भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
भारतीय द्रष्टाओं ने देव वर्षों के उपरांत जिस महायुग की तरफ संकेत किया है,
उसे भी उन्होंने पुनः चार युगों (सत्, त्रेता, द्वापर व कलि) में विभाजित
किया। सूर्य-सिद्धांत के अनुसार अपनी गति के अनुसार चक्कर काटते हुए सौरमंडल
के सभी ग्रह जब शून्य भोगांश के साथ एक ही स्थान पर आ जाते हैं (अस्मिन्
कृतयुगस्यान्ते सर्वे मध्यगता ग्रहाः-सू.सि.-1.57), तो ऐसी खगोलिक स्थिति से
नए युग का प्रारंभ माना जाता है। भारतीय मनीषाओं के अनुसार सत् युग के
प्रारंभ के समय सातों ग्रह शून्य भोगांश के साथ मेष राशि में, त्रेता युग के
प्रारंभ के समय कर्क राशि में, द्वापर के प्रारंभ के समय तुला राशि में तथा
कलियुग के प्रारंभ के समय मकर राशि में स्थित होते हैं। चूँकि इन राशि विशेष
में शून्य भोगांश के साथ एकत्र हुए सप्त-ग्रहों की संयुक्त गतिशीलता ही
युग-प्रारंभ का द्योतक होती है, अतः युग-चक्र को गति प्रदान करने के
प्रतीकस्वरूप ही ज्योतिष शास्त्र में इन चारों राशियों (मेष, कर्क, तुला व
मकर) को चलित या चर संज्ञक माना गया है। इसी प्रकार आकाशगंगा के सातों
सूर्यों के शून्य भोगांश के साथ एक स्थान पर एकत्रित होने से (ततौ दिनकरै
र्दीप्तै सप्तभिर्मनु जाधिप) महायुग (इनके ताप से सभी प्रकार के जैविक
सृष्टियाँ भस्म हो जाती हैं तथा जल सूख जाते हैं, यानी प्रलयकाल होता है) का
प्रारंभ होता है तथा इसका एक चक्र खगोलीय गणना के अनुसार 43,20,000 वर्षों का
होता है। 'थियोगोनी ऑफ द हिंदू' नामक पुस्तक में वर्णित तथ्यों के अनुसार
यूरोप के प्रसिद्ध गणितज्ञ बैली (Bailly) ने खगोलीय गणना कर यह पाया था कि
ईसा पूर्व 3101 यानी आज (अर्थात् ईसाई वर्ष 2003) से 5104 वर्ष पहले 17/18
फरवरी को भारतीय समयानुसार मध्य रात्रि में 2 बजकर 27 मिनट 10 सेकेंड पर सभी
सातों ग्रह शून्य भोगांश के साथ मकर राशि में ही रहे थे। इसके अतिरिक्त एक
अद्भुत खगोलीय घटनाक्रम के तहत उक्त समय में रोहिणी तथा ज्येष्ठा तारे क्रमशः
मेष व तुला राशियों एवं पूर्वाफाल्गुनी तथा शतभिषा तारे क्रमशः मिथुन व धनु
राशियों में स्थित होकर अंतरिक्ष में एक बृहद् गुणन-चिह्न बना रहे थे। भारतीय
मान्यताओं के अनुसार, खगोलीय महायुग के प्रारंभ का यही समय माना गया है और
नक्षत्रों द्वारा बनाए गए कलह के प्रतीक (x) के आधार पर ही इस महायुग को
कलियुग के रूप में परिभाषित किया गया। इन खगोलीय परिमाणों के अनुरूप ही
मानवी-वृत्तियों के काल निर्धारण के लिए मानुषी-आयु के अनुपात से कल्प,
मन्वंतर व युगाब्दियों की व्याख्याएँ भारतीय शास्त्रों में अलग से की गई हैं
(इत्येतत्पंचवर्ष हि युगं प्रोक्तं मनीषिभिः-वायु पुराण-31/49)। वायु पुराण
की ही भाँति वेदांग ज्योतिष नामक एक अन्य ग्रंथ में भी पाँच वर्षों की अवधि
को ही एक युग का परिमाण माना गया है। इसके अतिरिक्त तैत्तिरीय ब्राह्मण व
काठक संहिता आदि वेदांतों में भी पाँच वर्षों के युग का ही प्रमाण दिया गया
है। इस तरह सत्तर युगों को काल के एक डग की संज्ञा देते हुए पुराणकर्ताओं ने
ऐसे ही सत्तर डगों की अवधि को मानुषी मन्वंतर के रूप में चिह्नित किया है
(विक्रमस्य पदान्यस्य पूर्वाक्तान्येकसप्ततिः तानि मन्वन्तराणीह
परिवृतयुगक्रमातू, एक पदं परिक्रम्य पदानामेकसप्ततिः यदा कालः प्रकमते तदा
मन्वन्तरक्षयः-वायु पुराण-32/31-32)। प्रायः ऐसे ही आशय के साथ आयुर्वेदिक
संहिता में मानुषी मन्वंतर को 'उत्सर्पिणी' तथा 'अवसर्पिणी' में विभक्त करते
हुए आदि युग, देवयुग व कृतयुग को उत्सर्पिणी एवं त्रेता, द्वापर व कलियुग को
अवसर्पिणी में बाँटा गया है।
'ज्योतिर्भिद्भरणम्' (अध्याय-1, श्लोक-10) में उपमा अलंकार के धनी महाकवि
कालिदास 'विक्रमी संवत्' के प्रारंभ का 'युधिष्ठिरात् वेद युगाम्बराग्नयः' के
अर्थपूर्ण भावों से संकेत करते हैं। भारतीय मान्यताओं के अनुसार सत्, त्रेता,
द्वापर व कलि तथा ऋग, यजुर, साम व अथर्व के क्रमों से युग तथा वेद क्रमशः
चार-चार होते हैं, जबकि पंच स्थूल भूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु व आकाश) के
क्रम से अग्नि तीसरे व अंबर शून्य का परिचायक है। इस प्रकार उपर्युक्त श्लोक
में प्रयुक्त अग्नि (3), अंबर (0), युग (4) व वेद (4) के क्रम से अंकीय आशय
3044 बनता है, जो प्रमाणित करता है कि युधिष्ठिर से 3044 वर्ष बाद ही विक्रमी
संवत् का प्रारंभ हुआ था। महाराज युधिष्ठिर भारत-युद्ध के उपरांत ही सम्राट्
बने थे। उनका राज्यकाल कुल 36 वर्ष 8 माह 25 दिन तक का रहा था। श्रीकृष्ण के
परलोक गमन के 8 माह 25 दिनों के पश्चात् परीक्षित को राज्य भार सौंपकर ही
युधिष्ठिर भाइयों समेत महाप्रस्थान को निकले थे। इस प्रकार श्रीकृष्ण की
मृत्यु का महाभारत युद्ध से कुल अंतर 36 वर्षों का सिद्ध होता है। वायु पुराण
(99/429) के अनुसार, जिस दिन कृष्ण ने शरीर त्यागा था, उसी दिन से कलियुग
प्रारंभ हुआ था (यस्मिन्कृष्णो दिवं यातस्तस्मिन्नेव तदा दिने, प्रतिपन्नः
कलियुगस्तस्य संख्या निबोधत)। इस गणना से विक्रमी संवत् का आरंभ कलियुग के
3045वें वर्ष में सिद्ध होता है। इस तरह कलियुग से अब तक व्यतीत वर्ष
(3044+चल रहे विक्रमी संवत् यानी 2060) का योग =5104 बनता है। विक्रमी संवत्
का प्रारंभ ई.पू. 57 माना गया है। परिणामतः आंग्ल गणना (बैली के परीक्षणों)
के अनुसार भी खगोलीय कलियुग का प्रारंभ (18/ 2/2003+57+3044)=5104 वर्ष
पूर्व, अर्थात् (5104-18/2/2003) ई.पू. 3101 में ही प्रमाणित होता है।
कलियुग प्रारंभ होने की तिथि के निर्धारण की एक अन्य विधि भी है-नक्षत्र
सापेक्ष गणना। इस गणना को सप्तर्षि के परिभ्रमण का अनुमान लगाकर भी तय किया
जा सकता है। वायु पुराण के अनुसार सप्तर्षि प्रति नक्षत्र में सौ वर्ष तक
रहते हैं। इस प्रकार प्रति नक्षत्र सौ वर्ष के हिसाब से अंतरिक्ष के कुल
सत्ताईस नक्षत्रों के चक्र को पूरा करने में उन्हें 2700 वर्ष लगते हैं
(सप्तर्विशतिपर्यन्ते कृत्स्ने नक्षत्र मण्डले, सप्तर्षयस्तु तिष्ठन्ति
पर्यायेण शतंशतम्)। खगोल प्रामाणिक सप्तर्षि के इस संपूर्ण परिभ्रमण काल को
'सप्तर्षि संवत्सर' के नाम से जाना जाता है। वायु पुराण के अनुसार, महाराज
प्रतीप के समय प्रारंभ हुआ सप्तर्षि का यह संवत्सर चक्र आंध्रों के
राज्य-प्रारंभ के समय पूरा हुआ था। (सप्तर्षयस्तदा प्राहुः प्रतीपे राजि
वैशतम्, सप्तविशैः शतैर्भाव्या आन्ध्राणां तेऽन्वया पुनः)। महाराज प्रतीप से
परीक्षित तक का अंतर 300 वर्षों का रहा था और महाराज परीक्षित से ही कलियुग
का प्रारंभ माना गया है। इस प्रकार परीक्षित से आंध्र राज्य-स्थापना का समय
2700-300 यानी 2400 वर्ष का बनता है और आंध्र राजवंश से प्रारंभ आभीर,
गर्दभिल्ल, शक आदि राजवंशों सहित विक्रमादित्य द्वारा विक्रमी संवत् चलाए
जाने तक का कुल समय अंतर 644 वर्षों का बनता है। इस तरह परीक्षित से लेकर
विक्रमी संवत् प्रारंभ होने की कुल अवधि होती है = 2400 + 644 यानी 3044
वर्ष। इस समय अर्थात् सन् 2003 के अप्रैल माह से विक्रमी संवत् का 2060वाँ
वर्ष प्रारंभ हुआ है, अतः कलियुग प्रारंभ से अप्रैल 2003 तक व्यतीत हुए
कालखंड का कुल योग 3044 + 2060 = 5104 वर्ष बैठता है।
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