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भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

ओम प्रकाश पांडेय

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2684
आईएसबीएन :9789351869511

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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....

कालगणना


सृष्टि की जटिल गुत्थियों की तरह ही काल के गराल की विवशताओं का प्रत्युत्तर देने की नीयत से मानवों ने इसे गणना द्वारा सीमित करना चाहा। इसके लिए जिस विधा को विकसित किया गया, उसे ही कालगणना कहते हैं। सूर्योदय से सूर्यास्त तक की अवधि के अध्ययन से समय का माप, रात में चंद्रमा की घटती-बढ़ती कलाओं के अनुमान से तिथि व पक्ष तथा गरमी, सर्दी व बरसात के जलवायु विशेष के अनुभवों से ऋतु-चक्र परिभाषित किए गए। चूँकि सृष्टि-उत्पत्ति अंतरिक्ष की घटना थी, अतः इसके विषय में गणना के लिए अंतरिक्ष और इसमें गतिमान नक्षत्रों व ग्रहों का गहन अध्ययन किया गया। इन अध्ययनों से यह पता चला कि नक्षत्रों की अपेक्षा ग्रहों की गति अधिक तीव्र होती है। अतः गति-भिन्नता के आधार पर इनके समय का शुद्ध मान निर्धारित करने के लिए गणन-पद्धति को दो भागों सायन व निरयन में बाँटा गया। पृथ्वी की सापेक्ष गति के अनुसार सौरमंडल को बारह क्रांतिवृत्त या राशियों (मेष, वृष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुंभ व मीन आकृति-रूपी नक्षत्रमंडलों) में विभाजित कर, प्रति राशि (30 अंश) में सूर्य के प्रवेश को संक्रांति मानते हुए एक संक्रांति से अगली संक्रांति के काल को सौर-मास व ऐसे बारह सौर मासों (360 अंश) का एक सौर-वर्ष निश्चित किया गया। इस खगोलीय गणना के अनुसार एक सौर-वर्ष में कुल 360 दिन ही बैठते हैं। प्रसिद्ध खगोलवेत्ता प्रो. इनामुल वेलिकोभ्सकी ने अपनी बहुचर्चित पुस्तक 'वर्ल्ड इन क्वालिजन' में इस बात का रहस्योद्घाटन किया है कि ईसा पूर्व आठवीं शताब्दी तक एक सौर वर्ष में कुल 360 दिन ही हुआ करते थे। उनके अनुसार ईसा पूर्व 687 में शुक्र ग्रह मंगल के कुछ नजदीक आ गया था। इस कारण हुए खगोलीय उलट-फेर से पृथ्वी की कक्षा प्रभावित हुई थी और तदुपरांत पृथ्वी की परिभ्रमण अवधि में हुए 574 दिन की बढ़ोतरी के साथ एक सौर वर्ष 365/1/4 दिन के होने लगे। यही कारण रहा था कि विश्व की सभी प्राचीनतम सभ्यताओं में प्रचलित कालगणनाओं में एक सौर वर्ष कुल 360 दिनों का ही हुआ करता था। संभवतः आजकल के प्रचलित मास, घंटा, मिनट, घटी व पल के लिए निर्धारित किए गए 30 व 60 के परिमान भी किंचित् 360 के प्राचीनतम गुणनफल के आधार पर ही निश्चित किए गए होंगे। प्राचीन काल में पृथ्वी के गति सापेक्ष अंतरराष्ट्रीय समय की यह गणना भारत के उज्जैन (820-30' देशांतर) को केंद्र मानकर ही की जाती थी, जिसका आधुनिक पैमाना, अर्थात् GMT (Greenwich Mean Time) से कुल अंतर 5.30 घंटा पूर्व का रहा था। इसी तरह काल की बृहद् इकाइयों के निर्धारण के लिए सौरमंडल के ग्रहों का अवधि विशेष में एक ही स्थान पर एकत्र होने की स्थिति का अध्ययन कर जहाँ युगों को परिभाषित किया गया, वहीं नक्षत्रों की गतिशीलता के आधार पर मन्वंतरों व कल्पों की रचना की गई। इसी क्रम में अंततः ब्रह्मांड की आयु-सीमा को तय करने के लिए ब्रह्मदिन व ब्रह्मवर्ष जैसी अति बृहत्तम काल इकाइयों की भी परिकल्पना की गई।

ईसा पूर्व अस्तित्व में रहीं सुमेरियन, बेबीलोनियन, असीरियन, कैल्डियन, मिस्र, यूनानी आदि प्राचीन सभ्यताओं में कालगणना की विभिन्न पद्धतियाँ प्रचलन में तो अवश्य रही थीं, किंतु इनके सूत्र किसी-न-किसी रूप में भारत के गणन-सूक्तों से ही जुड़े हुए थे। यही नहीं, विद्वानों की तो यह मान्यता है कि इन प्राचीन सभ्यताओं से भी बहुत पहले के काल में सूर्य-सिद्धांत नामक भारतीय गणना-सूत्र में निष्णात होकर ही मय दानव ने वास्तुशास्त्र की रचना की थी। शंकर द्वारा विध्वंस की गई त्रिपुर (वर्तमान में लीबिया का जल में आधा डूबा त्रिपोली शहर) नामक असुर राजधानी, मिस्र के पिरामिडों व पांडवों तथा सोलोमन के राजप्रासादों के अद्भुत शिल्पी इसी दानव के वंशज यानी असुर ही रहे थे। महाभारत (सभापर्व) के अनुसार युधिष्ठिर के राजमहल में दानव-शिल्पियों द्वारा स्फटिक का प्रयोग इस प्रकार किया गया था कि भूमि जल-सदृश्य तथा कुंड थल-सदृश्य आभासित होते थे।

ओल्ड टेस्टामेंट में भी कुछ इसी तरह के भवन-निर्माण का प्रसंग मिलता है। अरब की रानी शेबा जब यहूदी सम्राट् सोलोमन (हजरत सुलेमान) से मिलने इज़राइल पहुँची, तब उसकी लँगड़ी टाँग को देखने की नीयत से सोलोमन ने असुर वास्तुकारों से ऐसा फर्श बनवाया, जो पानी की तरह दिखाई देता था। इसी भ्रम में रानी ने स्वागत के लिए फर्श के दूसरे छोर पर खड़े सोलोमन से मिलने के लिए अपने स्कर्ट को ऊपर उठाकर बढ़ना शुरू किया और इस प्रकार सोलोमन उसकी सुंदर टाँगों को देखकर उसके लँगड़ी होने की भ्रांति से मुक्त हुआ। चूँकि महाभारत-काल व यहूदियों के अस्तित्व में कुछ ही वर्षों का अंतर रहा था, अतः इनके ग्रंथों में प्रयुक्त इस क्षेपक को मूल घटना की अनुकृति ही माना जा सकता है। इसके अनुरूप मेक्सिको में असुर वास्तुकारों द्वारा बनाए गए एक अद्भुत पिरामिड पर आज भी प्रतिवर्ष मेष संक्रांति के दिन सूर्य की किरणों से बननेवाली छाया से एक ऐसे विशालकाय सर्प का आभास होता है, जो समय के अंतर के साथ अपनी पूँछ को धीरे-धीरे मुँह में डाल रहा होता है। किंचित् यही कारण रहा होगा कि आश्चर्यजनक रूप से भारत की सुदूर विपरीत स्थिति के उपरांत भी अमेरिकावासी ‘मयांस' अपने शून्य व दशमलव ज्ञान के माध्यम से 365.2420 दिनों के सौर वर्ष की गणना करने में सफल रहे थे। उनकी यह गणना सौर वर्ष में वास्तविक घटित दिनमान अर्थात् 365.2422 से आंशिक तौर पर ही कम रही थी। प्राचीन सभ्यताओं की तरह ही पाश्चात्य धर्मग्रंथ भी भारतीय गणना-पद्धति का अनुसरण करते दिखाई देते हैं। तैत्तिरीय संहिता के इस तथ्य को कि ‘मानवों का संवत्सर देवताओं का एक दिन है' (एक वा इदं देवानामहः यत्सम्वत्सरः) को पवित्र बाइबल (एजकील-14.30) में इस प्रकार व्यक्त किया गया है-- 'मैंने तुम्हारे लिए एक वर्ष के बदले एक दिन निश्चित किया है' या 'जीवन का एक दिवस एक वर्ष के समान है।'

धार्मिक ग्रंथों के इन उद्धरणों के अतिरिक्त अब तक किए गए विभिन्न शोधों द्वारा भी यह सिद्ध किया जा चुका है कि प्राचीन ही नहीं, अपितु आधुनिक अंक व समय-पद्धतियाँ भी भारत से अरब होते हुए ही पाश्चात्य देशों में पहुंची थीं। अंक तथा गणित विद्या की इस भारतीय पहचान के प्रतीक स्वरूप ही अरब में जहाँ इन्हें 'इल्मे हिंदीसा' कहकर संबोधित किया जाता रहा, वहीं अरब के रास्ते पाश्चात्य देशों में पहुंचने के कारण वहाँ इसकी पहचान 'अरेबिक न्यूमिरिक्लस' के रूप में ही की जाने लगी। भारतीय ज्योतिष (खगोलशास्त्र) का सर्वप्रथम प्रसार-प्रचार अरबी में खलीफा अल-मंसूर व खलीफा हारूँ रशीद के जमाने में (सन् 753 से 806 तक) हुआ था। इस तरह भारतीय गणित-विद्या को अरबी स्रोतों से यूरोप तक पहुँचाने तथा आधुनिक गणित को जन्म देने का श्रेय सेविल के जान (सन् 1135) को जाता है। उसके पश्चात् सैंट प्लैसिदस ने इसका अनुवाद स्पैनिस भाषा में किया और तदनुसार प्रचारित इस विधा के आधार पर पोलैंड के कोपरनिकस ने सन् 1543 में आधुनिक खगोलिकी को जन्म दिया। प्रसिद्ध वैज्ञानिक अलबर्ट आइंस्टीन की यह स्वीकारोक्ति कि 'हम भारतीयों के बहुत ऋणी हैं, जिन्होंने हमें गणना करना सिखाया, जिसके बिना कोई महत्त्वपूर्ण खोज हो ही नहीं सकती थी,' स्वतः ही इस शृंखला को प्रमाणित कर देती है। इस तरह अंक विद्या व समय-पद्धति के मूल स्रोत के विषय में जानकारी प्राप्त कर लेने के पश्चात् भारतीय अवधारणाओं की पृष्ठभूमि पर ही कालगणना की विवेचना प्रासंगिक हो जाती है।

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