भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
|
6 पाठकों को प्रिय 145 पाठक हैं |
प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
इस प्रकार जैविक सृष्टि के उत्तरोत्तर वृद्धि तथा सुसंस्कृत मानवी समाज के
लिए कृतसंकल्प इस दिव्य पुरुष (ब्रह्मा) के संसर्ग में आए रुद्र के कुछ काल
उपरांत चार अन्य अमैथुनीय पुरुषों सनक, सनंद, सनातन व सनत कुमार का संपर्क
हुआ। इनका नामकरण करते हुए ब्रह्मा ने इन्हें तत्त्वज्ञान से दीक्षित किया,
जिससे अभिभूत होकर ये सभी वीतरागी मुनि बन गए। इनके पश्चात् ब्रह्मा का
संपर्क छह अमैथुनीय पुरुषों तथा छह अमैथुनीय स्त्रियों से हुआ। इन सभी
स्त्री-पुरुषों का नामकरण कर इन्हें युग्मों में बाँटते हुए ब्रह्मा ने इनको
वेदज्ञान से प्रदीप्त किया। मरीचि-सन्नति, अत्रि-अनुसूया, अंगिरा-स्मृति,
पुलत्स्य-भूति, पुलह-संभूति तथा क्रतु-क्षमा नामधारी इन युगल समूहों को
विधिवत दीक्षित करके ब्रह्मा ने इन्हें रुद्र द्वारा प्रतिपादित मैथुनीय
प्रक्रिया का अनुसरण करते हुए प्रजा-वृद्धि के लिए प्रेरित किया। इसी तरह कुछ
काल के पश्चात् चार और अमैथुनीय पुरुष तथा तीन अमैथुनीय स्त्रियाँ भी ब्रह्मा
के सान्निध्य में आईं। तदनुसार नामकरण व दीक्षा आदि देकर ब्रह्मा ने इन्हें
भी सांसारिक कार्यों में सहयोग करने का निर्देश दिया। इस समूह में से केवल
नारद ने स्वच्छंद विचरण करने की इच्छा व्यक्त की तथा शेष भृगु-ख्याति,
वसिष्ठ-उर्जा तथा दक्ष (अग्नि)-स्वाहा नामधारी युग्मों ने सांसारिक कामनाओं
में ही अपनी अभिरुचियाँ प्रकट कीं। चूँकि उपर्युक्त सभी अमैथुनीय मानवों तथा
ब्रह्मा के बीच उम्र के अंतर के साथ गुरु-शिष्य का भी संबंध रहा था, अतः ये
सभी ब्रह्मा के मानस (अर्थात् मन से स्वीकृत) संतान ही कहलाए। ब्रह्मा के इन
सभी मानस-पुत्रों ने अपने सहगामिनियों सहित अलग-अलग स्थानों पर अपने-अपने
आश्रमों को स्थापित करके ब्रह्मा द्वारा निर्देशित संकल्पों को साकार करने
लगे। कालांतर में ब्रह्मा को शारदा नामक अपनी शिष्या से एक औरस-पुत्र भी
प्राप्त हुआ, जिसे स्वयं प्रकट ब्रह्मा के चरित्र के अनुरूप संज्ञा देते हुए
‘स्वायंभुव' के नाम से अलंकृत किया गया (मिथुनानां विसर्गादौ
मनुःस्वायंभुवोऽब्रवीत्-निरुक्त-3.4)। ब्रह्मा द्वारा सांसारिक विद्याओं में
प्रवीण होकर इस व्यक्ति ने 'शतरूपा' नामक स्त्री के सहयोग से स्थान-स्थान पर
अलग-थलग बिखरे पड़े मानवों को सामाजिक सूत्र में पिरोना तथा उन्हें सुसंस्कृत
बनाना प्रारंभ कर दिया। उसके महती प्रयासों के कारण विकसित हो रहे मानवी समाज
में उसकी ख्याति बढ़ती चली गई और मानवी सुधार के अपने प्रयासों के कारण वह
'मनु' के अतिरिक्त विशेषण यानी 'स्वायंभुव मनु' के नाम से पुकारा जाने लगा।
इधर ब्रह्मा के मानस-पुत्रों ने अपने-अपने आश्रमों को विभिन्न विद्याओं के
केंद्र के रूप में स्थापित करके मानवी उपयोगिता से संबंधित विषयों पर गहन शोध
तथा अन्वेषणात्मक प्रक्रियाओं का सूत्रपात किया। वेद की ऋचाओं को मानवी भाषा
में सूक्तबद्ध करना, अग्नि तथा धातुओं की खोज तथा उनकी प्रयोग-विधि; वेद के
अंग-उपांग-दर्शन तथा उपनिषदों की रचनाएँ; यज्ञ-विधि; वाद्य-संगीत-नृत्य व
कलाएँ; औषधि, रसायन, कृषि, यंत्र तथा शस्त्र विज्ञान; अर्थ, न्याय, योग व
धर्मशास्त्र आदि उनके इन्हीं प्रयासों के ही प्रतिफल रहे थे। इनके अतिरिक्त
आध्यात्मिक, सामाजिक, राजनैतिक व गवेषणात्मक द्विविधाओं तथा विवादों के
सर्वमान्य हल के लिए इन मानस-पुत्रों ने ब्रह्मा की अध्यक्षता में एक
सर्वोच्च पीठ की भी स्थापना की थी। चूँकि इस पीठ की अध्यक्षता अपने जीवनकाल
पर्यंत तक ब्रह्मा ही करते रहे थे, अतः उनके उपरांत गठित इस प्रकार के पीठ के
चयनित अध्यक्षों को भी 'ब्रह्मा' के ही नाम से संबोधित किया जाने लगा। यही
कारण रहा कि हिरण्यकशिपु से लेकर हरिश्चंद्र, भागीरथ, रावण तथा कृष्ण के
कालों तक में ब्रह्मा का अस्तित्व किसी-न-किसी रूप में उपस्थित होता रहा था।
कालांतर में व्यास आदि के प्रखर वर्चस्व के कारण ब्रह्मा का यह दीर्घजीवी
व्यक्तित्व तो अवश्य लुप्त हो गया, किंतु यज्ञ-अनुष्ठान आदि भारतीय संस्कारों
में आज भी मुख्य आचार्य को ब्रह्मा की उपाधि से विभूषित करके परंपरा का क्षण
मात्र के लिए ही सही, अक्षरशः पालन किया जाता है।
इन सबके अतिरिक्त एक और ब्रह्मा का आख्यान भी पुराने साहित्य में मिलता है।
वृत्तांत के अनुसार विश्वप्रसिद्ध जलप्लावन की घटना के पश्चात् अदिति पुत्र
वरुण ने अपने भतीजे यम का सहयोग करते हुए प्रभावित क्षेत्र में रुके जल को
नहरों की खुदाई करके समुद्र में बहाकर इस स्थान को मानवों के रहने योग्य
बनाया था। प्राकृतिक आपदाओं से वीरान हुए स्थानों पर मानवी बस्ती को
पुनर्स्थापित करने की वरुण की इन श्रम-साध्य रचनात्मक कृतियों के कारण उन्हें
विधाता, विरंचि, ब्रह्मा आदि नामों से ही संबोधित किया जाने लगा।
इस प्रकार सृजनशीलता व विस्तरणशीलता के पर्यायवाची रहे 'ब्रह्मा' का यह
उद्बोधन आधिदैविक सृष्टिकर्ता ब्रह्मा के अलावा अलग-अलग कालखंडों व स्थानों
में अस्तित्व में बने रहे कुछ इसी प्रकार के चरित्रों को निभानेवाले दिव्य
आदि-पुरुष, सर्वोच्च पीठों के शृंखलाबद्ध अध्यक्षगणों तथा वरुण के रूप में
परिभाषित तीन प्रकार के मानवी व्यक्तित्वों के लिए भी प्रयुक्त होता रहा है।
|