction of time) में बड़ी सहजता से सुन और देख सकते हैं। किंचित् कृत्रिम प्रदूषणों से सर्वथा मुक्त रहे तात्कालिक वातावरणों में जनमे आद्य मानवों की अति संवेदनशील मस्तिष्क ग्रंथियाँ प्रकृति में सतत प्रवाहित रही ध्वनि-तरंगों को ग्राह्य करने की परिणामजनित (Modulator जैसी) क्षमताओं से परिपूर्ण रही होंगी। इस प्रकार अद्यतन मानवों में से कुछ विशिष्ट प्रतिभा वाले चिंतकों ने अपनी प्रज्ञा के बल पर वातावरण में गुंजायमान हो रहे विशिष्ट ध्वनि-तरंगों (Unique Sound Waves) को सुनने, समझने व तदुपरांत मानवी सामर्थ्य के अनुसार उसे अपने वाग्यंत्रों (Vocal Organs) के माध्यम से दुहराने का प्रयास किया होगा। इसी उपक्रम में उनके द्वारा उच्चारित हुई ध्वनियों से ही आक्षरिक व अनाक्षरिक वर्णों व पदों का स्वरूप उभरा होगा। कालांतर में मानवीय समाज की संरचना के पश्चात् संपर्क-सूत्र हेतु उत्पन्न हुई आवश्यकताओं के अनुरूप इन्हीं आद्य-उद्घोषकों द्वारा क्रियात्मक गुणों को प्रकट करनेवाले आशयों को संकेत देने के लिए चिह्नित किए गए अर्थमूलक शब्दों के आधार पर सृजित हुए वाक्यों से ही प्रथम मानवी भाषा का आविर्भाव हुआ होगा। इस दैवीय सिद्धांत के तहत ही विश्व की सभी आस्थाओं में उनके पूर्व या प्रथम पुरुष के साथ आद्य गुरु की मान्यताएँ भी पल्लवित हुई थीं।

वैदिक ग्रंथों के संदर्भ तो ज्ञान व भाषा से संबंधित उपर्युक्त संभावनाओं को प्रामाणिक ही सिद्ध करते हैं। ऋग्वेद (1-163/1/2/3) के अनुसार, परम चेतना से स्फूर्त हुई अप्रतिम ऊर्जा के वेग से ही प्रकृति का शैथिल्य उत्सारित हुआ था। इस संघात के परिणामस्वरूप सुसुप्त प्रकृति में तेज व नाद के रूपों में व्याप्त हुई ऊर्जा के द्वारा ही सृष्टि की कारक शक्तियाँ जाग्रत् हो पाई थीं। ऋग्वेद (1-16442) के अनुसार, सृष्टि-रचना के साथ ही वाणी का प्राकट्य हुआ था और तदंतर प्रकृति के परमाणुओं के साथ ही यह प्रसारित होती गई (तस्याः समुद्रा अधिविक्षरिन्त तेनजीवन्ति प्रदिशश्चतस्त्रः, ततः क्षरत्यक्षरं तद् विश्वमुपजीवति)। शतपथ ब्राह्मण (11/1/6/1) के अनुसार, प्रकृति के स्पंदित होने से उत्सर्जित हुई ध्वनियों (स्फोट) का मूल स्वरूप एकाक्षरिक (Mono-syllabic) तथा द्वयाक्षरिक (Bi-syllabic) स्वरों की भाँति का रहा था। ऋग्वेद (1-164/24) में इसी भाव को 'गायत्रेण प्रतिमिमीते अर्कमर्केण सामत्रैष्टुभेन वाकम्, वाकेन वाकद्विपदा चतुष्पदा अक्षरेणमिमते सप्तवाणीः' के रूप में प्रकट किया गया है। सृष्टि-संरचना के इसी क्रम में परमाणु आदि के निर्माणोपरांत प्रकट हुई विभिन्न प्राकृतिक-शक्तियों के आपसी आकर्षण-विकर्षण से प्रस्फुटित हुए कलरवों से ही त्रयाक्षरिक, चतुराक्षरिक, पंचाक्षरिक व अनाक्षरिक ध्वनियों का स्वरूप उभरकर सामने आया था। वेदों में इन्हीं परिदृश्यों का आलंकारिक वर्णन करते हुए कहा गया है कि 'अपने आविर्भाव के पश्चात् विश्वेदेवाः (यानी विश्व के देवता या जगत् के दिव्य पदार्थ) ब्रह्म द्वारा प्रदत्त सामर्थ्य के अनुरूप विभिन्न छंदों का उच्चारण करने लगे थे।' ऋग्वेद (10-130/4,5) के अनुसार अग्नि नामक रौद्र शक्ति के प्रभाव से उत्सर्जित हुई ध्वनियों को गायत्री छंद के रूप में, सविता नामक प्राणदायिनी शक्ति के सहयोग से उष्णिक् छंद, सोम नामक अमृतमयी शक्ति के सहयोग से अनुष्टुप् छंद, बृहस्पति नामक प्रज्ञाशक्ति द्वारा बृहती छंद, मैत्रावरुण नामक युग्म शक्तियों के प्रभाव से विराट् छंद, इंद्र नामक उक्रांतिदायक शक्ति के सहयोग से त्रिष्टुप छंद तथा शेष अन्य दिव्य शक्तियों के सहयोग से गुंजायमान हुई ध्वनियों को जगती छंद के रूप में चिह्नित किया गया है (अग्नेर्गायत्र्य भवत्सयुग्वोष्णिया सविता सं बभूव अनुष्टुभा सोम उक्थैर्महस्वान्वृहस्पतेर्बहती वाचामावत, विराण्मित्रावरुणयोरभिश्रीरिन्द्रस्य त्रिष्टुविहभागो अनः विश्वान्देवांजगत्या विवेश)।

गायत्री छंद चौबीस अक्षरों का, उष्णिक छंद अट्ठाईस अक्षरों का, अनुष्टुप् छंद बत्तीस अक्षरों का, विराट् छंद चालीस अक्षरों का, त्रिष्टुप छंद चौवालीस अक्षरों का व जगती छंद अड़तालीस अक्षरों का होता है। प्रकृति के परमाणुओं में हुए उद्वेलनों से निःसृत हुए इन सप्तवाणीः या मूल सात छंदों (ध्वनिस्वरूपों) की प्रतिध्वनियों से ही पंक्ति, ककुप आदि उपछंदों का अस्तित्व उभरकर सामने आया था। इन्हीं छंदों व उपछंदों के द्वारा मंत्रों तथा पदों का स्वरूप प्रकट हुआ। ऋग्वेद (8-109/10) के अनुसार, 'निगूढ़ अर्थोंवाली वाणी सर्वप्रथम देवता में स्थापित हुई और फिर ज्ञान को दुहनेवाली ऊर्जा की भाँति चारों दिशाओं में फैलकर बरसने लगी' (यद्वाग् वदन्त्याविचेतनानि राष्ट्री देवानां निषसाद मंद्रा, चतस्त्र ऊर्ज दुदुहे पयांसि क्व स्विदस्याः परम जगाम्)। अंतरिक्ष में व्याप्त इन सूक्ष्म ध्वनि-तरंगों को अपनी प्रज्ञा के बल पर अनुभूत कर तथा इनके अर्थों का अनुमान लगाकर ज्ञानवान हुए कुछ विशिष्ट प्रतिभावान आद्य-पुरुषों (ऋषियों) ने सम्यक् मनन व अभ्यास के उपरांत इन्हें उसी लय में दुहराने का प्रयास किया। इस प्रकार इन प्रतिभासंपन्न आद्य पुरुषों की स्वर-तंत्रिका से उच्चारित हुई विशिष्ट ध्वनियों (मंत्रों) से ही पदों (शब्दों) तथा इन्हीं अर्धमूलक शब्दों के आधार पर सृजित हुए वाक्यों से ही मानवी-भाषा का प्रथम स्वरूप अस्तित्व में आया (सहस्तोमाः सहछन्दसः आवृतः सहप्रमाऋषयः सप्त दैव्याः-ऋग्वेद-10-130/7)। ऋग्वेद का दसवाँ मंडल (10-130/6) यह बताता है कि 'देवताओं द्वारा उच्चारित इन्हीं छंदों व उपछंदों का अनुभव ऋषिगण अपने मन के चक्षुओं से करके इसके मनन द्वारा स्वयं ज्ञानवान हुए, फिर इस देववाक् को अपनी वाणी द्वारा प्रकट करते हुए अन्य मनुष्यों (पितरों) को भी ज्ञानवान किया' (चाक्लृपे तेन ऋषयो मनुष्या यज्ञे जाते पितरो नः पुराणे, पश्यन्मन्ये मनसा चक्षसा तान्य इमं यज्ञमयजंत पूर्वे)। भारतीय ग्रंथों में प्रत्येक मंत्र से पूर्व के विनियोग प्रभाग में उल्लिखित मंत्र प्रणेता ऋषि, उद्गमित स्रोत अर्थात् प्राकृतिक (दैविक) शक्ति के नाम व ध्वनि-प्रभाव (बीज) सहित इंद्रादि का संदर्भ इन तथ्यों का अकाट्य प्रमाण प्रस्तुत करता है। मंत्र संस्कार (वागर्थाविव संपृक्तौ) के उपर्युक्त आधार पर निरूपित ऋग्वेद (8-10011) के इस कथन को कि 'वाग्देवी (भाषा) को देवों ने उत्पन्न किया था और इसे ही सभी प्राणी बोलते हैं' (देवी वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरुपाः पशवो वदन्ति) जर्मन तथा ग्रीक के विद्वानों ने भी माना था। प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् सुसमिल्श यह मानते थे कि 'भाषा मानवकृत नहीं है, अपितु परमात्मा से साक्षात् उपहार के रूप में प्राप्त हुई है' (Language could not have been imented by man, but was a direct gift from God.—Sussmilch, as quoted by Otto Jespersen in Language', Page No. 27)।

छंदमय होने के कारण मनुष्यों द्वारा व्यवहृत हुई इस 'आद्य भाषा' को वेदों में जहाँ 'राष्ट्री' की संज्ञा से विभूषित किया गया है, वहीं शौनकीय बृहदेवता (4/ 113) में इसे 'सौरी' (सुरों में प्रवृत्त रहनेवाली) कहकर भी चिह्नित किया गया है (तस्मै तु सौरी नाम्ना वाच)। आधुनिक भाषाविदों द्वारा किए गए अध्ययनों से भी यह प्रमाणित हो चुका है कि आज की तुलना में अद्यतन भाषाओं का स्वरूप अधिक क्लिष्ट व स्वराघातों (सुरों) से परिपूर्ण रहा था। वैदिक संस्कृत व होमरिक ग्रीक में संगीतात्मक स्वरों की उपस्थिति इन्हीं तथ्यों को पुष्ट करती है। विश्व की प्रथम कृति के रूप में विख्यात ऋग्वेद तो संपूर्णतः पद्यमय ही है। अफ्रीका की पुरातन बोलियों व भाषाओं में भी कुछ इसी प्रकार के संकेत मिलते हैं। इन आधारों से यह स्पष्ट हो जाता है कि आरंभिक चरण में भाषा का स्वरूप पद्यमय या गीतमय ही रहा था। इस प्रकार देववाक् के अनुकरण द्वारा अर्थमूलक वाणी के प्रयोगादि में पारंगत हो जाने के पश्चात् छंदों के माध्यम से अंतरिक्ष में कट-कटकर तरंगित हो रहे एक, दो, चार, आठ व नौ पदोंवाले मंत्रों (गौरीमिमाय सलिलानि तक्षत्येकपदी विपदी सा चतुष्पदी अष्टापदी नवपदी बभूवुषी सहस्त्राक्षरा परमे व्योमन्-ऋग्वेद-1-164/41) के भावों को हृदयंगम कर ऋषियों ने इन्हें ऋचाओं व सूक्तों में निरूपित करना प्रारंभ किया। अंतरिक्ष में प्रवाहित हो रही दिव्य ध्वनियों को श्रवण कर उन्हें मंत्रों के माध्यम से वेद (यानी ज्ञानपुंज) के रूप में प्रकट किए जाने के कारण ऋषियों के इन संकलनों को भारतीय वाङ्मय में जहाँ 'श्रुति' कहकर चिह्नित किया गया, वहीं अंतरिक्ष में व्याप्त ध्वनि-तरंगों को अपनी प्रज्ञा-चक्षु से अनुभव करके इन्हें मंत्रों के रूप में प्रकट करनेवाले ऋषियों को 'द्रष्टा' तथा इन द्रष्टाओं द्वारा निरूपित किए गए आप्त विचारों को 'दर्शन' की यथायोग्य संज्ञाओं से भी विभूषित किया गया। इसी परिप्रेक्ष्य में मानवों को संस्कारित करने के उद्देश्य से व्यक्त की गई इन सारगर्भित श्रुतियों की भाषा (अर्थात् राष्ट्री या सौरी) को भी तदनुरूप सम+कृत ('संस्कृत') के भावबोधक संबोधन से ही उद्बोधित किया जाने लगा। इस तरह देववाक् (अंतरिक्ष की ध्वनि-तरंगों) के मानवी संस्करण के रूप में परिणित हुई राष्ट्री या सौरी ही 'संस्कृत' के अपने पर्याय के साथ विश्व की प्रथम भाषा होने के श्रेय को प्राप्त करने में सफल रही। चूँकि वेदों की रचना संस्कृत भाषा में हुई है और इन्हें विश्व की प्राचीनतम कृति माना जाता है, अतः ऋग्वेद में उल्लिखित सरस्वती व दृषद्वती नामक नदियों के भौगोलिक संदर्भ तथा 'भारतस्य प्रतिष्ठे द्वै संस्कृत चैव संस्कृति' की प्रसिद्ध युक्ति इसके (अर्थात् संस्कृत भाषा के) उद्भव-स्थान के रूप में 'भारत' को ही रेखांकित करती है। कालांतर में परिस्थिति-भेद, स्थान-भेद व काल-भेद के कारण ध्वनि, शब्द, रूप, अर्थ एवं वाक्य के स्तरों में इनमें परिवर्तन आता गया (अवस्थादेशकालानां भेदा भिन्नासु शक्तिषु-वाक्यपदीय, 10-1-32) और इस प्रकार स्थान, काल व सभ्यताओं के अनुरूप भाषा व लिपि के विभिन्न स्वरूप उजागर होने लगे।

भारतीय शास्त्रों के संदर्भ यह इंगित करते हैं कि श्रुतियों के संकलनों के पश्चात् औपमन्यव, स्थौलाष्ठोवि, वार्ष्यायणि, क्रौष्टुकि आदि आद्य भाषाविदों ने इनमें प्रयुक्त शब्दों की स्पष्टता के लिए 'निघंटु' नामक शब्द-शास्त्रों की रचना की थी। इन निघंटुओं के अनुसार, तात्कालिक समय में आक्षरिक तथा अनाक्षरिक वर्णो की कुल संख्या लगभग 76 रही थी। परिस्थितिजन्य कारणों से संस्कृत वर्गों में आए सामयिक क्षरणों के साथ-साथ इसकी कुछ क्लिष्ट ध्वनियाँ व कटिन शब्द भी तदनुरूप लुप्त होते गए। इस क्षरण के परिणामस्वरूप यास्क द्वारा रचित 'निरुक्त' नामक व्युत्पत्ति-शास्त्र तक इनकी संख्या घटकर 63 या 64 (त्रिषष्टिश्चतुःषष्टिर्वा वर्णाः शम्भुमते मताः-पाणिनीय शिक्षा-3) एवं पाणिनि के पश्चात् सिमटकर 53 (यानी 16 स्वर तथा 37 व्यंजन) हो गई। 'प्रपंचसार' आदि ग्रंथों के अनुसार इन 53 वर्गों के प्रणेता ऋषि, छंदादि व इनमें निहित प्रभाव निम्नांकित हैं-

वर्ण    प्रणेता ऋषि  ध्वनि-प्रभाव  छंदादि
अ     अर्जुन्यायन   मृत्युबीज    मध्या
आ      "         पूषाबीज      "
इ      भार्गव      पुष्टिबीज     प्रतिष्ठा
ई       "         आकर्षणबीज   "
उ      अग्निवेश्य बलदायकबीज    सप्रतिष्ठा
ऊ      "        उच्चाटनबीज     "
ऋ      "        स्तंभनबीज     "
ऋ      गौतम     मोहनबीज     गायत्री
लृ       "       विद्वेषणबीज     "


वर्ण    प्रणेता ऋषि   ध्वनि-प्रभाव    छंदादि
लृ      "           मरुतबीज     "
ए      "           सोमबीज      "
ऐ     लौहित्यायन    सविताबीज    अनुष्टुप्
ओ     "            वसुबीज      "
अं      "            पशुवश्यबीज   "
अ:     मांडव्य        मृत्युनाशकबीज   दंडक
क     मौद्गायन      विषबीज      पंकितम्
ख     अज          स्तंभनबीज    त्रिष्ठुप
ग     "            सोमबीज      "
घ     "            मारणबीज     "
ड़     "            त्वष्ठाबीज     "
च    योग्यायन      चंद्रबीज       जगती
छ    गोपाल्यायन    मृत्युनाशक    अतिजगती
ज     नषक       ब्रह्मबीज       शक्वरी
झ     अज        चंद्रबीज        "
ञ     कश्यप      मोहनबीज      अतिशक्वरी
ट     शुनक       क्षोभणबीज     अष्टि
ठ     सौमनस्य    घातबीज       अत्यष्टि
ड     करण       आप:बीज       धृति
ढ     मांडव्य      श्रीबीज        अतिधृति
ण     "          असुरबीज       "
त     सांकृत्यायन  अष्टशक्तिबीज   कृति
थ     "          यमबीज       "
द     "          शक्तिबीज     "
ध     "          मित्रबीज      "
न     कात्यायन    पुष्टिबीज     प्रकृति
प      "          वरुणबीज     "
फ     "          अरुणबीज     "


वर्ण    प्रणेता ऋषि     ध्वनि-प्रभाव    छंदादि
ब      दाक्षायण       विष्णुबीज      आकृति
भ      व्याघ्रायण      भद्रकालीबीज    विकृति
म      शांडिल्य       रुद्रबीज         संकृति
य      कांडिल्य       वायुबीज        अतिकृति
र      "             अग्निबीज        "
ल     दांड्यायन       इंद्रबीज         उत्कृति
व     जातायन        वरुणबीज       "
श     लाट्यायन      कल्याणबीज      "
स     जय          वाणीबीज         "
ष     "            आकाशबीज       "
ह     "            सूर्यबीज         "
ल्    मांडव्य        अग्निबीज       "
क्ष    "             पृथ्वीबीज      "
त्र    क्रौष्टुकि       मेधाबीज        संस्कृति
ज्ञ     "           भगबीज        "


संस्कृत भाषा के अध्ययन के उपरांत जर्मन मूल के प्राध्यापक विंटर्निट्ज ने भी कुछ इसी प्रकार के मतों को व्यक्त किया था-(Thus for instance, Ancient High Indian, has a subjunctive which is missing in Sanskrit, it has a dozen different infinitive-endings, of which but one single one remains in Sanskrit. The aorists, very largely represented in the Vedic language, disappear in the later Sanskrit more and more. Also the case and personal endings are still much more perfect in the oldest language than in the later Sanskirt. - Ref. History of Indian Literature by Prof. M Winternitz, Vol.-I, page-42)। प्रसिद्ध इतिहासज्ञ रैपसन का भी यही मानना था कि पाणिनि के व्याकरण-शास्त्र के पश्चात् परिवर्तित हुए संस्कृत के रूप पुराने लौकिक तथा अतिपुरातन वैदिक संस्कृत की अपेक्षा प्रकारांतर में संकुचित होते गए (The Language also of the Vedic Literature is difinitely anterior to the classical speech as prescribed in the epoch-making work of Panini;  even the Sutras, which are undoubtedly later than the Brahmans, show a freedom which is hardly conceivable after the period of the full influence of Panini. Ref.-Cambridge History of Ancient India by E.J. Rapson, Vol. I, Page 113)। कालांतर में नवीन भाषाओं के आधिपत्य के कारण लोक-व्यवहार में उपेक्षित सी हो गई संस्कृत के वर्ण भी तदनुसार घटकर 48 ही प्रचलन में रह गए।

संस्कृत की 'भाष्' धातु (भ्वादिगणी, जिसका आशय होता है-बोलना या कहना) से व्युत्पन्न हुई 'भाषा' में प्रकारांतर आए इन परिवर्तनों या क्षरणों के मुख्य कारण वाचिक असंगतियाँ ही रही हैं। भाषा की निरंतरता सामान्यतः अभ्यास व अनुकरण की प्रणालियों पर ही अवलंबित रहती हैं। लिपियों का प्रचलन न होने के कारण आदिम युग में श्रुतियों के रूपों में परिवर्धित हुई भाषा को पीढ़ी-दर-पीढ़ी बनाए रखने के लिए अभ्यास व अनुकरण के अचूक सिद्धांत के तहत गुरु-शिष्य परंपरा का विकास किया गया। इस प्रक्रिया के तहत मंत्रों से लेकर श्लोकों या फिर ऋचाओं व सूक्तों से लेकर मंडलों व कांडों तक को कंठस्थ ही नहीं किया जाता रहा, अपितु इनके उच्चारणों तथा गायन विधाओं का सम्यक् अभ्यास द्वारा यथावत् दुहराने का प्रयास भी किया जाता रहा। वैदिक वाङ्मय के विशाल स्वरूप को सँजोए रखने के उद्देश्य से विषयानुरूप पारंगत रहे आचार्यों ने उचित स्थानों पर अपने-अपने गुरुकुलों को स्थापित कर रखा था। विषयानुरूप प्रतिष्ठित रहे इन गुरुकुलों की शाखाओं से दीक्षित होकर निकले शिष्यों को समाज में उनके संबंधित गुरुओं के प्रवरों व गोत्रों (यथा भार्गव, भरद्वाज, कौशिक, काश्यप आदि) या फिर विषयानुरूप उनकी सिद्धताओं (अर्थात् यजुर्वेदी या द्विवेदी, सामवेदी या त्रिवेदी, चतुर्वेदी, ब्राह्मण, शास्त्री आदि) के आधारों पर ही चिह्नित किया जाता रहा था। वस्तुतः ये सब उपाधियाँ आधुनिक युग के कैंब्रिज प्रोडक्ट, ऑक्सफोर्ड प्रोडक्ट, सिलिकॉन प्रोडक्ट, साइंटिस्ट, डॉक्टर, इंजीनियर, विजनेस-मैनेजर या आई.टी. प्रोफेशनल जैसी ही थीं। कालांतर में जनसंख्या वृद्धि के फलस्वरूप विस्तारित हो रहे मानवी समाज को अनुशासित करने के लिए नित-नवीन स्मृतियों की रचनाओं के साथ-साथ इन गुरुकुलों में इन्हीं के पठन-पाठन पर जोर दिया जाने लगा। इस प्रकार नए विषयों (स्मृतियों) के आगमन से पुराने (श्रुतियों) के प्रति अपनाई गई स्वाभाविक उदासीनताओं ने भाषा के आदिम प्रवाह को एक नया मोड़ दे दिया। काल-भेद के तात्कालिक परिवेश के अनुरूप अपनाई गई स्मृतियों की अपेक्षाकृत सरलतम शैलियों ने अंततः ध्वनि, शब्द, रूप, अर्थ व वाक्य के स्तरों पर श्रुतियों की भाषा को अपने ढंग से प्रभावित करना प्रारंभ कर दिया। उदाहरण के लिए, वैदिक भाषा में प्रयुक्त ळ, व्ह, जिह्वामूलीय व उपध्मानीय ध्वनियाँ; लृ, उदात्त व प्लुत स्वर; ईम्, सीम्, वै आदि निपात; अक्तु, अर्जुनी, श्वेत्या, गातु, ग्मा, ज्मा आदि शब्द शनैः-शनैः लुप्त हो गए और इसी के साथ-साथ अच्, अम्, क्षद्, जिन्व्, ध्रज् आदि धातुएँ भी अप्रयुक्त होती गईं। इधर भौगोलिक, जलवायविक व सामाजिक निर्वासनों के कारण यायावर बनने के लिए बाध्य हुए कुछ समूह भी प्रकारांतर में गुरुकुलों के आधार-स्रोत से मूलतः कटते ही गए। स्रोत-विहीनता की इस स्थिति में इनके द्वारा कुछ भाषिक तथ्यों को या तो छोड़ दिया गया या फिर कुछ नए रूपों को अपनी सुविधानुसार जोड़ लिया गया। स्थान-भेद द्वारा उत्पन्न इसी छोड़ने व जोड़ने की प्रवृत्तियों के कारण पीढ़ी-दर-पीढ़ी विकसित हुई इनकी भाषाओं में आमूल बदलाव भी आता गया। इसके अतिरिक्त इन विस्थापनों के फलस्वरूप बदले जलवायविक व भौगोलिक प्रभावों के कारण आए शारीरिक परिवर्तनों, नए परिवेश में जीविकोपार्जन से संबंधित उदित हुई समस्याओं व व्यस्तताओं के कारण खंडित हुई एकाग्रताओं या फिर शिक्षा-संबंधी व्यवधानों ने देश-काल के हिसाब से रूपांतरित हो चुकी इनकी बोलियों को परिस्थिति-भेद के अनुरूप अनेकानेक ढंग से संक्रमित करना प्रारंभ कर दिया। वैदिक ऋषि अत्रि, गाथ, गालव के आश्रमों से बिछुड़े शिष्यों द्वारा सुदूर पश्चिम में विस्थापित हुए समाज द्वारा उच्चारणगत दोषों सहित प्रकारांतर में अपनाई गई शैलियों से निःसृत हुई एट्टिक (ग्रीस पूर्व की भाषा), गॉथिक (जर्मनिक शाखा की प्राचीन भाषा), गेलिक (मध्य यूरोप की मृत भाषा) तथा किरात, पुलिंद, मय परिवारों द्वारा प्रसूत समाज की बोलियों से ही चीनी, ऑस्ट्रो-एशियाटिक तथा अमेरिका की प्राचीन भाषाओं का स्वरूप उभरकर सामने आ पाया था। इस प्रकार काल-भेद के प्रभावों द्वारा प्रकारांतर में सरलतम हुई मूल वैदिक भाषा से लौकिक व पाणिनि-पश्चात् की संस्कृत, स्थान-भेद के कारण फिर इनके अपभ्रंश से निःसृत हुई प्राकृत, अवेस्ता, म्लेच्छ, दरद, आसुरी, यवन, पहलवी, पालि आदि प्राचीन भाषाएँ एवं परिस्थितिजन्य कारणों से कालांतर में इन्हीं के ही गर्भ से विश्व की अन्यान्य भाषाओं व बोलियों का क्रमशः विकास होता गया।

आधुनिक भाषाविद् भी यही मानते हैं कि आरंभिक अवस्था में भाषाओं के शब्द अपेक्षतया लंबे व उच्चारण की दृष्टि से अधिक क्लिष्ट रहे थे (It is observed that everywhere the tendency to make pronunciation more easy, so as to lesser the muscular efforts; difficult combinations of sounds are discarded... Modern research has shown that the ProtoAryan sound systems and vocabularies were much more complicated than was imagined in the reconstruction of the middle of the nineteenth century-Ref. Language, page-409)। एटुस्कुन (इटली की मृत भाषा) से स्वरूप में आई प्राचीन लैटिन, कोइने (Koine-a dead Language of Europe) के स्रोत से निःसृत हुई पुरानी ग्रीक व लौकिक संस्कृत से अस्तित्व में आई पाणिनि-पश्चात् की संस्कृत भाषा-संरचना की दृष्टि से अति असाधारण बनावटवाली ही रही थी। कालांतर में उच्चारण व वाक्य-विन्यास के स्तरों पर अपनाई गई सरलतम शैलियों के उपरांत भी इन भाषाओं का स्वरूप आधुनिक भाषाओं की तुलना में अधिक श्रेष्ठ व परिपक्व ही बना रहा। किंचित् इनकी विशेषताओं से अभिभूत होकर ही भाषाविद् जे. वेंड्रियस (Mr. J. Vendrys) को अपनी पुस्तक 'Language' (Page-346) में यह लिखना पड़ा कि 'भले ही अंग्रेजी, फ्रांसीसी आदि आधुनिक भाषाएँ बहुत लचकदार, सरल व कोमल हों, किंतु ग्रीक व लैटिन भाषा (जिनसे ये पोषित हुई हैं) तुलनात्मक रूप से इनसे अधिक प्रभावशाली ही रही (Certainly modern languages such as English and French rejoice in an extreme suppleness, ease and flexibility ---but can we maintain that the classical tongues like Greek or Latin are inferior to it? If we have once acquired the taste for it, all other Languages seem insipid or harsh after it.)। इसी कड़ी में किए गए अध्ययनों के उपरांत भाषाविद सर विलियम जोन्स (Sir W. Jones) भी इसी निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि ग्रीक, लैटिन आदि उत्कृष्ट भाषाओं की तुलना में संस्कृत अपनी प्राचीनता के साथ-साथ अधिक परिष्कृत, पूर्ण तथा आश्चर्यजनक बनावटवाली भाषा ही सिद्ध होती है ("The Sanskrit Language, whatever be its antiquity, is of wonderful structure, more perfect than the Greek, more copious than the Latin and more exquisitively refined than either." Quoted by R.H. Robins : A short History of Linguistics-page No.134)। इसी तरह एड्वर्ड पोकॉक (Edward Pocoke) अपनी चर्चित पुस्तक 'India in Greece' में रॉयल एशियाटिक सोसाइटी द्वारा जारी किए गए डब्ल्यू.सी. टेलर (W.C. Taylor) के एक शोध-प्रबंध का हवाला देते हुए संस्कृत की प्राचीनता व महत्ता को ही सर्वोपरि ठहराते हैं। जर्नल ऑफ द रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के खंड-दो (Appendix-xvi) में प्रकाशित इस प्रबंध-पत्र के अनुसार-“संस्कृत के वैभव की तो कोई सीमा ही नहीं है। यह ग्रीक से भी अधिक लचीली और रोमन भाषा से भी अधिक सशक्त है। इसके दर्शनशास्त्र की तुलना में पायथागोरस का कथन सद्यःजात शिशु की भाँति बचकाने लगते हैं। इसकी वैचारिक उड़ान के समक्ष प्लूटो की ऊँची कल्पनाएँ निष्प्रभ और साधारण सी दिखती हैं। इसके काव्यों में व्यक्त प्रतिभा अकल्पित सी प्रतीत होती है और इसके शास्त्रीय ग्रंथ तो इतने प्राचीन हैं कि उनका कोई अनुमान लगाना ही दुष्कर लगता है। एकाकी बल पर टिका हुआ संस्कृत का यह विपुल साहित्य विश्व की भाषाओं में अपना एक विशिष्ट स्थान रखता है।" ऐतिहासिक सूत्र यह बताते हैं कि आद्य शंकराचार्य ई.पू. चौथी शताब्दी के कालखंड में भारत भर में घूम-घूमकर सामान्य जनों के मध्य संस्कृत भाषा में ही प्रवचन किया करते थे। यह वही काल है, जिसमें ग्रीक व लैटिन भाषाएँ अपने प्रारंभिक अवस्थाओं में रही थीं, जबकि संस्कृत को भारतवर्ष में जन-भाषा की प्रतिष्ठा प्राप्त थी। उपर्युक्त उद्धरणों से यह प्रमाणित हो जाता है कि पूर्ववर्ती भाषाएँ आज की प्रचलित भाषाओं की तुलना में अधिक परिपक्व तथा पूर्ण रही थीं और लौकिक व उत्तर वैदिक के क्रम से ज्येष्ठ रही वैदिक संस्कृत ही मानव की प्राचीन से प्राचीनतम भाषा होने के साथ-साथ अन्य सभी भाषाओं की अपेक्षा अधिक व्यवस्थित, उन्नत तथा परिपूर्ण रही थी।

लाखों वर्ष पूर्व उत्पन्न हुए भाषा-संबंधी इस भारतीय दृष्टिकोण के प्रति अपने सीमित कालगत दृष्टिबोधों के कारण आधुनिक भाषाविद् प्रायः असहमत ही दिखते हैं। इनकी दृष्टि में भाषा उत्पत्ति विषयक उपर्युक्त सामग्री कोई ठोस साक्ष्य उपस्थित नहीं कर पाती है (After much futile discussion Linguistics have reached the conclusion that the data with which they are concerned yield little or no evidence about the origin of human speech. Ref. An Introduction to Linguistic Science by Edger H. Sturtevent)। किंचित् यही कारण रहा कि सन् 1866 में पेरिस में स्थापित हुई ‘ला सोसिएते द लेंगिस्तीक' (La societe de Linguistique) नामक भाषा विज्ञान की विश्वस्तरीय समिति ने अपने अधिनियम (सेक्शन-2) में स्पष्ट रूप से 'भाषा की उत्पत्ति' से संबंधित विषयों पर विचार करने पर ही प्रतिबंध लगा दिया। चूँकि वैज्ञानिक दृष्टि से यह निर्णय तर्कसंगत नहीं था, अतः गियांबटिस्टा, ब्रासेस, काडिलॉक, रूसो, हर्डर, न्यावर, ग्रिम, राये, डार्विन, हंबोल्ट, श्लाइखर, येस्पर्सन, गाइगर, स्टाइंथल, स्वीट, रेगनॉड, टेलर, वुंट, डिलैगुना, वर्नार्ड शॉ, रेवेज, जोहांसन, हंफरी, समरफेल्ट आदि पाश्चात्य विद्वानों ने समय-समय पर अपने-अपने तर्कों के माध्यम से भाषा की उत्पत्ति-संबंधी यक्ष प्रश्नों का उत्तर देने का अथक प्रयास भी किया। किंतु पाश्चात्य जगत् के इन मूर्धन्य विद्वानों के प्रयासों से निरूपित हुए प्रत्यक्ष तथा परोक्ष सिद्धांतों के निष्कर्ष भी अंततः यही घोषणा करते दिखते हैं कि मानवी-बोली की समस्या अभी तक यथावत् ही बनी हुई है (If there is one thing which all linguistes are fully agreed, it is that the problem of the origin of human speech is still unsolved. - Ref. The Story of Languages)। इसी क्रम में सर विलियम जोन्स ने सन् 1786 में कोलकाता के एक सभागार में दिए गए अपने एक भाषण द्वारा संस्कृत की यूरोपीय भाषाओं से समानताओं को रेखांकित करते हुए इसके तुलनात्मक पहलुओं के अध्ययन पर बल दिया ("No philologer could examine the Sanskrit, Greek and Latin without believing them to have sprung from common source, which, perhaps, no longer exists. There is a similar reason, though not quite so forcible, for supposing that both the Gothic and the Celtic had the same origin with the Sanskrit."- A Short History of Linguistics, page 134)। श्री जोन्स द्वारा प्रकट किए गए इसी अभिमत के आधार पर याकोब ग्रिम, फ्रांत्स बोप, कार्ल वर्नर, वेनफे आदि भाषाविदों की शृंखला ने 'Proto-Indo-European' (मूल भारोपीय) या फिर 'Wiros' (विरोस्) नामक एक काल्पनिक भाषा के अस्तित्व को गढ़ते हुए इन्हें विभिन्न पारिवारिक सूत्रों में पिरोने का प्रयास भी किया। इस प्रकार अपने सीमित दृष्टिबोधों के आधार पर किए गए विभिन्न सर्वेक्षणों द्वारा आधुनिक भाषाविद् आज के संदर्भ में प्रचलित विश्व की लगभग 2796 भाषाओं और बोलियों को मुख्यतः दस (कुछ विद्वान् इनकी संख्या को अठारह तक आँकते हैं) के निम्नांकित समूहों में वर्गीकृत करते हैं-

1. सेमेटिक-हैमेटिक : इंजील की पौराणिक कथा के अनुसार हजरत नूह (Noah) के पुत्र सेम और हेम इन भाषाओं के प्रणेता माने जाते हैं। इन भाषाओं को सामी-हामी भी कहा जाता है। इसके अंतर्गत सुमेरियन, प्राचीन मिनी, अकादियन, हिब्रु, कौप्टिक, सोमाली, अरबी, गल्ला, बेजा, नामा व फुला (कैमरून) आदि भाषाएँ आती हैं।

2. यूराल-अल्टाइक : इसके अंतर्गत मगयार, एस्थु, लैप, वागुल, इस्तोनियन, फिनिश, हंगेरियन, तुर्की, मंगोलियन, ऐजरबैजानी, उज्चेक, कजाक, माँचू, किरगिज आदि भाषाएँ आती हैं।

3. चीनी-तिब्बती : इस समूह के अंतर्गत आनेवाली भाषाओं के जन्मदाता किरात लोग रहे थे। इनमें चीन की भाषाएँ (मदारिन, कैटनी, वुव, फुकिनी, हक्का, झुआंग, मिन आदि), तिब्बत की भाषाएँ (भोट, लेपिया, रोंग आदि) ल्हो-के (भूटान), लेप्चा, धीमाल, लिंबू-खंभू, दांजोंग आदि सिक्किम व उत्तरी बंगाल की भाषाएँ, मैते (मणिपुर); नगा (नगालैंड); वोडो (असम); गारो व दीमा (अरुणाचल प्रदेश); कचारी व जंग (त्रिपुरा); नेवारी (नेपाल); कोडो (जापान) तथा कोरियाई भाषाएँ आती हैं।

4. मलय-पॉलिनेशियन : इसके अंतर्गत माओरी (न्यूजीलैंड), मलागासी (मेडागास्कर), मलय (मलेशिया), जावानीज व कावी (जावा), वालीनीज (वाली), हवाईयन (हवाई द्वीप), इंडोनेशियन (इंडोनेशिया), ताहितियन, समोअन (सुमात्रा), फ्रीजियन (फिजी), सेलिवीज, तगलोग (फिलीपींस), विसय आदि भाषाएँ व बोलियाँ आती हैं।

5. ऑस्ट्रो-एशियाटिक : इन भाषाओं के जनक पुलिंद, सौद्युम्न, कोल्ल आदि प्राचीन जातियाँ रही थीं। इनमें मुंडा, कोल, संथाली (साओताली), मुंडारी, भूमिज, खासी, शबर, कूर्क, हो, निकोबारी आदि भारतीय भाषाएँ, मोनख्मेर, वर्मी व मानमा (म्याँमार), अन्नामी, मुआंग, स्यामी या दाई (थाईलैंड) आदि भाषाएँ आती हैं।

6. कॉकेशियन : इनमें सर्वृशियन, मिग्रेलियन, जार्जियन, चेचेन, अवर, कवादियन, अवसरवासियन आदि प्रमुख हैं।

7. अफ्रीकी : इस समूह में वुले, मन-फू, कनूरी, नीलोटिक, बंतूइड, हौंसा, सोहगई, इवे, न्युवियन, योऊबा, यरुबा, अशानी, स्वाहिली, जुलू, सेसुतो, हेरेरो, कांगो, रुआंदा, होतेंतोत, दामरा, संदवे, उबुदु, बाँटू, गिनियन, बंटु, लुगंदा आदि को सम्मिलित किया गया है।

8. अमरीकी नीग्रो : इसके अंतर्गत एस्किमो (ग्रीनलैंड), अथपस्कन व अल्गोनकिन (कनाडा व संयुक्त राज्य), चेराकी (पनामा), नहुअल व अजतेक (मेक्सिको), करीब, गुअर्नी (गुयाना), क्वेचुआ (पेरु), एल्यूटो, नूत्का, अरवक, मय आदि भाषाएँ आती हैं।

9. द्रविड़ : इस समूह की मूल भाषा के जनक ऋषि अगस्त्य थे। इनमें तमिल (तमिलनाडु), तेलुगु (आंध्र प्रदेश), कन्नड़ (कर्नाटक), मलयालम (केरल), गोंड (बुंदेलखंड), ओराँव (झारखंड), ब्राहुई (बलूचिस्तान), कोलामी (पश्चिमी बरार), तुलु (कुर्ग-मुंबई), कुई (उड़ीसा), माल्टो (बंगाल), कुरुख आदि भाषाएँ व बोलियाँ आती हैं।

10. इंडोयूरोपीय (भारोपीय) : भौगोलिक दृष्टि से विश्व के बहुत बड़े भाग में प्रयुक्त होने के कारण अन्य समूहों की तुलना में इसके अंतर्गत आनेवाली भाषाओं व बोलियों की संख्या अत्यधिक है। सौ की संख्या के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्दों की समानता के आधार पर भाषाशास्त्री वान रोडले ने इस समूह को सतम् व केंतुम-दो वर्गों में बाँटा था। शतम् या सतम् क्रमशः संस्कृत व अवेस्ता का शब्द है, जबकि लैटिन में सौ की संख्या को केंतुम कहा जाता है। सतम् (अवेस्ता), शतम् (संस्कृत), सद् (फारसी), स्तो (रूसी), सुतो (बल्गेरियन), जिम्तस (वाल्टिक), स्जिम्तास (लिथुआनियन) व सौ (हिंदी) तथा केंतुम (लैटिन), केंतो (इटेलियन), सेंट (फ्रेंच), हेकतान (ग्रीक), कैंट (ब्रीटन), हुंद (गाथिक), हुंडर्ट (जर्मनिक), क्युड (गेलिक), कंध (तोखारी) के समतामूलक आधारों पर विभाजित किए गए सतम् व केतुम वर्गों में क्रमशः इलीरियन (अल्वेनिया व यूनान), वाल्टिक, स्लाव (रूसी वल्गेरियन, पोलिश), आर्मीनियन (कुस्तुंतुनिया आदि) व ईरानी-भारतीय तथा केल्टिक (आयरिश व स्कॉच), जर्मनिक (जर्मन, अंग्रेजी, स्वीडिश), लैटिन (इतावली, स्पेनी, फ्रांसीसी, पोर्तुगीज आदि), ग्रीक व तोखारी जैसी प्राचीन भाषाओं को समावेशित किया गया था। कालांतर में भाषाई स्तर पर की गई सूक्ष्म विवेचनाओं में विद्वानों को केंतुम वर्ग में जहाँ सतम् के ही तत्त्व मिले; वहीं 1893 ई. में टर्की के 'बोगाजकोई' (अंकारा से 90 मील पूर्व) नामक स्थान की खुदाई से ज्ञात हुई केंतुम वर्ग की 'हित्ती' भाषा के अध्ययन इसके सूत्रों को सतम् वर्ग से ही जोड़ते सिद्ध हुए। भाषाशास्त्रियों के अनुसार, हित्ती भाषा ई.पू. 2000 के लगभग तक बनी रही थी। एनाटोलियन, लीसियन, लीडियन आदि भाषाओं का इससे अति निकट का संबंध रहा था। बोगाज कोई (Boghoz Kuei) से प्राप्त हिताइत व मितन्नी के संधि-पत्र में उल्लेखित इन्-द-र (इंद्र), अ-रुन या उ-रु-व-न् (वरुण), मि-इति-र(मित्र), न-स-अत्-ति-इआ (नासत्य), शु-ब्बि-लि-यू-मा सूरियास् या सूर्य), दु-र-त्त (दस्त्र), म-र-उत-श् (मरुत) आदि संदर्भ इसके स्रोतों को संस्कृत से जोड़ते प्रतीत होते हैं। इस आधार पर भारोपीय समूह के अंतर्गत आनेवाली प्राचीन तथा आधुनिक भाषाओं में केल्टिक गॉलिक, मैक्स, वेल्श, आयरिश (आयरलैंड) व स्कॉच (स्कॉटलैंड); जर्मनिक-या ट्यूटॉनिक-आइसलैडिक (आइसलैंड), डैनिश (डेनमार्क), नार्वेजियन (नार्वे), स्वीडिश (स्वीडेन), अंग्रेजी, जर्मन (इनमें स्वाबियन, बवेरियन, अलमानिक आदि शामिल हैं) एवं डच (नीदरलैंड); लैटिन-इतावली (इटली व सिसली), रोमानियन (रोमानिया), फ्रांसीसी (फ्रांस, बेल्जियम व कनाडा), फ्लेमिश (बेल्जियम), स्पेनिश (स्पेन व लैटिन अमेरिका), कैटालन (स्पेन) व पोर्तुगीज (पुर्तगाल व ब्राजील); ग्रीक या हेलेनिक; तोखारी (तुषार); इलीरियन-अल्बेनियन (अल्बेनिया) व यूनानी (यूनान); बाल्टिक-लिथुआनियन (लिथुआनिया) व लिट्टश (लेटाविया); स्लाव-रूसी (रूस), उक्रेनियन (उक्रेन), पोलिश (पोलैंड), चेक व स्लोवक (चेकोस्लोवाकिया), वाइलोरशियन (वेलारूस), बुल्गारियन (बुल्गेरिया), सर्वो-क्रोशियन (क्रोएशिया व सर्विया), स्लोवेनियम (युगोस्लाविया); आर्मीनियन-स्तंबुल व अराराट; एनाटोलियन-लीडियन, फ्लेइक, लूवियन, लीसियन, हिटाइट आदि; ईरानी-अवेस्ता, पहलवी (हुज्बारेश व पाजद), दरद (बर्गिस्ता, पश्तो, देवारी, बलूची, ताजिक, ओसेटिक, यगनोबी, घलचा, कुर्दिश, कोहिस्तानी व कश्मीरी आदि) व आधुनिक फारसी तथा भारतीय भाषाओं में संस्कृत (वैदिक व लौकिक), प्राकृत, पालि, अपभ्रंश (इनमें शौरसेनी से कौरवी या खड़ी बोली अथवा आधुनिक हिंदी, ब्रज, हरियाणवी, बुंदेली, कन्नौजी, अवधी, बघेली, जौनसारी, चंपाली, कुलूई, मंड्याली, क्योंठली, गढ़वाली, कुमाऊँनी, गुजराती, मारवाड़ी, जयपुरी, मेवाती, मालवी व छत्तीसगढ़ी आदि; ब्राचड़ से बिचौली, सिरैकी, लाड़ी, थरेली व कच्छी आदि सिंधी भाषाएँ; पैशाची से लहँदा, लाहौरी, मुल्तानी, माझी व डोगरी आदि पंजाबी भाषाएँ; महाराष्ट्री से कोंकणी व मराठी तथा मागधी से भोजपुरी, मगही, मैथिली, बंगाली, उड़िया, असमी, गोरखाली आदि) उर्दू व संस्कृत-प्राकृत-पालि के मिश्रण से बनी सिंहली (श्रीलंका) एवं महल (मालद्वीप) को समावेशित किया गया है।

भाषाओं का यह वर्गीकरण मुख्य रूप से भौगोलिक तथा जातिगत आधारों पर चिह्नित किए गए इनके आपसी सूत्रों द्वारा ही प्रतिफलित हुआ प्रतीत होता है। उदाहरण के लिए, अंग्रेजी, फ्रेंच, जर्मन आदि भाषाओं का आधुनिक स्वरूप जहाँ लैटिन व ग्रीक साहित्य की भित्ति पर ही अवलंबित दिखता है, वहीं ईरानी तथा भारतीय भाषाएँ मूलतः आर्यभाषा के परवर्ती संस्करणों (प्राकृत या अपभ्रंश) से ही पोषित रही हैं। वस्तुतः परस्परताओं के ये दृष्टांत तो एक प्रकार से पत्तों व टहनियों के संबंधों तक को ही उजागर कर पाते हैं, जबकि डाल आदि के क्रम से ये टहनियाँ अंततः एक पुष्ट तने से भी जुड़ी होती हैं, जो प्रकारांतर में अपने अदृश्य (भूगर्भीय) स्रोतों द्वारा ही अस्तित्व में आ पाती हैं। भाषाई वटवृक्ष का यह आधुनिक स्वरूप अपनी आरंभिक अवस्था में कुछ इसी तरह से पनपा रहा होगा, परंतु समय की बाढ़ के साथ-साथ इसकी शाखाओं से प्रस्फुटित हुए जटाओं (स्थानिक सूत्रों) के सघन घेरे ने शनैः-शनैः मूल तना को ही चारों ओर से ढक लिया। इस प्रगाढ़ता के कारण प्रायः स्थानीक सूत्रों (यानी जटाओं) को ही भ्रमवश भाषा रूपी वृक्ष का मूल आधार मान लिया जाता है। विश्व की संपूर्ण भाषाओं को दस परिवारों में विभाजित करने की मानसिकताओं के पीछे कुछ इसी तरह की मृग-मरीचिकाएँ रही होंगी। भाषा व वृक्ष के इस दृष्टांत के आधार पर अपने स्तरों से निकाले गए निष्कर्षों द्वारा कुछ पाश्चात्य विद्वान् भी मूल भाषा से संबंधित भारतीय अवधारणाओं की ही पुष्टि करते हैं। 'The Story of Civilization' में Will Durant विश्व की सभी भाषाओं का विश्लेषण करने के उपरांत लिखते हैं कि “संस्कृत भाषा के गुण विशेष संसार भर की सभी भाषाओं में मिलते हैं। इस आधार पर संस्कृत ही सभी भाषाओं की जननी सिद्ध होती है।" लॉरा एलिजाबेथ पुअर (Laura Elizabeth Poor) नामक एक विदुषी लेखिका अपनी पुस्तक 'Sanskrit and its Kindred Literatures' में यह स्वीकार करती हैं कि संस्कृत भाषा का गठन स्वयंप्रेरित रहा था और यह सभी भाषाओं को एक सूत्र में पिरोती है। थॉमस मॉरिस (Thomas Maurice) तो अपनी पुस्तक 'Indian Antiquities' (Vol-IV, page-415) में प्रसिद्ध भाषाविद् Hollhead का हवाला देते हुए स्पष्ट रूप से संस्कृत को ही पृथ्वी की मूल भाषा घोषित करते हैं। विश्व की पुरातन से लेकर नवीनतम भाषाओं में संस्कृत से ही मिलते-जुलते शब्दों के पाए जाने से भी उपर्युक्त विद्वानों के निष्कर्ष सही ठहरते हैं। उदाहरण के लिए, संस्कृत पितर-मातृ-भ्राता से बने अश्वेता या पुरानी पारसी के Pitar-Matar-Bratar, ग्रीक के Pater-Meter-Pharter, लैटिन के Pater-MaterPrater, फ्रेंच के Pere-Mere-Frere, जर्मनी के Vater-Mutter-Bruder, अंग्रेजी के Father-Mother-Brother व आधुनिक फारसी के पिदर-मादर-विरादर; भारतीय बहन, भाई, जॅवाई, सास-ससुर, ब्याह के लिए रोमानी भाषा में प्रयुक्त फेन, फल, जामुत्रो, सासुए-सासरो, बियाह आदि संबोधन तथा संस्कृत (माँ) के लिए असीरियन (Ummu), हिब्रू (Em), बास्क व अल्वेनियन (Ama), माँचू (Eme), मिस्र (Amon) व द्रविड़ (अम्मा) को अनुभूत किया जा सकता है। इसी प्रकार संस्कृत (त्वम्), रूसी (तोत), ग्रीक (To), लैटिन (Tu), अंग्रेजी (Thou) तथा संस्कृत (मयूर) के समानार्थी शब्दों के रूप में मलय (मेर), सुमेरियन (मारी-क), संताली (मरक), शबर (मर), अश्वेता (मरुक) को रेखांकित किया जा सकता है। संस्कृत के सप्त से फारसी-हफ्त, ग्रीक-Hepta, लैटिन-Septem, जर्मनी-Sieben, अंग्रेजी-Seven व हिंदी-सात; संस्कृत के मानव से कोरियाई शब्द मान, जर्मन शब्द Mann, अंग्रेजी शब्द Man; या फिर संस्कृत के जातिसूचक 'दस्यु' के ईरानी रूपांतर 'दस्यु' तथा इनके निवास-स्थली के रूप में आधुनिक फारसी में व्यवहृत ‘देई' से बने हिंदी के 'देहात' (गाँव) एवं संस्कृत का जाल्मः (निर्दयी) और अरबी का ज़ालिम (अत्याचारी), संस्कृत का सूप (दाल) और अंग्रेजी का Soup (सूप यानी शोरबा), संस्कृत का युयुत्स (लड़ने को इच्छुक) और जापानी-जुजुत्सु (कुश्ती), संस्कृत या पालि का बुद्ध (गौतम बुद्ध) और फारसी का बुत (मूर्ति), संस्कृत का नास्ति-नाभूत (न है, न था) और फारसी का नेस्त-नाबुद (सर्वनाश) व संस्कृत के तरु (वृक्ष) से बने अंग्रेजी के Tree एवं संस्कृत/अंग्रेजी के समानार्थी शब्दों के रूप में द्वार-Door, संत-Saint, पुरोहित-Priest, प्रचारक-Preacher, नव-New, कोहल (चावल से बने आसव) में अरबी के अल् उपसर्ग जोड़कर बने Alcohol (मदिरा), क्रूर-Cruel, कुटीर-Cottage, पंख (लिखने के लिए प्रयुक्त पंक्षी के पंख, जिसे लैटिन में Penna कहा जाता था) से अंग्रेजी का Pen (पेन यानी कलम), हृत् या हृदय-Heart, सर्प-Serpent, ग्रंथि-Gland आदि को इसी संदर्भ में उल्लेखित किया जा सकता है। इसी तरह पी.जी. सुब्बाराव ने भी अपनी पुस्तक 'Indian Words in English' में इसी तरह के सैकड़ों समानार्थी शब्दों की सूची दी है। इन भाषाई आधारों के अलावा वैज्ञानिक प्रमाणों द्वारा भी मूल भाषा के रूप में संस्कृत के औचित्य को सिद्ध किया जा सकता है। आधुनिक विज्ञान के अनुसार ऊर्जा से ही इस जगत् का निर्माण हुआ है और शब्द इस सर्वव्यापी ऊर्जा का ही एक रूप है। इस दृष्टि से सृष्टि-निर्माण में इनकी सहभागिताएँ स्पष्टतः प्रमाणित होती हैं। सृष्टि-निर्माण में रही भूमिकाओं के कारण जिन-जिन शब्दों से जगत् के जिन-जिन पदार्थों का स्वरूप उभरा, प्रारंभिक स्तर पर उन सभी का नामकरण उन्हीं शब्दों के क्रियात्मक संकेतों के आधार पर ही सुनिश्चित किया गया (तत्रनामान्या ख्यातजानीति शाकटायनो नैरुक्तसमयश्चनिरुक्त-1.12)। पदार्थों का वास्तविक आशय प्रकट करने के लिए व्यवहृत हुए अर्थः पदम् का यह विशिष्ट गुण केवल वैदिक संस्कृत में ही मिल पाता है। इस तरह वैज्ञानिक व भाषाई परिमाणों के आधारों पर संस्कृत न केवल अद्यतन बल्कि मानवों की नैसर्गिक भाषा होने की कसौटी पर भी खरी उतरती है।

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