भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
अपेक्षाकृत छिछली सतहों से प्राप्त तलछटों. के विभिन्न नमूनों के आधार पर किए
गए शोधों के द्वारा समुद्र विज्ञानी (Marine Geologist) इस निष्कर्ष पर
पहुँचे हैं कि आज से लगभग बीस हजार वर्ष पूर्व महासागरों का जल-स्तर आधुनिक
परिमाण की तुलना में कम-से-कम 400 फीट नीचे रहा था। मौसम विशेषज्ञों द्वारा
एकत्र किए गए भू-तापमान (Global temperature) के आँकड़े भी उपर्युक्त कालखंड
को हिमयुगी पराकाष्टा (Extreme Glacial Period) का अंतिम बिंदु ही घोषित करते
हैं। उक्त अवधि में 50° उत्तरी अक्षांश से ऊपर का संपूर्ण भू-भाग सघन
हिमपट्टियों से आवृत रहा था एवं बेरिंग सागर के स्थान पर उत्तरी अमेरिका का
पश्चिमी सिरा (अलास्का) उत्तरी एशिया के पूर्वी छोर (साइबेरिया के उत्तदिर
पर्वतांचल) से संबद्ध रहा था। अधिकतर मानवशास्त्रियों की भी यही मान्यता है
कि अमेरिकी आदिवासियों के पुरखे बेरिंग जलडमरूमध्य के संकीर्ण मार्ग द्वारा
साइबेरिया के क्षेत्र से अलास्का होते हुए ही दक्षिण के टेइरा-देल-फ्यूगो
(Tierra-del-Fuego) के निकटवर्ती अंचलों में विस्थापित हुए थे। मयांस
अभिलेखों में इसी घटना का वर्णन इस प्रकार किया गया है- "The early natives
believe that their ancestors were have to crossed the Sea, from where the
day star (the Sun) is born, by a narrow passage which was opened for
them." इस तरह हिमयुगी प्रभावों के कारण महासागरों के जलस्तरों में आई इस
आनुपातिक गिरावटों के कारण अधिकांश तटीय भू-भागों का विस्तार जहाँ पचहत्तर से
लेकर एक सौ पचास मील तक अधिक फैला रहा था, वहीं पश्चिम के ब्रिटिश द्वीप
समूहों सहित पूर्व के जापान, ताइवान, इंडोनेशिया व ऑस्ट्रेलिया आदि
द्वीप-पुंज भी क्रमशः यूरोपीय तथा एशियाई भू-भागों से ही सीधे जुड़े रहे थे।
अमेरिकी भूगर्भशास्त्री विलियम रेयन व वाल्टर पिटमैन के अनुसार जलस्तरों में
रही पाँच सौ से लेकर छह सौ फीट की तुलनात्मक गिरावटों के कारण उक्त अवधि में
काला सागर व कश्यप सागर का आकार एक बड़ी झील सदृश्य ही रहा था, जबकि अजोब
सागर, अरल सागर व फारस की खाड़ी समेत पूर्वी चीन का पीला सागर शुष्क भूमि के
रूप में उभरे हुए थे। जलवायविक अनुसंधानों द्वारा इस बात की पुष्टि हो चुकी
है कि अठारह हजार वर्ष पूर्व द्रुत गति से बढ़े धरातलीय तापक्रमों के कारण
उत्तरी गोलार्द्ध के हिमखंडों का एकाएक पिघलना प्रारंभ हो गया था। एक अनुमान
के अनुसार इस घटना के समय दो वर्षों की अल्पावधि में ही लगभग बाईस
क्वाड्रलियन (22 x 10 24) टन हिमपिघल चुकी थी। इनके परिणामस्वरूप महासागरों
के जलस्तरों में आए 330 फीट के अस्वाभाविक उछालों ने तटवर्ती क्षेत्रों को
मीलों तक उदरस्थ कर लिया। तलछटों के परीक्षणों (Carbon Dating) पर आधारित
अपने निष्कर्षों द्वारा रेयन व पिटमैन यह उद्घाटित करते हैं कि उत्तरी हिमों
के पिघलने से जहाँ काला सागर व सफेद सागर समेत वाल्टिक व उत्तरी सागरों का
अस्तित्व उभरा था, वहीं महासागरों के जलस्तरों में हुई बढ़ोतरी के कारण
भूमध्य सागर में आए उफान ने ई.पू. 8000 के लगभग वास्पोरस के छिछले स्तरों के
माध्यम से काला सागर क्षेत्र को जल से आपूरित कर दिया था। इस प्रकार काला
सागर के वर्तमान आकार के साथ-साथ अजोव सागर का भी अस्तित्व उभरकर सामने आया।
कुछ इन्हीं अवधियों में उत्तरी हिम के पिघलने से कश्यप समेत अरल सागर का भी
वर्तमान स्वरूप उभरा था। भूगर्भशास्त्रियों के अनुसार पचास लाख वर्ष पूर्व की
कुछ ऐसी ही परिस्थितियों में अंधमहासागर (Atlantic Ocean) में आए उछाल के
कारण जिब्राल्टर की संकीर्ण घाटियों के रास्ते हुए जल भराव ने अफ्रीका के
उत्तरी मरुस्थलों के निचले भाग को जिस सागर में परिवर्तित कर दिया था, उसे ही
आज भूमध्यसागर के रूप में चिह्नित किया जाता है। इस प्रकार ई.पू. 5600 से
लेकर ई.पू. तृतीय सहस्राब्दी के अंतिम चरणों तक निरंतर बढ़े तापमानों व
तदनुसार पिघले हिमों के कारण बढ़े जलस्तरों ने खंभात (भारत) सहित युक्तान
(मेक्सिको) के अधिकतर हिस्सों व द्वारिका (भारत) को ही नहीं निगल लिया, बल्कि
फारस की खाड़ी क रूप में मध्य पूर्व एशिया में एक नए समुद्री पथ का निर्माण
करते हुए सिंहल सहित भारत के पश्चिमी व पूर्वी तटों तथा संबंधित द्वीपों के
आयतनों को भी सिकोड़ दिया। सन् 1929 में मेसोपोटामिया के उर प्रांत में किए
गए उत्खननों से भी प्रसिद्ध पुरातत्त्ववेत्ता प्रो. लियोनार्ड बूली (C.
Leonard Woolley) को भू-स्तर से 60 मीटर नीचे लगभग 12 मीटर मोटी बाढ़ की
मिट्टी की परत व तलछट के जमाव मिले थे। प्रो. बूली के अनुसार, इस क्षेत्र में
पाए गए तलछटों का यह जमाव दजला फरात नदी में ई.पू. 3200 आई किसी अति भयंकर
बाढ़, जिसे महाप्रलय भी कहा जा सकता है, के ही परिणाम रहे थे। भारतीय ग्रंथों
में वर्णित संदर्भो के आधार पर यदि इस क्षेत्र विशेष की विवेचना की जाए तो यह
स्पष्ट हो जाता है कि बेबीलोनिया का यह 'उर-प्रदेश' चाक्षुष मनु के चौथे
पुत्र 'ऊरु' द्वारा ही बसाया गया था। प्रो. बूली को इस जमाव के नीचे एक
संपूर्ण विकसित संस्कृति, जिसे वे लोग 'प्रोटोइलामाइट सभ्यता' कहते हैं, के
अवशेष भी मिले थे। सर जॉन मार्शल आदि कुछ पाश्चात्य इतिहासकारों का यह मानना
है कि सप्तसिंधु क्षेत्र से बलूचिस्तान व करमान (ईरान) होते हुए ही
प्रोटोइलामाइट लोग मैसोपोटामिया में आकर बसे थे। इसी तरह के कुछ अन्य खोजों
से यह पता चलता है कि ईसा पूर्व 1628 के लगभग हुए ज्वालामुखी विस्फोटों में
यूनान का थेरा द्वीप संपूर्णतः नष्ट हो गया था। प्रमाण यह बताते हैं कि ईसा
पूर्व 1250 में आई भयानक बाढ़ के कारण आनातोलिया (आधुनिक तुर्की) का ट्रियन
नामक शहर उजड़ गया था और इसी समय आए भूकंप के परिणामस्वरूप ट्रॉय नामक
बहुचर्चित प्राचीन नगर का अस्तित्व भी समाप्त हो गया। देश-काल के आधार पर
अन्वेषित किए गए उपर्युक्त भौगोलिक तथ्य इस बात का संकेत देते हैं कि
साइबेरिया, ग्रीनलैंड सहित ध्रुवीय प्रदेशों में कभी मानवी परिवेशों के
अनुकूल ग्रीष्म आदि ऋतुएँ होती रही होंगी तथा सहारा, लूट, थार व गोबी के विकट
मरुस्थल भी जलवायविक परिस्थितियों के अनुरूप कभी उपजाऊ रहे होंगे।
प्राकृतिक उथल-पुथल के यह सभी साक्ष्य विश्व के विभिन्न अंचलों में
परिस्थितिजन्य कारणों से घटित त्रासदियों तथा उनके गर्भ से प्रस्फुटित
सभ्यताओं की अनंत शृंखलाओं का जहाँ सम्यक् ब्योरा उपस्थित करते हैं, वहीं
विश्व-प्रसिद्ध जलप्लावन (Deluge) की घटना के बारे में उपजे 'काल्पनिकता के
दोषों' (Mythical Stigma) का भी निराकरण कर देते हैं। देश-काल के हिसाब से
घटित इन घटनाओं के आधार पर प्रलय के विषय में परिभाषागत मतांतर बहस का एक
मुद्दा तो अवश्य हो सकता है; परंतु उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर इतना तो
निश्चित रूप से कहा ही जा सकता है कि कालक्रम में घट रही इन प्राकृतिक आपदाओं
से स्थान विशेष की जैविक सृष्टियाँ कमोबेश रूप से प्रभावित होती रही हैं और
भविष्य में भी प्रभावित होती रहेंगी।
सृष्टि-रहस्य, पृथ्वी व प्राणी उद्भव तथा उनके द्वारा विकसित मानवी पद्धतियों
को जान लेने के पश्चात् प्रथम मानव के क्रिया-कलापों के विषय में जानकारी
हासिल करने की इच्छाएँ बलवती हो जाती हैं और यहीं से ही मानवी इतिहास की आदि
रूप-रेखा भी बननी प्रारंभ हो जाती है। ब्रह्म प्रतीक है शाश्वत सत्ता का,
जबकि ब्रह्मा उस अदृश्य शक्ति का प्रकृतियुक्त सगुण रूप है। ब्रह्मा से ही इस
द्रष्टव्य ब्रह्मांड का अस्तित्व उभरकर सामने आ पाया है।
सृष्टि-रचना के प्रथम स्रोत रहे ब्रह्मा के ही प्रतीकात्मक मानवी-सृष्टि के
प्रथम ज्ञात-पुरुष को भी भारतीय शास्त्रों में 'ब्रह्मा' के ही अलंकरण से
विभूषित किया गया। इसी भारतीय अवधारणा के अनुरूप विश्व की विभिन्न आस्थाएँ
तदंतर जनमी अपनी-अपनी सभ्यताओं के मूल पुरुष को ब्रह्मा के समकक्ष का ही
सम्मान प्रदान करती हैं।
प्रस्तुत अध्याय में मानवी ब्रह्मा की उत्पत्ति से लेकर उसके मानवोपयोगी
कृतित्वों के साथ परिस्थितिजन्य कारणों से उसके बदलते स्वरूपों एवं भावी
व्यवस्था को आकार देने के लिए उसके द्वारा चयनित किए गए कुछ विशिष्ट मानवों
(मानस तथा औरस पुत्रों) का भी परिचय दिया गया है।
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