भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
लिपियों का वृत्तांत (Palaeography)
सामान्यतः शिलाओं, प्रस्तरों, धातुओं, मृत्तिकापट्टिकाओं आदि पर उत्कीर्ण
पुरालिपियों /चित्रों या संकेत-चिह्नों के उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर
निष्पन्न निष्कर्ष लिपियों के प्रारंभिक काल को ई.पू. 10,000 से लेकर ई.पू.
4,000 के मध्य का ही ठहराते हैं; किंतु मानवी सृष्टि के साथ-साथ विकसित हुई
भाषाई सामर्थ्य के अति पुरातन तथ्यों के समक्ष ये आकलन अपेक्षतया गौण ही
प्रतीत होते हैं। वस्तुतः पत्थरों व धातुओं पर संकेत-चिह्नों व चित्रों के
क्रम से वर्णों के अंकन में सिद्धहस्त हो चुके कुशल शिल्पकारों या लिपिकारों
द्वारा ही अभिलेखों को उत्कीर्ण करने की विधा का विकास हुआ था। इस प्रकार
सामाजिक अनुशासन, राजज्ञा, प्रशस्ति, संधि, दान, स्मृति आदि स्थायी अभिलेखों
की प्रवृत्तियाँ मानवी समाज में इन परंपराओं के प्रचलन को सामंती व्यवस्थाओं
के उदयोपरांत का ही सिद्ध करती हैं, जबकि लेखन-कार्यों के लिए पत्तों,
भोज-पत्रों (हिमालयी उपत्यका में पाए जानेवाले भूर्ज वृक्ष की छाल) व
ताड़-पत्रों (दक्षिण भारत के एक देशज वृक्ष की छाल) का प्रयोग मानवों द्वारा
अद्यतन काल से ही किया जाता रहा था। भूर्ज व ताड़-पत्रों के आकार प्रायः सवा
गज लंबे व नौ इंच चौड़े हुआ करते थे। इन पत्रों को कड़ा व चिकना करने के लिए
तेल की पॉलिश कर सुखा लिया जाता था। इस तरह के पत्रों के संग्रह को इकट्ठा
रखने के लिए इनके मध्य भाग में छेद करके एक डोरे से गूंथ दिया जाता था। यह
डोरा काष्ठ की दो ठोस पट्टियों से बँधा रहता था। इन दो तख्तियों के मध्य डोरे
से गुंथे हुए भूर्ज या ताड़-पत्रों के संग्रहों पर लिखित आलेख को समुच्य रूप
से पुथी, पोथी या पुस्तक के नाम से संबोधित किया जाता था। यद्यपि इन पत्रों
पर लेखन की कला के विकास के काफी पश्चात् ही पोथी का यह स्वरूप अस्तित्व में
आ पाया था, तथापि विश्व की सभी प्राचीनतम पांडुलिपियाँ व ग्रंथ इन्हीं रूपों
में ही मिलते हैं। कालांतर में देश-काल के हिसाब से विकसित हुए मानवी-समाज
में लेखन-कार्यों के लिए काष्ठ-फलकों, बाँस की शलाकाओं आदि के क्रम से कपास
को कूटकर बनाए गए कार्पासिक-पट्टिकाओं तथा पशु-चर्मों का भी प्रयोग किया जाने
लगा। वर्णमाला आदि सुलेखों के अभ्यास के लिए काष्ट-फलक का उपयोग जहाँ आधुनिक
स्लेटों की ही भाँति किया जाता था, वहीं वार्षिक पंचांग, अभिज्ञान-मुद्रा
(पासपोर्ट) तथा पाती (पत्र) आदि अस्थिर लेखों के लिए कार्पासिक-पट्टिका, बाँस
की शलाका, सूती वस्त्र, पशु-चर्म आदि साधनों का व्यवहार किया जाता था। बाद
में इन्हीं कासिक-पट्टिकाओं में किए गए संस्कारों से ही कागज का प्रारंभिक
स्वरूप उभरकर सामने आया। सामान्यतः कागज के आविष्कार का श्रेय चीन के ‘साई
लुन' नामक व्यक्ति को दिया जाता है, जिसने ईसा के बाद सन् 105 में वृक्षों की
कूटी हुई छाल, सन, पुराने कपड़े तथा मछली के पुराने जालों के मिश्रण को
सड़ाकर कागज बनाया था। इस प्रकार पाँच सौ वर्षों तक चीन में ही विकसित रहने
के पश्चात् सातवीं सदी के प्रारंभ में जापान पहुँची इस विधा का विश्व-प्रसार
बौद्धों के प्रयासों से ही संभव हो पाया था। इस स्वीकृत मत के विपरीत ई.पू.
327 में सिकंदर के साथ भारतीय अभियान पर आए यवन विद्वान् निआस ने भारतीयों
द्वारा कपास को कूटकर तैयार किए गए टुकड़ों से लिखने हेतु निर्मित कागज के
प्रयोगों का उल्लेख अपने संस्मरणों में किया है (Ref. - Indian Palaeography
by G. Buhler, page No.-98)। चूंकि पत्तों, पत्रों, मानव-निर्मित कागज आदि
नश्वर साधनों को सुदीर्घ काल तक सुरक्षित नहीं रखा जा सकता था, अतः संरक्षा
के दृष्टिगत नियमित अंतरालों पर नई पीढ़ियों द्वारा इन पांडुलिपियों की
प्रतिलिपियाँ तैयार करवा ली जाती थीं ! कृष्ण द्वैपायन व्यास द्वारा किया गया
वैदिक संहिताओं का लिखित वर्गीकरण, परीक्षित की छठी पीढ़ी में सम्राट् बने
अधिसीमकृष्ण के राज्य-काल में शौनक आदि ऋषियों द्वारा नैमिषारण्य-सत्र के
माध्यम से स्मृतियों व पुराणों का संकलन-कार्य, पाणिनि पश्चात् की भाषा के
आधार पर शुंग, कण्व, गुप्त व वर्द्धन कालीन विद्वानों द्वारा यथोचित
संस्कारोपरांत पुरानी कृतियों के नवीनीकरण इत्यादि को इन्हीं कड़ियों के रूप
में ही चिह्नित किया जा सकता है। संभवतः आद्य कृतियों से संबंधित इन्हीं
संस्कारित प्रतिलिपियों की उपलब्धताओं के आधार पर पाश्चात्य विद्वानों के
दृकुक्षेपों ने ऋग्वेद के रचना-काल को ई.पू. 1500) से लेकर 1000, उत्तर-वैदिक
साहित्य के रचना-काल को ई.पू. 1000 से लेकर 600, सूत्रों को ई.पू. 600 से 300
तथा रामायण व महाभारत आदि महाकाव्यों की रचनाओं को ई.पू. चौथी शताब्दी का
मानने के लिए बाध्य किया हो। इस प्रकार यह स्पष्ट हो जाता है कि शिलाओं व
धातुओं पर उत्कीर्ण स्थायी अभिलेखों की प्रामाणिकता की तुलना में पत्रों व
पुथियों जैसे अस्थायी साधनों पर अंकित कृतियों को कालगत नश्वरता से बचाने के
लिए अपनाई गई विधियों के कारण इनकी संस्कारित प्रतिलिपियों के आधार पर
स्थापित की गईं ऐतिहासिकताएँ भ्रममूलक ही सिद्ध होती हैं।
स्थायी तथा अस्थायी साधनों पर अंकित लेखों के इन तथ्यपरक भेदों को जान लेने
के पश्चात् यह प्रश्न उत्पन्न होता है कि आखिर लिपियों का वास्तविक विकास कब
और कैसे संभव हुआ होगा? यह सर्वविदित है कि भाषा की परिनिष्टता व्याकरण की
बनावट पर ही निर्भर होती है तथा व्याकरण की रचना के लिए लिपि-ज्ञान एक आवश्यक
बिंदु है। भारत तथा पश्चिम के सभी भाषाविद् एक मत से आचार्य पाणिनि को विश्व
का प्राचीन व मूर्धन्य वैयाकरण मानते हैं। इन विद्वानों के अनुसार, आचार्य
पाणिनि का कार्यकाल ई.पू. आठवीं शताब्दी से लेकर ई.पू. चतुर्थ शताब्दी ई.पू.
के मध्य में रहा था। 'अष्टाध्यायी' नामक ग्रंथ में यास्क से लेकर अपने काल तक
हुए पूर्ववर्ती व्याकरणाचार्यों के रूप में पाणिनि कुल सात नामों (आपिशलि,
काशकृत्स्न, कश्यप, भारद्वाज, स्फोटायन, चक्रवर्मन व सेनक) का उल्लेख करते
हैं। इसी तरह यास्क भी अपने ग्रंथ निरुक्त में पूर्ववर्तियों के रूप में
औदुंबरायण, अग्रायण, अरुणाभ, औपमन्यव, गार्ग्य, गॉलव, काट्ठक्य, कौत्स,
चर्मशिरस्, तैत्तिक, मौद्गल्य, वार्ष्यायणि, शाकल्य, शतबलाक्ष, मध्यंदिन,
शाकटायन, शाकपुर्णि व स्थौलस्थिवन् आदि अठारह व्याकरणाचार्यों के नामों को
स्मरण किया है। यद्यपि इन व्याकरणाचार्यों में से एक की भी कृति उपलब्ध नहीं
है, अतः इनके पूर्ववर्तियों की प्रामाणिक सूची नहीं मिलती है। फिर भी भारतीय
अनुश्रुतियों के आधार पर ब्रह्मा, इंद्र, रुद्र, भृगु, उशना, बृहस्पति,
मधुच्छंद, कुत्स, असित, वाक्, मैत्रेयी, मेधा, क्रौष्टुकि आदि के क्रम से
अद्यतन वैयाकरणों की एक सतत श्रृंखला का संकेत अवश्य मिल जाता है। प्रारंभिक
विद्वानों द्वारा शब्द-शास्त्र के रूप में पदपाठों, प्रतिशाख्यों व
शिक्षा-ग्रंथों के क्रम से निघंटुओं की रचनाएँ की गई थीं, जबकि यास्क कृत
निरुक्त के पश्चात् ही व्याकरणों का व्यवस्थित स्वरूप उभरकर सामने आ पाया था।
इस प्रकार इन ग्रंथों की उपर्युक्त प्राचीनता को पर्याप्त पीछे की ओर ही
खिसका देती हैं। रुडोल्फ रॉथ आदि संस्कृत के पाश्चात्य विद्वानों का भी यही
मत रहा था कि भारत में अति प्राचीन काल से ही लेखन-कला अस्तित्व में रही थी,
क्योंकि वेदों की प्रतिशाख्य आदि प्रकार की कृतियों की रचना बिना इसके संभव
नहीं हो सकती थी। यही नहीं, वैदिक संहिताओं से लेकर ब्राह्मणों तथा आरण्यकों
के अति प्राचीन कालखंडों तक सामान्य स्तर पर प्रचलित रही श्रवण-वाचन
(श्रुतियों) की मौखिक परंपराओं में भी लिपियों के प्रारंभिक प्रयोग के
अपेक्षित संकेत मिल जाते हैं। ऋग्वेद (10-627) में वर्णित राजा सावर्णि
द्वारा एक हजार ‘अष्टकर्णी' (कान में अंकित की गई आठ अंक के चिह्नवाली) गायों
को दान करने का कृतित्व (सहनं मे ददतो अष्टकर्ण्यः), आकृतिमूलक लिपियों को
संकेत देने के लिए अथवेद में व्यवहृत हुए ‘अप शीर्षण्यं लिखात्' (14-2-68) या
फिर ‘क एषां कर्करी लिखत्' (20, 138-8) के संदर्भ; छांदोग्य उपनिषद् में
वर्णित 'हिंकार उति त्र्यक्षरं प्रस्ताव इति अक्षरं तत्सम' तथा तैत्तिरीय
उपनिषद् के 'वर्णः स्वरः मात्रा बलम्' की उक्तियाँ एवं ब्राह्मण ग्रंथों में
लिख्' धातु से संबंधित लिखति, लिलेख, अलिलिखित्, लेखीः, लिखित्, लिख्य आदि
शब्दों का प्रयोग स्पष्ट रूप से लिपियों के तात्कालिंक प्रयोग के ही प्रमाण
प्रस्तुत करते हैं। संभवतः वाचिक की दक्षता को प्राप्त कर लेने के पश्चात्
नक्षत्र-विद्या के अति गूढ़ रहस्यों को जानने के उपक्रम में अपनाए गए गणितीय
सूत्रों को चिह्नित करने के उद्देश्य से अद्यतन विद्वानों द्वारा जिन
टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं का प्रयोग किया गया होगा, उन्हीं आड़ी-तिरछी रेखाओं से ही
अंक-लिपि के रूप में लिपियों का प्रारंभिक स्वरूप उभरा होगा। इन आड़ी-तिरछी
रेखाओं के अंकन की प्रेरणा उन्हें यज्ञपीठिका को सजाने के लिए की जानेवाली
चित्रकारियों से ही मिली होगी। ऋग्वेद (10- 62-7) के 'अष्टकर्णी' संदर्भ से
लेकर यजुर्वेद (17-2) में प्रयुक्त एक पर बीस शून्यों वाली अतिविशद् संख्याओं
के नामकरण तथा शतपथ ब्राह्मण (12/3/2/1) में दिन-रात की समय इकाई को 15, 18.
750 प्राणों के अति सूक्ष्म स्वरूप में विभक्त करने के दृष्टांत स्पष्टतः
तात्कालिक विद्वानों के मौखिक सामर्थ्य से परे की लिखित क्षमताओं यानी
अंक-लिपि संबंधी प्रवीणताओं को ही उजागर करते हैं। कालांतर में व्यक्ति-भेद
के कारण उत्पन्न होती गई उच्चारणगत विसंगतियों के निवारण हेतु कुछ परवर्ती
विद्वानों ने इन्हीं टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओंवाले अंक-चिह्नों के आधार पर वैदिक
ध्वनियों के लिए पृथक्-पृथक् संकेत-चिह्न बना दिए। वैदिक संहिताओं में पाए
जानेवाले आदि ध्वनि-चिह्न इन्हीं संभावनाओं की पुष्टि करते हैं। इस तरह
ध्वनि-उच्चारण के लिए प्रारंभिक स्तर पर प्रयुक्त किए गए इन्हीं
संकेत-चिह्नों से प्रेरणा लेकर परवर्ती ऋषियों ने आक्षरिक तथा अनाक्षरिक
वर्णों के उच्चारण के लिए जिन पृथक्-पृथक् चिह्नों को आवंटित किया उन्हीं के
गर्भ से ही ध्वनिमूलक लिपियों का व्यवस्थित स्वरूप उभरकर सामने आया। कुछ इसी
प्रकार के संकेत Charles Berlitz की पुस्तक 'Mysteries from forgotten
Worlds' में भी दिखाई पड़ता है। अपनी इस पुस्तक में हग मोरेन व साइरस गारडॉन
के शोध-निष्कर्षों का हवाला देते हए चार्ल्स यह स्पष्ट करते हैं कि वर्णमाला
का प्राकट्य राशि-चिह्नों व चांद्रमास को गिनने के लिए प्रयुक्त अंक चिह्नों
से ही हुआ था (A most interesting theory on the origin of the alphabet is
suggested by the work of Hugh Moran in his thesis "The Alphabet and the
Ancient Calender Signs" and the researches of Dr. Cyrus Gordon, author of
numerous books on ancient Mediterranean Culture and Scripts. It is briefly
stated that our alphabet came from the signs of the Zodiac added to by
signs for counting days in a lunar month.)। चूंकि अद्यतन काल के विभिन्न
खंडों में विद्यमान रहे विवेकशील पुरुषों के गवेषणापूर्ण उद्यमों द्वारा ही
टेढ़ी-मेढ़ी रेखाएँ अंक तथा ध्वनि-चिह्नों के क्रम से अंततः लिपियों का
व्यवस्थित आकार ग्रहण कर पाई थीं, अतः इनकी उद्भव-संबंधी प्राचीनता को तदंतर
विकसित हुए मानवी समाजों ने अपनी-अपनी अवधारणाओं के अनुरूप प्रतिष्ठित किए गए
ज्ञात आद्य-पुरुषों से ही जोड़ दिया। 'ब्राह्मी ब्रह्मोद्भवा' की भावपूर्ण
अभिव्यक्ति के साथ भारतीय अवधारणाएँ जहाँ ब्राह्मी-लिपि को अपने प्रथम-पुरुष
(ब्रह्मा) द्वारा ही प्रसृत मानती हैं, वहीं मिस्री लोग अपनी लिपि का
जन्मदाता थॉथ (Thoth) या आइसिस (Isis) को, बेबीलोनिया के लोग नेबो (Nebo) को,
पुराने यहूदी लोग मूसा (Moses) को तथा यूनानी लोग हर्मेस (Hermes) आदि अपने
पौराणिक पुरुषों को ही मानते रहे हैं।
वस्तुतः मानवी समाज की गतिशीलताओं के परिणामस्वरूप जनभाषा में आए विकारों से
वैदिक वाङ्मय को अक्षुण्ण रखने के लिए भारतीय ऋषियों ने अपनी प्रज्ञा द्वारा
चित्र, अंक व ध्वनि-चिह्नों के आधार पर जिस लेखन-शैली को प्रसृत किया,
ब्रह्म-ज्ञान से संबंधित होने के कारण लेखन की इस शैली को तदनुसार
ब्राह्मी-लिपि के सार्थक नाम से ही चिह्नित किया गया। प्रसिद्ध भाषाविद्
प्रो. ब्यूलर (G. Buhler) भी ब्राह्मी के उत्पत्ति संबंधी इसी तथ्य को
स्वीकार करते थे। उनके अनुसार “यद्यपि ब्राह्मी का अद्यतन स्वरूप नहीं मिल
पाता है, फिर भी पाँचवीं सदी ई.पू. के इसके ज्ञात रूप की बनावट यही सिद्ध
करती है कि ब्राह्मणों द्वारा इसे संस्कृत को लिखने के अनरूप ही गढ़ा गया
था।" ब्यूलर की ही भाँति डाउसन, कनिंघम, लासन, थॉमस, डॉसन आदि पाश्चात्य
विद्वानों की दृष्टि में ब्राह्मी-लिपि की उत्पत्ति भारत की ही किसी पुरानी
वैदिक चित्रलिपि से हुई थी। ब्राह्मी लिपि में 41 अक्षर (यानी 9 स्वर तथा 32
व्यंजन) हुआ करते थे। कालांतर में गुरुकुलों की भौगोलिक स्थितियों के अनुरूप
यह लिपि उत्तरी व दक्षिणी शैली के दो रूपों में विभाजित हो गई। इसी क्रम में
विभिन्न गुरुकुलों के आचार्यों द्वारा विकसित की गई उत्क्षेप (ऊपर की ओर
प्रकृष्ट), निक्षेप (नीचे की ओर प्रकृष्ट), विक्षेप (चारों ओर विस्तारित),
प्रक्षेप (एक विशेष ओर प्रकृष्ट) तथा मध्यक्षर-विस्तार आदि लेखन-शैलियों के
कारण ब्राह्मी की उत्तरी शाखा से प्राचीन देवलिपि व शारदा लिपि का तथा इसकी
दक्षिणी शाखा से ब्रह्मवल्ली, द्रविड़ व कनारि लिपियों को प्रादुर्भाव हुआ।
धार्मिक तथा सामाजिक मर्यादाओं के परिप्रेक्ष्य में इन गुरुकुलों द्वारा
स्थापित की गई पद्धतियों का अनुसरण करने के कारण दक्ष तात्कालिक मानवी-समृह
विभिन्न वर्गों में भी संगठित होने लगा। आचार-व्यवहार की भिन्नताओं के आधार
पर जाति विशेष के नए रूप से चिह्नित किए जाने लगे इन समाजों में अन्य
परिवर्तनों के साथ-साथ लेखन शैलियों में भी अपेक्षित संशोधन दृष्टिगोचर होने
लगे। इस प्रकार सिंध व दृषद्वती के तटों से लेकर अंग-बंग तक फैले क्षेत्र में
धार्मिक तथा सामाजिक कार्यकलापों के लिए देवलिपि के परिवर्धित संस्करण के रूप
में क्रमशः भौमदेव व मानुषी लिपियों का एवं सिंध से उत्तर व पश्चिम के
क्षेत्रों में बसे जनपदों में जातिगत आधारों पर शारदा के नवीन संस्करणों के
रूप में विकसित यक्ष, गंधर्व, किन्नर, गरुड़, अहि (नाग), खस्य आदि लिपियों का
प्रयोग किया जाने लगा। महाभारतकालीन उथल-पुथल के पश्चात् सिंध व गांधार से
पश्चिम की ओर विस्थापित हुए मानवी समाजों द्वारा शारदा के इन परिवर्तित
स्वरूपों से ही दरद, तिब्बती, तोखारी व पुरानी खोतानी लिपियों का तथा
प्रकारांतर से इन्हीं से ही सुदूर पश्चिम की अन्य लिपियों का अस्तित्व उभरकर
सामने आया। ऋग्वेद (6/51, 61 व 7/6) में वर्णित फोनिशियनों के भारतीय मूल का
होने संबंधी संदर्भों के अतिरिक्त यूनानी इतिहासज्ञ (हेरोडोटस-2,44) व टायर
के विद्वानों की मान्यताओं में भी इन्हें भूमध्यसागर के पूर्वी तट पर समुद्र
मार्ग द्वारा पूर्व से आया हुआ ही स्वीकार किया गया है। सर जॉन मार्शल आदि
कुछ पाश्चात्य इतिहासकारों का भी यह मानना है कि सप्तसिंधु क्षेत्र से
बलूचिस्तान व करमान (ईरान) के रास्ते ही प्रोटोइलामाइट लोग मेसोपोटामिया में
आकर बसे थे। भारत से पश्चिम की ओर विस्थापित हुए इन लोगों की भाषा व लिपि में
परिस्थितिजन्य कारणों से विकार आते गए। पुरातत्त्व शोध संस्थान (जोधपुर) के
डॉ. फतेह सिंह के अनुसार मिनी, सुमेरियन व सेमिटिक लिपियों की व्युत्पत्तियाँ
वैदिक भाषा व ब्राह्मी लिपि के प्रकारांतर स्वरूपों से ही फलित हुई थीं।
ब्राह्मी व सेमिटिक लिपियों की कुछ आपसी साम्यताएँ भी इन्हीं तथ्यों को ही
उजागर करती हैं। आधुनिक भाषाविद् मेसोपोटामिया में कभी प्रचलित रही सेमिटिक
लिपि से निकली आर्मेइक से ही हिब्रू, खरोष्ठी, पहलवी और नेवातेन लिपियों का
तथा इसी नेवातेन से पुरानी अरबी व पुरानी पारसी का प्रसूत स्वीकार करते हैं।
खरोष्ठी का प्रचलन भारत के पश्चिमोत्तर क्षेत्रों में ई. पू. चतुर्थी शताब्दी
से लेकर ईस्वी की तीसरी सदी तक रहा था। यह दाएँ से बाएँ की शैली में लिखी
जाती थी। इसमें कुल 37 वर्ण (यानी 5 स्वर तथा 32 व्यंजन) होते थे। बौद्धग्रंथ
'ललितविस्तार' व जैनियों के ‘पन्नवणा' तथा 'समवायांग' सूत्रों के अनुसार
प्राचीन भारत में ज्ञात देशी व विदेशी लिपियों की सूचियाँ इस प्रकार रही थीं-
1. ब्राह्मी /बंभी, 2. खरोष्टी/खरोत्थि, 3. देवलिपि, 4. महेश्वरी/माहेसरी
(शैव लिपि), 5. भौमदेव लिपि (भूमि के देवताओं यानी ब्राह्मणों की लिपि), 6.
यक्ष लिपि/अक्खरपिट्टिया, 7. किन्नर लिपि, 8. गंधर्व लिपि/गंधव्व लिवि, 9.
गरुड़ लिपि, 10. नाग लिपि, 11. उग्रलिपि, 12. वायुमरु लिपि, 13. पोलिंद
/पोलिम्दि, 14. द्रविड़ लिपि/दामिलि लिवि, 15. कनारि/कन्नाड़ी लिपि, 16.
दक्षिण लिपि, 17. अपर गौड़ी लिपि, 18. पूर्व विदेह लिपि, 19. अंग लिपि, 20.
बंग लिपि, 21. पुष्करसारि लिपि/पुक्खर सारिया लिवि, 22. पहारैय लिपि/पहाराइया
लिवि, 23. मगध लिपि, 24. सागर लिपि (तटवर्ती क्षेत्र की लिपि), 25. उत्तर
कुरु लिपि (हिमालय से सुदूर उत्तर की लिपि), 26. असुर लिपि (पश्चिम एशिया व
सिंधुघाटी की प्राचीन लिपि), 27. हूण लिपि, 28. चीन लिपि, 29. खस्थ लिपि,
(खासी-यानेशकों की लिपि), 30. दरदलिपि (पहाड़ी जाति की लिपि), 31. यवनानि या
यवनालि लिपि/जवणालिय लिवि (ग्रीक लिपि), 32. शकारि लिपि, 33. उत्क्षेप लिपि,
34. निक्षेप लिपि, 35. विक्षेप लिपि, 36. प्रक्षेप लिपि, 37. मध्यक्षर
विस्तार लिपि, 38. उत्क्षेपार्वत लिपि, 39. विक्षेपावर्त लिपि, 40. वज्र
लिपि, 41. अनुद्रुत लिपि, 42. विमिश्रित लिपि, 43. चक्र लिपि, 44. गणावर्त
लिपि, 45. शास्त्रावर्त लिपि, 46. पुष्प लिपि, 47. मंगल्य लिपि, 48. अंगुलीय
लिपि, 49. उर्ध्वधनु लिपि, 50. मृगचक्र लिपि, 51. मनुष्य लिपि, 52. आदंश लिवि
या आयस लिपि, 53. ब्रह्मवल्लि लिपि, 54. महोरग लिपि, 55. अंतरिक्ष लिपि, 56.
लेख प्रतिलेख लिपि, 57. संख्या लिपि, 58. अंक लिपि/आंक लिपि, 59. अनुलोम
लिपि, 60. पाद लिखित लिपि, 61. गणित लिपि, 62. अध्याहारिणि लिपि, 63.
सर्वरुत्संग्रहणि लिपि, 64. विद्यानुलोम लिपि, 65. ऋषितपस्तोत लिपि, 66. घरणि
प्रेक्षण लिपि, 67. सर्वभुतरुद्ग्रहणि लिपि, 68. सर्वीसघ निष्यंद लिपि, 69.
सर्वसारसंग्रहणि लिपि, 70. संज्ञा लिपि।
भाषाविदों के अनुसार, 350 ई. के उपरांत ब्राह्मी की उत्तरी शाखा से निःसृत
हुई ‘प्राचीन नागरी लिपि' से देवनागरी, गुजराती, महाजनी, राजस्थानी,
महाराष्ट्री, कैथी, मैथिली, बंगाली, असमिया, उड़िया, मणिपुरी, नेवारी आदि तथा
'शारदा' की परिवर्धित शाखाओं से टाकरी, सिरमौरी, डोगरी, चमेआली, मंडेआली,
जौनसारी, कोछी, कुल्लई, कश्तवारी, लंडा, मुल्तानी, वानिको, गुरुमुखी आदि
लिपियों का क्रमवार विकास संभव हुआ था। उत्तर की ही भाँति ब्राह्मी की
दक्षिणी शाखा यानी 'द्रविड़' से तमिल, ग्रंथ, तुलू व मलयालम लिपियों का तथा
‘कनारि' से तेलुगु व कन्नड़ लिपियों का एवं फिर इनके मिश्रित अपभ्रंशों से
सिंहली, इंडोनेशियाई, मान, तलग, आधुनिक बर्मी, कोरियाई, स्यामी, कंबोडियाई व
जावा, बाली, सेलिबीज, फिलीपींस आदि देशों की लिपियाँ अस्तित्व में आईं।
एशियाई अंचलों में विकसित इन लिपियों की तुलना में यूरोपीय लिपियों की
ऐतिहासिक स्थितियाँ अपेक्षाकृत भिन्न रही थीं। शताब्दियों तक हिमयुगीन
त्रासदियों से आक्रांत रहने के उपरांत यहाँ मानवों के रहने योग्य
परिस्थितियों का निर्माण ई. पू. दस हजार वर्ष के लगभग ही संभव हो पाया था। इस
तरह ई.पू. दस हजार वर्ष के लगभग अस्तित्व में आए यहाँ के मानवी समाज में
भाषाई विकास के क्रम से लिपियों का चित्रात्मक स्वरूप (Pictographic) ई.पू.
चार हजार वर्ष में ही उभरकर सामने आ पाया था। प्रारंभिक स्तर पर इसका विकास
चित्रों के रूप में हुआ था। मेसोपोटामिया सहित दक्षिण यूरोप की आदम जातियाँ
अपने भावों को व्यक्त करने के लिए पत्थर, हड्डी, काष्ठ, सींग, हाथी-दाँत,
पेड़ की छाल, जानवरों की खाल व मिट्टी के पात्रों पर इस तरह के चित्रों को
उत्कीर्ण किया करते थे। कालांतर में चित्रात्मक से विकसित होकर इसका स्वरूप
तिकोनी रेखात्मक व फिर कोणाक्षर हो गया। सुमेरियन, बेबीलोनियन, अक्कादियन,
पर्सियन के अतिरिक्त हिट्टाइट, मितन्नी, इलामाइट, कस्साइट आदि ने अपनी भाषाओं
के लिए इसी तिकोनी या कीलाक्षर (Cuneiform) लिपियों का ही प्रयोग किया।
सुमेरियनों की इस चित्रात्मक लिपि से प्रेरणा लेकर मिन के निवासियों ने ई.पू.
तीसरी सहस्राब्दी के लगभग अपनी एक स्वतंत्र लिपि विकसित कर ली। चूँकि मिन की
यह लिपि अधिकतर रूप से मंदिरों की दीवारों पर ही उत्कीर्ण की गई थी, अतः
यूनानियों ने इसे 'खुदे हुए पवित्र अक्षर' मानकर इसका नाम गूढाक्षर या
पवित्राक्षर (Hieroglyphic) रख दिया। ई. पू. 1100 के लगभग यह दो स्वरूपों
'हेराटिक' (Hieratic) व 'डेमोटिक' (De motic) में विभाजित हो गई। 640 ईस्वी
में अरब द्वारा किए गए आक्रमण के उपरांत यहाँ के लोगों द्वारा अरबी लिपियों
को अपना लिये जाने के कारण मिस्र से हमेशा के लिए इन लिपियों का लोप हो गया;
किंतु कुछ अंशों तक ‘कॉप्टिक' (Coptic) नाम से पहचानी गई मिन की एक प्राचीन
लिपि का अस्तित्व यहाँ 1500 ईस्वी तक बना रहा। हीरोग्लाइफिक लिपि के स्वरूप
से विकसित हुई 'क्रीट' व 'हिट्टाइट' लिपियों के क्रम से चीन तथा सिंधुघाटी की
'ध्वन्यर्थ-चित्रात्मक लिपि' (Logographic script) का अस्तित्व उभरकर सामने
आया। वस्तुतः विश्व की प्राचीन जातियों में से एक रहे असुरों की लिपि व इनमें
काफी समानताएँ रही थीं।
इस आधार पर कुछ विद्वानों ने इसकी उत्पत्ति को असुरों या फिर असीरियनों
द्वारा व्यवहृत अक्काडियन भाषा व लिपि से भी संबद्ध किया है। महाभारत
(भीष्मपर्व-90/ 29) के अनुसार पूर्वी भूमध्यसागरीय अंचल के असुर सम्राट्
‘विप्रचित्ति' द्वारा भारत का सिंधु प्रदेश (मानव लोक) आक्रांत किया गया था,
जिसे पुरंदर इंद्र द्वारा समूल नष्ट किया गया था। महाभारतकालीन यहाँ की
छुद्रक व मालव जातियाँ इन्हीं असुरों की वंशज रही थीं। इस प्रकार सिंधु
प्रदेश के पौराणिक वृत्तांत भी इन लिपियों को असुरों से ही जोड़ते हुए प्रतीत
होते हैं।
चित्रात्मक व भावमूलक लिपियों की इन्हीं विकास-यात्राओं के दौरान अनुकूल
जलवायविक परिस्थितियों के प्रभाववश दक्षिणी यूरोप तथा भूमध्यसागरीय अंचलों की
जनसंख्याओं में भी अभूतपूर्व वृद्धि दृष्टिगोचर होने लगी। विस्थापन आदि के
कारणों से संक्रमित हुए यहाँ के समाज की बोलियाँ, अनातोलियन, अक्कादियन आदि
के सम्मिश्रण से बनी यहाँ की 'भाषा' (सामी लोगों की अधिकता के कारण इसे सामी
या Samitic के नाम से ही पुकारा गया) में कुल 22 वर्ण थे। कालांतर में यह
लिपि उत्तरी व दक्षिणी के दो भागों में विभाजित हो गई। इसी क्रम में उत्तरी
सामी लिपि से. आर्मेइक (Armaic) व फोनीशियन (Phoenician) नामक दो लिपियों का
तथा दक्षिणी सामी लिपि से पलवी (Pahlavi) व नेवातेन लिपि का तथा नेवातेन से
निकली सिनेतिक से पुरानी अरबी लिपि का प्राकट्य हुआ। आर्मेइक लिपि दाएँ से
बाएँ की ओर लिखी जाती थी और इसमें कुल 22 वर्ण (सभी व्यंजन) ही हुआ करते थे।
इसी से हिब्रु व अरेबिक लिपियों का अस्तित्व उभरा था। हिब्रु में 26 वर्ण तथा
अरेबिक में 32 वर्ण हैं। यहूदियों की भाषा के रूप में मात्र इजराइल में सीमित
रही हिब्रु के विपरीत सातवीं व आठवीं सदी में अरेबिक लिपि कूफी (Kufic) व
नस्खी (Naskhi) के दो स्वरूपों में बँटकर मध्य पूर्व, अरब, इराक, ईरान,
सीरिया, मिस्र, अल्जीरिया व उत्तरी अफ्रीका के क्षेत्रों में फैल गई। इधर
कैनान के तटवर्ती क्षेत्र में निवास करनेवाले लोगों ने ई.पू. 1500 के लगभग
उत्तरी सामी लिपि के परवर्धित स्वरूपों से जिस ध्वन्यात्मक लिपि का विकास
किया, उसे तदंतर फोनेटिक लिपि (Phonetic Script) के नाम से ही जाना जाने लगा।
ग्रीक भाषा में फोन का अर्थ 'ध्वनि' होता है, जो संस्कृत के 'भण्' (ध्वनि
करना या कहना) धातु का ही परिवर्तित रूप है। ग्रीक भाषा में संस्कृत के
चतुर्थ वर्ण का रूप द्वितीय वर्ष में परिवर्तित हो जाता है। इसी सिद्धांत के
तहत संस्कृत-'भ' का ग्रीक उच्चारण-'फ' हो गया। ध्वनि उत्पन्न करने के कारण
दूरभाष यंत्र (भण् यंत्र) को अंग्रेजी में ग्रीक शब्द से बने टेलीफोन
(Telephone) के नाम से चिह्नित किया जाता है। इस प्रकार कैनान तथा उसके
निकटवर्ती क्षेत्रों में प्रयुक्त रही ध्वन्यात्मक लिपि का Phonetic नामकरण
यूनानियों द्वारा प्रदत्त ही प्रतीत होता है। सेमिटिक की ही भाँति इसमें भी
कुल 22 वर्ण (सभी व्यंजन) ही हुआ करते थे। यह दाईं से बाईं की ओर ही लिखी
जाती थी। ई.पू. 900 के लगभग यूनानियों द्वारा अपनी भाषा के लिए इस लिपि को
अपना लिया गया और तदंतर अपनी भाषा की व्यावहारिकता के अनुरूप उन्होंने
फोनेशियन के चार ध्वनि-चिह्नों को हटाकर स्वर (Vowel) उच्चारण के लिए छह नए
चिह्नों को सम्मिलित कर इसे 24 वर्णों (स्वर व व्यंजन) वाली एक नई लिपि का
व्यवस्थित रूप दे दिया। यूनानी भाषा के अल्फा, बेटा, गम्मा, डेटा आदि शब्द
सेमिटिक भाषा के अलेफ, बेथ, गमेल और दामेथ के ही समानार्थी हैं। ग्रीक भाषा
के इन्हीं प्रारंभिक वर्णों अल्फा व बेटा के आधार पर ही यूरोप की भाषाओं में
वर्णमाला के लिए 'अल्फाबेट' (Alphabet) शब्द प्रयुक्त किया जाने लगा। कालांतर
में भूमध्यसागर के उत्तरी तटों पर रहनेवाले एट्रस्कनों ने अपनी भाषा (एट्टिक)
के लिए ग्रीक अल्फाबेट के 22 वर्गों में 4 नए वर्णों को जोड़कर ई.पू. आठवीं
शताब्दी में 26 अक्षरोंवाली एक नई लिपि का विकास किया। इसी प्रकार स्लाविक
भाषाभाषियों ने ग्रीक अल्फाबेट के सहयोग से 42 अक्षरोंवाली सिरिलिक लिपि
(Cyrillic Script) का आविष्कार किया, जिसके ही गर्भ से रशियन, उक्रेनियन,
बलेरियन व सर्व लोगों के लिए 32 अल्फाबेटवाली वर्तमान रूसी लिपि (Russian
Script) व 30 अल्फाबेटवाली बल्गेरियन (Bulgarian) लिपि का विकास हुआ।
इधर यूरोप की धरती पर शनैः-शनैः एट्रस्कनो की इस परिवर्धित लिपि से ही
अब्रिअन, रूनी, ओस्कन लिपियों का अस्तित्व उभरकर सामने आता गया। रोमनों
द्वारा ई.पू. सातवीं सदी के लगभग एट्रस्कन से लिये गए 21 अल्फाबेट (A, B, C,
D, E, F, G, H, I, K, L, M, N, O, P, Q, R, S, T, U, V, W, X) में अपनी
ध्वनियों के अनुरूप Y व Z तथा फिर U, W व J को जोड़कर 26 वर्णोंवाली जिस लिपि
को प्रसत किया, उसे ही लैटिन (Latin) या रोमन (Roman) लिपि के नाम से जाना
गया। अपने आरंभिक काल में यह दाईं से बाईं ओर लिखी जाती थी, किंतु बाद में
इसकी शैली को परिवर्तित कर बाएँ से दाएँ के क्रम में लिखना प्रारंभ किया गया।
रोमन वर्चस्व के बढ़ते प्रभावों के कारण अंग्रेजी, फ्रांसीसी, स्पेनी, इटली,
पोर्तुगीज, रोमानियन, जर्मनी आदि भाषाओं के लिए तथा कालांतर में चेक, पोलिस,
तुर्की तथा कुछ स्लाविक व अफ्रीकी भाषाओं ने अपनी लिपि के रूप में इसे
स्वीकार कर लिया। इस तरह अठारहवीं सदी के औपनिवेशिक परिवेश के कारण विस्तारित
हुई अंग्रेजियत ने कुल 26 अल्फाबेट (5 Vowels व 21 Consonants) वाली इस
संकुचित लिपि (Roman Script) को धीरे-धीरे संसार की सबसे महत्त्वपूर्ण लिपि
तथा अंग्रेजी को अंतरराष्ट्रीय भाषा के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया। लैटिन से
प्रारंभ हुआ वर्गों का यह ह्रास तो कंप्यूटर के इस आधुनिक युग में मात्र दो
अक्षरों (बिट-बाइट्स) पर ही आकर सिमट गया है।
भाषा में महारत हासिल कर लेने के पश्चात् मानवों का ध्यान गरमी, सर्दी व
बरसात की निश्चित अवधियों और दिन के पश्चात् होनेवाली रात पर आकृष्ट हुआ।
सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त तक की अवधियों का अंदाज जमीन में गाड़े गए कील की
बदलती छाया से लगाते हुए समय की नाप निश्चित कर लेने के पश्चात् जलवायु विशेष
के अनुभवों से तात्कालिक मानवों ने ऋतुचक्र को परिभाषित किया। इसी क्रम में
आकाश के नक्षत्रों व चंद्रमा की गतिविधियों का अध्ययन करके इन आद्य मानवों ने
पक्ष, मास व वर्ष की गणना करना सीख लिया। इन गणनाओं को आधार देने के लिए उन
लोगों ने संकेत के तौर पर कुछ आड़ी-तिरछी रेखाओं के चिह्नों को भी विकसित कर
लिया। कालांतर में इन्हीं टेढ़ी-मेढ़ी रेखाओं से अंक-लिपि का सूत्रपात हुआ।
प्रस्तुत अध्याय में कालगणना के विभिन्न प्रसंगों के साथ-साथ समयमापक प्राचीन
यंत्रों तथा खगोलीय व गणितीय सूत्रों के आधार पर महायुगों की कल्पना के
साथ-साथ कलियुग प्रारंभ होने की निश्चित तिथि एवं मानुषी व खगोलीय परिमाणों
के साथ विश्व की विभिन्न सभ्यताओं में प्रचलित संवतों का वर्णन किया गया है।
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