भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
सृष्टि-रचना के लिए प्रगट हुई आद्य-शक्ति को चूँकि ब्रह्मा कहा गया, अतः इसी
भाव के अनुरूप पृथ्वी पर मानवी-सृष्टि के प्रारंभ होने पर उत्पन्न हुए प्रथम
ज्ञात पुरुष का भी प्रतीकात्मक नामकरण 'ब्रह्मा' ही किया गया (भूतानां
ब्रह्मा प्रथमोत जज्ञे-अथर्ववेद)। भारतीय मान्यताओं के अनुसार युगांतर प्रलय
के पश्चात् जैविक सृष्टि के अनुकूल परिस्थितियों के बनने पर, जल से बाहर
निकली कमलवत् भूमि से मानवी-सृष्टि का यह दिव्य आदि-पुरुष (ब्रह्मा) स्वतः ही
उत्पन्न हुआ था (ततस्तेजोमयं दिव्यं पदम सृष्टं स्वयंभुवा, तस्मात् पद्मात्
समभवद् ब्रह्मा वेदमयो निधिः-महाभारत शांतिपर्व-181. 15)। वैज्ञानिक शोधों के
अनुसार लगभग तीन करोड़ वर्ष पूर्व घटित विशिष्ट प्राकृतिक संयोगों से धरती की
खुरदरी परतों में निर्मित हुए अति विशेष प्रकार के अंडों से जनमे अमैथुनीय
मानवों के क्रम में ही इस ज्ञात आदि-पुरुष का अस्तित्व उभरा होगा।
पुरातत्त्ववेत्ताओं को उत्तर-पश्चिमी हिमालय की शिवालिक पहाड़ियों के निचले
हिस्से में मिले एक करोड़ वर्ष पूर्व के मानवी जीवाश्म इसी आधार की पुष्टि
करते हैं। महाभारत (शांति-पर्व-188/37) के अनुसार ब्रह्मा के नाम से विख्यात
हुए इस प्रथम पुरुष की देह-आकृति मानवों की ही भाँति पंच-भौतिक कायावाली ही
रही थी। भारतीय ग्रंथों में वर्तमान मानवी शृंखला के आदि-पुरुष को
मानवी-सृष्टि का सातवाँ ब्रह्मा माना गया है (इदं च सप्तम जन्म पद्मजन्मेति
वै ब्रह्मणा-महाभारत, शांतिपर्व 347.43)। भारतीय मान्यताओं के अनुसार चूँकि
युगांतर प्रलयों अर्थात् 43,20,000 वर्षों के नियमित अंतरालों पर घटित
होनेवाली प्राकृतिक त्रासदी से पृथ्वी की संपूर्ण जैविक सृष्टियाँ नष्ट हो
जाती रही हैं, अतः सातवें ब्रह्मा का यह संदर्भ संकेत करता है कि प्रथम
मानवी-सृष्टि की घटना से लेकर कमलवत् ब्रह्मा तक इस प्रकार के कुल छह युगांतर
प्रलय घट चुके थे और तदनुसार इतने ब्रह्मा भी पैदा हो चुके थे। आधुनिक
विकासवादियों का भी यही मत रहा है कि कालगत असमानताओं के उपरांत
पिथेकांथ्रोपस, सिनांथ्रोपस, इयानथ्रोपस, नियंडथैलियन, पेलेस्टाइन व रोडेशियन
इन छह प्रकार की मानवी प्रजातियों की क्रमवार उत्पत्ति के पश्चात् ही आधुनिक
मानव जाति का पूर्वज होमोसैपियन अस्तित्व में आया था। भारतीय ग्रंथों में
पूर्ववर्ती छह ब्रह्माओं की उत्पत्तियों के विषय में क्रमवार प्रकाश डालने के
अतिरिक्त इनसे प्रसूत हुई मानवी वंशावलियों का विस्तृत वृत्तांत अब उपलब्ध
नहीं है, परंतु सातवें ब्रह्मा यानी वर्तमान काल-खंड के आदि-पुरुष तथा उसके
उपरांत विकसित मानवी सभ्यता का क्रमिक विवरण भारतीय शास्त्रों में सहजता से
मिल जाता है।
वर्तमान मानवी कालखंड का यह ज्ञात आदि-पुरुष अपने पूर्ववर्ती ब्रह्माओं के
अनुरूप धरती से उत्पन्न एक अमैथुनीय प्राणी ही रहा था, जिसकी उत्पत्ति पिछले
प्रलयांतर हुए महाविनाश के लाखों वर्ष पश्चात् अनुकूल जलवायविक परिस्थितियों
के बनने पर हुई थी। ऋग्वेद के अनुसार, ध्रुव से दक्षिण किसी सुरक्षित स्थान
पर (संभवतः हिमालय के आस-पास) पृथ्वी के गर्भ से यह प्रथम-पुरुष आज से लगभग
दो लाख वर्ष पूर्व उत्पन्न हुआ था (युक्ता मातासीद् धुरि दक्षिणाया
अतिष्ठद्गर्भो वृजनीष्वन्तः ऋग्वेद-1.169-9)। संभवतः इस ज्ञात प्रथम-पुरुष के
पूर्व या फिर साथ-साथ हिम-क्षेत्र में प्रकटे नील-लोहित वर्ण के रुद्र नामक
बलिष्ठ पुरुष के अतिरिक्त धरती के अन्य क्षेत्रों में भी इसी तरह के कुछ और
अमैथुनीय प्राणी भी उत्पन्न हुए होंगे, जो प्राकृतिक तथा अन्य कुप्रभावों के
कारण या तो अधिक दिनों तक अस्तित्व में नहीं रह पाए होंगे या फिर अपनी-अपनी
दूरस्थ स्थिति तथा आपसी संपर्क के अभाव में सामाजिक धरातल पर चर्चित नहीं हो
पाए होंगे। इसलामिक मान्यताओं के भी अनुसार 'पहले इनसान (आद्यतम पूवर्ज) या
'इनसानी कौम के पहले पैगंबर' (हजरत आदम) वहिश्त (स्वर्ग) से निकाले जाने के
बाद हिंदुस्तान में ही आकर उतरे थे। हिंदुस्तान के बर्फीले दरों में जो
खुशबूदार चमन और जड़ी-बूटियाँ मौजूद हैं, उन्हें हजरत आदम ही वहिश्त से यहाँ
लाए थे। अल्लाह ने अपना हुक्म सबसे पहले उन्हें ही सुनाया था। चूँकि आदम उस
समय हिंदुस्तान की सरजमीं में दाखिल हुए थे, इसलिए इस मुल्क को ही सबसे पहले
अल्लाह का पैगाम सुनने का फक्र हासिल हुआ था।' इसलाम की इस धारणा की पुष्टि
करते हुए हजरत मुहम्मद मुस्तफा सल्लाह अलॅहिवसल्लम ने फरमाया था कि
'हिंदुस्तान से आती हुई अल्लाह के मारिफत की पाकीजी खुशबू को मैं ढूँघ रहा
हूँ।' पूर्णतः प्रकृति की अनुकंपा पर आश्रित अपने जैसे अयोनिज-मानवों के
संरक्षण व अतिजीविता से संबंधित स्थितियों का सूक्ष्मता से अध्ययन करता हुआ,
धरती का यह सातवाँ ब्रह्मा निरंतर अपने ज्ञान व अनुभवों का सिर्फ विकास ही
नहीं करता गया, अपितु भावी पीढ़ियों के ज्ञानरंजन के लिए विविध प्रकार की
विद्याओं के सृजन के साथ-साथ जीवनोपयोगी पदार्थों की खोज व संकलन आदि के
कार्यों में भी प्रयासरत रहा। सप्तऋषियों (जिन्हें पाश्चात्य अवधारणाओं में
सात बुद्धिमान व्यक्ति या Seven wisemen of the world कहा जाता है) को
अंतरिक्ष से प्रसारित प्रतिध्वनियों (वेद-मंत्रों) को समझने तथा उन्हें मानवी
भाषा में व्यक्त करने का ज्ञान ब्रह्मा ने ही दिया था। इसके अतिरिक्त
स्वभावों के अनुरूप पदार्थों का नामकरण तथा भाषा, लिपि आदि का ज्ञान भी
मानवों को सर्वप्रथम इसी ब्रह्मा यानी प्रथम ज्ञात-पुरुष द्वारा ही मिला था।
पाश्चात्य अवधारणाओं के अनुसार 'वर्णमाला', जो फोनेशियनों की देन मानी गई है,
का प्रचलन दो हजार वर्ष ईसा पूर्व के आस-पास ही प्रारंभ हुआ था। भाषाशास्त्री
हग मोरेन व साईरस गोरडॉन के अनुसार, भूमध्यसागरीय अंचलों में इससे पूर्व चीन,
जापान व कोरियाई क्षेत्रों की ही भाँति चित्र या संकेत लिपियों का प्रचलन रहा
था। इन्हीं चित्रलिपियों यानी पिक्टोग्राफी-आइडियोग्राफी-लोगोग्राफी के क्रम
से ही आधुनिक लिपियों का अस्तित्व उभरकर सामने आया है। इसी क्रम में भाषाविद्
जहाँ आस्ट्रिक या आग्नेय भाषा के काल को ईसा पूर्व 14000 से 9000 वर्ष का
मानते हैं, न लिपि-प्रयोग के काल के प्रति उनका आकलन ईसा पूर्व 10,000 वर्ष
का है। पाणिनि (2700 ईसा पूर्व) के पश्चात् की लौकिक संस्कृत से बहुत पूर्व
की मानुषी भाषा (वैदिक संस्कृत) में रचित वेद ग्रंथ को विश्व की सबसे प्राचीन
पुस्तक माना गया है। इस मानुषी भाषा से पूर्व सौरी (सुरों में प्रवृत्त) भाषा
का प्रचलन रहा था और इसका उद्भव आद्य ऋषियों द्वारा अंतरिक्ष में व्याप्त
ध्वनि-तरंगों को दुहराने के प्रयास में संभव हो पाया था। इसी प्रकार भारतीय
अवधारणाओं में ब्रह्मा द्वारा प्रकट करने के कारण मूल लिपि को ब्राह्मी लिपि
(ब्राह्मी ब्रह्मोद्भवा) ही कहा गया है। ब्रह्मा द्वारा प्रदत्त नामकरण की
भारतीय मान्यताओं के सदृश्य बाइबिल भी सभी प्रकार के जीवों तथा भौतिक
पदार्थों के नामों का एडम द्वारा ही रखे जाने की उद्घोषणा करती है, जबकि
मिस्री थॉथ को, बेबीलोनियन नेबो को, यूनानी हर्मेस सदृश्य अपने पौराणिक
पूर्वजों को यह श्रेय देते हैं। ब्रह्मा के विषय में भारतीय शास्त्रों में यह
भी कहा गया है कि वह सभी विद्याओं के ज्ञाता थे (ब्रह्मात्वो वदति
जातविद्याम्-निरुक्त)। यही कारण था कि परवर्ती ऋषि तथा आचार्य
त्रिवर्गशास्त्र, आयुर्वेदशास्त्र, शिल्प व वास्तुशास्त्र, ज्योतिष व
अंकशास्त्र, व्याकरणशास्त्र, रसायनशास्त्र, कामशास्त्र आदि ग्रंथों के मूल
रचयिता इसी आद्य-पुरुष को मानते थे। किंचित् अपने इन्हीं नैसर्गिक रचनात्मक
वैशिष्ट्य के कारण अपने काल के अन्य अमैथुनीय मानवों की अपेक्षा केवल ब्रह्मा
ही भावी पीढ़ियों के लिए प्रेरणा-स्रोत व इतिहास-पुरुष बन पाए थे।
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