लोगों की राय

भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

ओम प्रकाश पांडेय

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2684
आईएसबीएन :9789351869511

Like this Hindi book 6 पाठकों को प्रिय

145 पाठक हैं

प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....


भारतीय अवधारणाओं के अनुसार आदिकाल में प्रतिपादित कालगणना के जिन अठारह स्वतंत्र सिद्धांतों की चर्चा की गई है, सुधाकररचित गणतरगिंणी के श्लोकों में उन्हें इस प्रकार से व्यक्त किया गया है-

ब्रह्म सूर्य्य सोमः वशिष्ठोऽत्रिः पराशरः कश्यपो नारदो गर्गो मरीचमनुरीगिरा,
लोमशः पौलिश्चैव च्यवनो यवनो भृगुः शौनकोऽष्टादश्चैते ज्योतिशास्त्रः प्रर्वतका।

इन अठारह आदि ग्रंथों में से केवल तीन को ही अपौरुषेय (दिव्य) माना गया और वे हैं-ब्रह्म, सूर्य व सोम सिद्धांत। अपने नाम के अनुरूप ब्रह्म सिद्धांत में नक्षत्रों की आपसी गतिशीलता के सापेक्ष गणन की बृहत्तम इकाइयाँ यानी ब्रह्मदिन व ब्रह्मवर्ष द्वारा जहाँ ब्रह्मांड की अवधि को मापने का प्रयास किया गया, वहीं सूर्य सिद्धांत में सौरमंडल के सापेक्ष सूर्य व उसके ग्रहों के अस्तित्व में आने तथा विघटन की गणना के लिए काल-खंडों को सौर-वर्षों, युगों, मन्वंतरों तथा कल्पों में विभाजित किया गया। इसी प्रकार सोम सिद्धांत में चंद्रमा की घटती-बढ़ती कलाओं के आधार पर गणना का विभाजन पक्षों, तिथियों, घटिकाओं, अंशों तथा विकलाओं में करके समय के सूक्ष्मतम मापों का निर्धारण किया गया। 'वेदांग ज्योतिष' नामक एक अन्य प्राचीन ग्रंथ में चंद्रमा के पूर्ण परिक्रमा-पथ को 13.3 अंश प्रति नक्षत्र की गति से कुल सत्ताईस नक्षत्रों (अश्विनी, भरणी, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा, आद्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वा-फाल्गुनी, उत्तर-फाल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वाभाद्रपद, उत्तर-भाद्रपद व रेवती) में विभाजित किया गया। चूँकि पृथ्वी के सापेक्ष चंद्रमा को अपनी परिक्रमा पूर्ण करने में विशुद्ध 273 दिन लगते हैं, अतः इस अंतर को नियमित करने के लिए उन्नीस घटी के अभिजित नामक अट्ठाईसवें नक्षत्र की तदर्थ व्यवस्था भी की गई। ये सभी मूल ग्रंथ अब अप्राप्य हैं। कालांतर में प्रायः विलुप्त से हो चले गणन-सूत्रों को पुनः स्थापित करने के उद्देश्य से प्रसिद्ध अंतरिक्ष विद्वान् वराहमिहिर ने अपने समय में उपलब्ध ब्रह्म, सूर्य, सोम, रोमक तथा वसिष्ठ सिद्धांतों के सूत्रों को अपने गणितीय अनुभवों के आधार पर समन्वय करते हुए 'पंचसिद्धांतिका' नामक ग्रंथ की रचना का लगभग इन्हीं के काल में ‘लाट' नामक एक अन्य विद्वान् ने मूल सूर्य तथा ब्रह्म सिद्धांतों के गूढ सूत्रों का सरलीकरण करते हुए आज के प्रचलित तथा प्रामाणिक ‘सूर्य सिद्धांत' की पुनः रचना की। इसी तरह वर्गमूल, घनमूल, अंकवर्धन क्रमनांक आदि गूढ़ अंकगणितीय सूत्रों के साथ एक पर बीस शून्यों की संख्याओं {इकाई, दहाई, शत (सौ), युत (हजार), अयुत (दस हजार), लक्ष (लाख), नयुत (दस लाख), अर्बुद (कोटि या करोड़), न्यर्बुद (दस करोड़), खर्ब, निखर्ब, बूंद, शंख, पद्य, सागर, अंत्य, मध्य, परार्द्धय, नील व लोक} के गणन का दृष्टांत प्रस्तुत करनेवाले महान् भारतीय गणितज्ञ आर्यभट्ट ने गणित के अपने अभूतपूर्व ग्रंथ 'आर्य सिद्धांत मे कालगणना के सभी आयामों का विस्तृत वर्णन किया है। ग्रंथों के दृष्टांत यह प्रमाणित करते हैं कि एक से लेकर परार्ध तक के गणन का सिद्धांत आर्यभट्ट से भी बहुत पूर्व यानी ‘यजुर्वेद' (17/2) के काल से ही व्यवहृत होता चला आ रहा था (इमामेऽअग्नऽइष्टका धेनवः सन्चेका च दश च शतं च सहनं चायुतं नियुतं च प्रयुतं चार्बुदं च न्यर्बुद च समुद्रश्च मध्यं चान्तश्च परार्धश्चैतामेऽअग्नऽइष्टका धेनवः सन्त्वमुत्रामुष्मिंल्लोके)।

कालक्रम में सूर्य-रश्मियों से धरती में गड़ी कील की बदलती छायाओं के अनुमान से समय ज्ञात करने की विधि को शनैः-शनैः उन्नत करते हुए मयूर, वानर व मानव कपाल यंत्रों तथा जल एवं रेत-कण यंत्रों का क्रमशः निर्माण किया गया (तोय यंत्र कपालाद्यैर्मयूर नर वानरैः ससूत्र रेणु गर्भश्च सम्यक कालं प्रसादयेतु-सूर्य सिद्धांत-1.21)। इसके साथ ही समय की सूक्ष्मतर इकाइयों को निर्धारित करने के लिए भारतीय गणितज्ञों ने पलक झपकने में लगनेवाले समय को 'निमेष' की संज्ञा देते हुए ऐसे तीन निमेदों का एक क्षण के क्रम से पचहत्तर क्षणों की एक 'कला' व पंद्रह कलाओं की एक 'घाटेका' निरूपित की। घटिकाओं का मान निकालने के लिए ताँबे के पात्र के पेंदे में इस प्रकार से छेद किया जाता था कि वह स्वच्छ जल में एक दिन-रात में कुल साठ बार ड्रब जाता था (ताम्रपात्रमधश्छिद्रंन्यस्ते कृण्डे अमलाम्भसि, षष्टिर्मज्जत्यहोरात्रं स्फुटं यंत्रं कपालकम्-सृ.सि.-1.23)। इस तरह साठ घटिकाओं की एक 'अहोरात्रि' (दिन-रात) के क्रम से तीस अहोरात्रियों का 'माह' व बारह मासों के एक 'वर्ष' या दिव्य (देव) अहोरात्रि का सृजन किया गया (नाड़ी शष्टयातु नाक्षत्रमहोरात्रं प्रकीर्तितम् तशिता भवेन्मासः मासैादशभिर्वर्ष दिव्यं तदह उच्यते-सू. सि.-1.12/13)। यही नहीं, कालक्रम में अपनी विधाओं का विकास करते हुए भारतीय गणितज्ञों ने निमेष जैसे न्यूनतम मान को भी पुनः लाखों में विभाजित करते हुए समय के सर्वकालिक सूक्ष्मातिसूक्ष्म मान यानी ‘परमाणु' (सेकेंड के 3,79,675 वें हिस्से के बराबर) को निर्धारित करने का कीर्तिमान भी स्थापित किया।

इधर पश्चिमी जगत् में ‘सेविल के जॉन' (सन् 1135) द्वारा प्रतिपादित गणितीय सूत्रों के आधार पर पाश्चात्य विद्वानों द्वारा आजकल की प्रचलित समय-पद्धति की न्यूनतम इकाई यानी 'सेकेंड' की परिभाषा को सन् 1884 में ही निश्चित किया जा सका था। इन विद्वानों द्वारा सेकेंड का मान निकालने के लिए पृथ्वी को अपनी धुरी के संपूर्ण चक्कर में लगनेवाले समय के 86400 वें हिस्से को प्रमाण माना गया था। सन् 1960 मे पुनः यह निर्णय लिया गया कि सेकेंड का मान पृथ्वी का अपनी धुरी पर लगने वाले चक्कर के आधार के बजाय सूर्य की पूर्ण परिक्रमा अवधि के 3,15,56,92,59,747वें हिस्से के बराबर होना चाहिए। अंततः सन् 1970 में परमाणु घड़ियों के आविष्कार के पश्चात् इसका मान इतना विशुद्ध कर लिया गया कि अब तीन सौ वर्षों में खगोलीय काल से इसका अंतर मात्र एक सेकेंड ही रहता है। इस प्रकार पाश्चात्य विधि में सेकेंड को समय की प्रारंभिक इकाई मानते हुए ऐसे साठ सेकेंडों का एक मिनट, फिर साठ मिनटों के एक ऑवर (घंटा) के क्रम से चौबीस घंटों के एक पूर्ण दिन (डे) में काल को बाँटा गया। इसी के अनुरूप समय की उत्तरोत्तर इकाइयों को निर्धारित करने के लिए सात दिनों को वीक (सप्ताह), दो सप्ताहों को एक फोर्ट नाइट (पक्ष) या चार सप्ताहों के एक मंथ (माह) के क्रम से बारह महीनों को एक ईयर (वर्ष) की संज्ञाएँ दी गईं। कालगणना की यह पाश्चात्य विधि मूलतः भारतीय अवधारणाओं के लगभग अनुरूप ही नहीं रही है, अपितु इनमें प्रयुक्त होनेवाली समय-सूचक शब्दावली भी भारतीय भाषा का ही एक प्रकार से अपभ्रंश मानी जा सकती है। उदाहरणार्थ, क्षण से सेकेंड, मित (छोटा) से मिनट, होरा से ऑवर, दिवस से डेज, पक्ष से फोर्ट-नाइट, मास से मंथ, वर्ष से ईयर्स, युग से एज, आरोहणम् मार्तण्डस्य से ऐंटे-मेरिडियन (ए.एम.) व पतनम्-मार्तण्डस्य से पोस्ट-मेरिडियन (पी.एम.) आदि की आपसी साम्यता इसके प्रमाण के रूप में देखे जा सकते हैं। इसी तरह काल की बृहद् इकाइयों को तय करने के लिए पाश्चात्य विधि में जहाँ डिकेड (दस वर्ष), सेंटिनरि (शताब्दी), मिलेनियम (सहस्राब्दी) की परिभाषाएँ तय की गई हैं, वहीं भारतीय गणितज्ञों ने 360 मानव वर्षों को एक देववर्ष में परिभाषित करते हुए बारह हजार देव वर्षों के एक महायुग के क्रम से हजार महायुगों (अथर्ववेद के अनुसार, जिसकी कुल अवधि चार अरब बत्तीस करोड़ वर्ष यानी सूर्य की संपूर्ण आयु होती है-शततेऽयुतं हायनान् द्वेयुगे त्रीणि चत्वारि कृण्मः) को एक कल्प (सहन युगपर्यन्तम् अहर्यद् ब्रह्मणो विदुः), फिर ऐसे बहत्तर हजार कल्पों को ब्रह्मांड (ब्रह्मा) की संपूर्ण आयु का आधार माना। योगवासिष्ठ तो इससे भी कहीं दूर की कौड़ी तलाशते हुए ब्रह्मा की संपूर्ण आयु को विष्णु का एक दिन तथा विष्णु के इस प्रकार के सौ वर्ष की पूर्ण आयु को भगवान् शंकर का एक दिन और फिर चित्तवृत्ति निरोध की शिव की समाधिस्थ अवस्था को ऐसा अवरोध माना है कि काल भी वहाँ जाकर ठहर जाता है (जीवितं यद् विरिंचस्य तदिनं किल चक्रिणः विष्णोर्यज्जीवितं तद् बृषांकस्य वासरः ध्यान प्रक्षीण चित्तस्य न दिनानि न रात्रयः)। किचित् इसी कालातीत भाव के प्रतीकात्मक ही भारतीय शास्त्रों ने शिव को ‘महाकाल' की संज्ञा से भी विभूषित किया गया है।

...Prev | Next...

<< पिछला पृष्ठ प्रथम पृष्ठ अगला पृष्ठ >>

अन्य पुस्तकें

लोगों की राय

No reviews for this book