भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
रुद्र-महेश्वर एवं शैव परंपराएँ
'महिम्नः पारं ते परंविदुषो यद्यसदृशी,
स्तुतिर्ब्रह्मादीनामपि तदवसन्नास्तवयि गिरः।
अथावाच्यः सर्वःस्वमतिपरिणामावधि गृणन्,
ममाप्येष स्तोत्रे हर निरपवादः परिकरः।।
अतीतः पन्थानं तव च महिमा वाङ्मनसयो,
रतद्वयावृत्त्या यं चकितमभिधत्ते श्रुतिरपि।
स कस्य स्तोतव्यः कतिविधगुणः कस्य विषयः,
पदे त्वर्वाचीने पतति न मनः कस्य न वचः।।'
(पुष्पदंत कृत शिव-महिम्ने स्तोत्र से)
अर्थात् ब्रह्मा आदि परम वेत्ताओं द्वारा भी जिसके संपूर्ण स्वरूप की
व्याख्या नहीं की जा सकी हो तथा जिसके गुणों का वर्णन करते हुए वेद व
श्रुतियाँ भी स्तंभित हो जाया करती हों, ऐसे अवर्णनीय रुद्र के जटिल व गूढ
चरित्र का बखान करना साधारण मनुष्यों के सामर्थ्य से परे का ही विषय है। इस
वास्तविकता को आत्मसात् करने के उपरांत भी असीम गगन में उड्डीयमान हो रहे
पक्षियों के छुद्र उद्वेगों की ही भाँति रुद्र के अवर्चनीय चरित्र की झलकियों
के आंशिक वर्णन की उदात्त चेष्टाओं से विमुख भी तो नहीं हुआ जा सकता है।
निश्चय ही रुद्र से संबंधित अनुभूतियों व अनुभवों के शतांश को शब्दों की सीमा
में बाँधते क्षण पुष्पदंत के उपर्युक्त उद्गार सर्वथा प्रासंगिक ही प्रमाणित
होते हैं।
शब्द-व्युत्पत्ति के आधार पर 'रुदिर अश्रुविमोचने' धातु से और 'णिच्' प्रत्यय
करने के बाद ‘रोदेर्णिलुक्व' इस उणादि सूत्र के अनुसार 'रक्' प्रत्यय का आगम
और 'णिच्' प्रत्यय का लोप हो जाने से 'रुद्र' शब्द सिद्ध होता है। संस्कृत
भाषा में निहित भाव-विन्यास की दृष्टि से रुक् से तेज (to produce energy),
रुत् से शब्द (to produce sound) तथा द्रा से द्रवित करने (to melt) का आशय
प्रकट होता है। भारतीय वाङ्मय में इन्हीं बोधगम्य भावों के प्रतीकात्मक रुद्र
को जहाँ ‘रुक् तेजः वर्णव्यावृत्त्या रुद्रस्तेजस्वीति' (यानी देदीप्यमान
तेजस्वी) या फिर 'रुत् रौतीति रोरुयमाणो द्रवति प्रविशति मानिति रुद्रः'
(अर्थात् नाद रूप से सब भूतों में विद्यमान) कहकर परिभाषित किया गया है, वहीं
इनके बीभत्स स्वरूप को सृष्टि के विनाश का कारक मानते हुए 'द्रापयतीति
द्रापिः इति रुद्रः' (यानी गलानेवाला) के घोरतर अलंकरणों से भी संयुक्त किया
गया है। श्रुतियों में रुद्र को 'अग्नि' भी कहा गया है। वेदों में वर्णित
अग्नि का यह भाव 'भौतिक अग्नि' (Fire) से नहीं, अपितु 'दिव्य तेज' (यानी
अंतरिक्ष ऊर्जा या Supernatural Energy) जैसे अनुपम तत्त्व से ही संबंधित है।
भारतीय मनीषा के अनुसार प्रकृति से भी अतीत इस अद्वितीय ऊर्जा की अंशकलाओं से
ही जगत् की उत्पत्ति, पालन व संहार विषयक मूल शक्तियाँ उत्सर्गित होती हैं
(एकस्त्वं पुरुषः साक्षात् प्रकृतेः पर ईर्यसे यः स्वांशकलया विश्वं
सृजत्यवति हन्ति च)। ऐतरेय ब्राह्मण में रुद्र रूपी इस प्राणऊर्जा (अग्नि) के
दो स्वरूप निर्धारित किए गए हैं-एक घोर तथा दूसरा सौम्य यानी शिवा (अग्निर्वा
रुद्र तस्यैते द्वे तन्वौ घोरान्या च शिवान्या च)। वैदिक वाङ्मय में बाह्य
गतिशील घोर प्राणशक्ति को इसकी भेदक व संवर्धक क्षमताओं के अनुरूप क्रमशः
'रौद्राग्नि' व 'अमृताग्नि' नामक गुणवाचक विशेषणों तथा प्रजनन के गुणों से
परिपूर्ण अंतर्गतिशील शिवा या सौम्य प्राणशक्ति को ‘सोम' की भाववाचक संज्ञा
से चिह्नित किया गया है। इस प्रकार भारतीय शास्त्रों में रुद्र का यह उद्बोधन
सृष्ट (उपादान), प्रविष्ट (संयोजन) व असंस्पृष्ट (लय) नामक तीन विभिन्न
स्थितियों को समष्टि रूप से इंगित करने के लिए ही व्यवहृत हुआ है। सृष्टि,
स्थिति व लय की कारक शक्तियों का अधिष्ठाता होने के कारण रुद्र को श्रुतियों
में जहाँ ‘त्र्यंबक' कहकर स्मरण किया गया है (त्र्यम्बकं यजामहे
सुगंधिपुष्टिवर्द्धनम्-ऋग्वेद-7/59/12 व यजुर्वेद-3/10), वहीं पौराणिक
चित्रों में इस गूढ रहस्य को सहजता प्रदान करने के लिए रुद्र को
'त्रिनेत्रधारी' (सोमसूर्याग्निनयनस्त्रिनेत्रस्तेन) के विचित्र रूप में
दरशाया गया है।
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