भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
ब्रह्म, ब्रह्मा तथा आदि-पुरुष
'ब्रह्म' शब्द की व्युत्पत्ति बृह' धातु से हुई है, जिसका आशय है अनंत
विस्तार। चूँकि शाश्वत सत्ता के विराटत्व को शाब्दिक आधार देने के लिए भारतीय
मनीषाओं को 'बृह' का यह भाव अधिक उपयुक्त लगा, अतः उन्होने सर्वव्यापी उस
अज्ञेय अधिष्ठाता को संबोधित करने के लिए बृह् धातु से बने ‘ब्रह्म' शब्द का
ही चयन किया। तैत्तिरीयोपनिषद् में 'ब्रह्म' की व्याख्या करते हुए इसे 'यतो
वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति यत् प्रयन्त्यभिसंविशन्ति
तद्विजिज्ञासस्व तद् ब्रह्म' (अर्थात् समस्त भूत जिसमें पैदा होते हैं, जन्म
पाकर जिसके कारण जिसमें जीवित रहते हैं और नष्ट होकर जिसमें समाहित हो जाते
हैं, वही अनंत जिज्ञासा योग्य ब्रह्म है) यानी जन्म-स्थिति-लय (जन्माद्यस्य
यतः) का समष्टि ही माना गया है। अनंत को परिभाषित करनेवाले इस सार्थक शब्द को
स्वीकार्य करने के उपरांत भी इन ऋषियों की प्रज्ञा तृप्त नहीं हो पाई, फलतः
यजुर्वेद की ऋचाओं में ब्रह्म के विस्तार को आकाशवत् के अतिरिक्त विशेषण से
संयुक्त करते हुए उन्हें 'ॐ खम्ब्रह्म' का भी उद्घोष करना पड़ा। इतने से भी
जब उन्हें आत्म संतोष नहीं हुआ तो छान्दोग्य उपनिषद् के माध्यम से 'सर्व
खल्विंद ब्रह्म' (यानी सबकुछ ब्रह्म ही है) की घोषणा द्वारा ब्रह्म के अंतहीन
विस्तार को शब्दों की सीमा में व्यक्त करने का साहस भी उन्होंने कर दिखाया।
इस प्रकार ‘एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति' या 'एकमेवाद्वितीय' के भारतीय
अवधारणाओं के अनुसार ब्रह्म की यह परम सत्ता अपने निराकार तथा साकार, दोनों
ही स्वरूपों में समभाव से सर्वत्र विद्यमान रहती है। मनुस्मृति में ब्रह्म के
इन द्विस्वभावों की सम्यक् व्याख्या इस प्रकार से की गई है-
'यत्तत्कारणम व्यक्तं नित्यं सद सदात्मकम्।
तद्विसृष्टः स पुरुषो लोके ब्रह्मेति कीर्त्यते।।'
(मनुस्मृति-1.13)
अर्थात् जगत् के निमित्त और उत्पादन का कारक होते हुए भी दृष्टिगोचर न
होनेवाले परमपुरुष (ब्रह्म) का प्रकृति युक्त रूप ही 'ब्रह्मा' है। इस तरह यह
स्पष्ट हो जाता है कि परम सत्ता के इंद्रियातीत अज्ञेय प्रवृत्तियों को जहाँ
‘ब्रह्म' के नाम से स्मरण किया जाता है, वहीं प्रकृति के साथ संयुक्त उसके
ज्ञेय प्रवृत्तियों का उद्बोधन 'ब्रह्मा' के नाम से होता है। इस प्रकार
ब्रह्मा का तात्पर्य ब्रह्म की उस कारक शक्ति से है, जिसके द्वारा द्रष्टव्य
जगत् अस्तित्व में आता है। इसी तरह ब्रह्मा को प्रतीकात्मक मानते हुए, इसके
परिवर्धित अंशों से प्रस्फुटित सृष्टि के आवर्तन (तत अंड समवर्तत-शतपथ
ब्राह्मण) को 'ब्रह्मांड' के ही नाम से परिभाषित किया गया है।
इस द्रष्टव्य जगत् को मूर्त रूप देने के लिए ब्रह्मा को अन्य रचनात्मक
शक्तियों को भी प्रसूत करना पड़ा था। इस तरह सहयोगी शक्तियों के रूपों में
प्रादुर्भूत हुई सृजनशीलता को धाता, जल के कारक को वरुण, चुंबकीय स्रोतों को
मित्र, घर्षण की शक्ति को भग, प्राण के कारण को विवस्वान, जीवनदायिनी शक्ति
को सोम, गति के कारक को मरुत, उत्पादनशीलता को पूषा, वाणी के आधार को वाक्,
समयबोध को काल, रासायनिक शक्ति को अंश, विघटनशीलता को अर्यमा, ईच्छणता को
आत्मा, उत्क्रांति के कारक को इंद्र, नियंता शक्ति को रुद्र आदि के नामों से
जाना गया। दाता की नैसर्गिक भूमिकाओं के कारण कालांतर में इन प्राकृतिक
शक्तियों को भारतीय शास्त्रों में देवत्व की संज्ञा दी गई। वाल्मीकि रामायण
में इस भाव को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि सृष्टि-रचना के लिए ब्रह्मा
अन्य देवताओं सहित अवतरित हुए थे (ततः समभवद् ब्रह्मा स्वयंभूर्दैवतैः सह
-वा.रा. अयोध्या-110. 3)। भगवत् गीता (10/41) में इसी भाव को
'यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं श्रीमर्जितमेव वा तत्तदेवावगच्छ त्वं मम
तेजोऽशसम्भवम्' (अर्थात् जगत् के सभी ऐश्वर्य, सौंदर्य व तेजस्वी तत्त्व
ब्रह्मतेज के अंश से ही उद्भूत हुए हैं) के रूप में प्रकट किया गया है। यही
कारण रहा कि धाता, वरुण, मित्र, अर्यमा, अंश, भग, इंद्र व विवस्वान नामधारी
इन आट मूल प्राकृतिक शक्तियों के अलावा अग्नि, वायु, मरुत, रुद्र, त्वष्टा,
पूषा, अश्विनौ, सविता, द्यौ, पृथ्वी, सोम, औषधयः, अन्न, वाक्, ज्ञान, काल,
आत्मा आदि कल्याणकारी तत्त्वों को विश्व के देवता (विश्वेदेवाः) स्वीकार करते
हुए वैदिक ऋषियों ने अपनी ऋचाओं के माध्यम से स्थान-स्थान पर इनकी
अभ्यर्थनाएँ भी की हैं। इन सभी आधिदैविक प्राकृतिक शक्तियों (देवताओं) की
कार्यवृत्तियों से आमजनों को अवगत कराने के लिए ही पौराणिक चित्रों में इनकी
भाव-भंगिमाओं को गुण-धर्म के अनुरूप विभिन्न आकार-प्रकार के मानवी रूपकों में
दरशाया गया।
उदाहरण के लिए, पौराणिक चित्रों में मुँह से अग्नि या वायु निकालते हुए
क्रमशः अग्नि तथा वायु देव का स्वरूप हो या फिर हाथों में चमकते वज्र को धारण
किए हार्थी पर आरूढ़ इंद्र हों, ये सभी रूपक संबंधित देवताओं के स्वभाव तथा
शक्ति की ही अभिव्यक्ति करते हैं। इसी प्रकार अनंत सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा
का चतुर्मुखी स्वरूप भी अंतरिक्ष में चतुर्दिक् हो रही रचना के क्रम को
समझाने का एक सहज प्रयास मात्र ही है।
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