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भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

ओम प्रकाश पांडेय

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2684
आईएसबीएन :9789351869511

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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....


भारतीय शास्त्रों के अनुसार व्योम में अग्नि की स्थिति को सूर्यमंडलों (नाभिचक्र या Galaxy) में तथा सोम की स्थिति को इसके ऊपर के परमेष्ठि मंडलों (शून्य या Space) में आँका गया है। अग्नि का स्वभाव प्रसरणशील है, जबकि सोम का स्वभाव संकुचनशील। अग्नि विरल भाव या तरलता का कारक है तो सोम घनीभाव या ठोसपन का। अग्नि भेदक है तो सोम संयोजक। अग्नि ऊर्ध्वगामी है तो सोम अधोगामी। अग्नि ऊर्ध्वशक्तिमय होकर सोम में समाहित हो जाता है और सोम अधःशक्तिमयी होकर अग्नि को प्रखरता प्रदान करती है। सोम भोज्या है तो अग्नि भोक्ता। इसलिए सोम को स्त्री (शिवा) और अग्नि को पुरुष (उग्र) की श्रेणी में रखा गया है। सोम का आनुपातिक संसर्ग पाकर अग्नि का यह उग्र रूप जहाँ कुछ समय के लिए शांत (शिव) हो जाता है, वहीं अग्नि की प्रबलता सोम को भी उग्र बना देती है। उदाहरण के लिए, संहारक अग्नि में पड़ी गोघृत की आनुपातिक आहुति से वातायन में जहाँ लाखों गुणा स्वास्थ्यवर्द्धक ओषजन (Oxygen) उत्सर्जित होती है, वही अग्नि से आवृत होने पर, घृत भी लौ रूप में जाज्वल्यमान होकर इसकी प्रचंडता को द्विगुणित कर देता है। यही कारण है कि शिवा (या सोम) से विरक्त होते ही शिव (या अमृताग्नि) जहाँ महाकाल (या रौद्राग्नि) के अपने नैसर्गिक रूप में अनुभूत होने लगते हैं, वहीं शिवा (या सोम) भी रौद्रप्रधान गुणों (अग्नि) की बाहुल्यता पर अपने मूल स्वभाव को तजकर महाकाली के प्रलयंकारिणी स्वरूपों को धारण कर लेती है। यही कारण है कि प्रलय-काल को भारतीय मान्यताओं में महाकाल के तांडव का ही प्रतिफल माना गया है। वस्तुतः अग्नि का सम्यक् विस्तार ही सोम के सृजनात्मक निखार को तथा सोम की मात्रात्मक हवि ही अग्नि की आनुपातिक निरंतरता को बनाए रखने में सहायक होती है। अस्तित्व की दृष्टि से एक दूसरे का पूरक होने के नाते इनकी आपसी संबद्धताएँ अभेद्य भी हैं। पौराणिक चित्रों में प्रदर्शित शिव का अर्धनारीश्वर स्वरूप, सोमाग्नि के इसी ऐक्य भाव को ही प्रतिबिंबित करता है। अपनी इसी अद्भुत संयोगात्मक स्थिति के कारण ही सोमाग्नि की यह ऊर्जा समष्टि रूप से समस्त ब्रह्मांड में तथा व्यष्टि रूप से सभी पदार्थों में व्याप्त है (ॐ ईशानः सर्वविद्यानाम् ईश्वरः सर्वभूतानां ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणोऽधिपतिर्ब्रह्मा शिवामेऽस्तु सदाशिवोम्)। संभवतः सोमाग्नि के इसी विराटत्व (Omnipresence) को शाब्दिक आकार देने के लिए ही यजुर्वेदीय संहिताओं में इन्हें 'व्योमकेश' के महिमामय संबोधनों से भी उद्बोधित किया गया है। चूंकि शिव यानी सोमाग्नि को व्योमकेश माना गया है, अतः व्योम की ही भाँति उनके शरीर का रंग भी शुभ्र-श्वेत (रजत गिरिनिभं) जैसा ही उद्भाषित होता है। 'ईश्वरः शर्व ईशानः' की व्यापक अनुभूति के परिप्रेक्ष्य में ही शिव को ‘विरुद्धधर्माश्रय' (अर्थात् अच्छे-बुरे-सभी का कारक) भी माना गया है। किंचित् यही कारण है कि शिव में घोरतर (अग्नि या उग्र) तथा अघोर (सोम या शांत) जैसी दो विपरीत ध्रुवोंवाली प्राण-ऊर्जाओं के साथ-साथ इनके मिश्रण से प्रसूत घोर (अर्थात् सृष्टि के कलरव की सूचक) नामक कल्याणकारी ऊर्जा भी समान रूप से विद्यमान रहती हैं (अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेऽस्तु रुद्ररुपेभ्यः)। यही कारण है कि ब्रह्मांड में समष्टि रूप से व्याप्त सौम्य व घोर प्राण ऊर्जाओं के संयोग को उनकी स्थितियों के अनुरूप सांकेतिक आकार प्रदान करने के लिए ही पौराणिक चित्रों में शिवा (महाकाली) को शिव के वक्षःस्थल पर आरूढ़ भी दिखाया गया है।

ब्राह्मण ग्रंथों में गुण-दोष के आधार पर सौरमंडल (Solar system) में व्याप्त उर्ध्वगामी प्राणऊर्जा को क्रमशः अग्नि, मरुत व आदित्य के रूपों में तथा इसके ऊपर के परमेष्ठिमंडल (Extreme space) में व्याप्त अधोगामी प्राणऊर्जा को क्रमशः अप्, वायु व सोम की तीन कलाओं में विभाजित किया सोम ले गया है। सूर्य तथा पृथ्वी के मध्य के अंतरिक्ष में मरुत का एवं सूर्य तथा परमेष्ठिमंडल के मध्य आदित्य के अंतरिक्ष में सौम्य वायु का स्थान सुनिश्चित किया गया है। घनीभूत सौम्य वायु ही अपने मं अधोगामी स्वरूप में आदित्य का संसर्ग पाकर मरुत के स्तर पर पहुँचते-पहुँचते 'भौतिक वायु' (Air/Wind) का तथा मरुतों के निम्नतर स्तर पर पहुँचकर 'भौतिक अग्नि' (Fire) का प्रकट स्वरूप ग्रहण कर लेती है। वैज्ञानिक अन्वेषणों में भी कुछ इसी से मिलते-जुलते साक्ष्य दिखे हैं। कभी-कभी सूर्य की कुछ सतहों का तापमान सामान्य से अपेक्षाकृत (1/4 अंश के लगभग) कम हो जाता है। यद्यपि इस क्षणिक ताप-न्यूनता का पता ठीक से नहीं चल पाया है, तथापि इस घटना के क्षण सामान्यतः सूर्य को प्रभावित भाग काले धब्बे के रूप में स्पष्टतः दृष्टिगोचर होने लगता है। इस परिवर्तन से सूर्य की सतह से हाइड्रोजन व हीलियम की आयनीय गैस उत्सर्जित होने लगती है, जो 640 किमी प्रति सेकेंड की गति से पूरे सौरमंडल में फैल जाती है। प्रोटोन व इलेक्ट्रॉन की बराबर मात्रावाली इन गैसों को विज्ञान की भाषा में 'सौर-वायु' कहा जाता है। इस सौर-वायु में बहनेवाले विद्युतीकृत कण कभी-कभी पृथ्वी के चुंबकीय कवच को भेदकर इसके वायुमंडल में प्रवेश कर जाते हैं। पृथ्वी के वायुमंडल से होनेवाले घर्षण के कारण सौर-वायु के ये कण जल उठते हैं। भारतीय ग्रंथों में इन उल्काओं को भौतिक अग्नि, अंतरिक्ष में प्रवाहित विद्युत् की उत्क्रांति को रौद्र, विद्युत् (या रौद्र) के प्रभाव से बने प्रोटॉन व इलेक्ट्रॉन के मोलेक्यूलस को मरुत या फिर इन्हें रुद्र का पुत्र (मरुतो रुद्रपुत्रासः) तथा सौर-वायु को भौतिक वायु के रूप में चिह्नित किया गया है। संभवतः अंतरिक्ष में क्षरित हो रही सोम नामक घनीभूत तरल ऊर्जा के संघात के कारण सूर्य की अति-तप्त सतहें कभी-कभी अपेक्षाकृत शीतल हो जाती हैं, जिसके फलस्वरूप हमें उपर्युक्त वर्णित काले धब्बे दृष्टिगोचर होने लगते हैं, और यही संघात सौर-वायु के उत्सर्जन का कारण बनती है। चूंकि भौतिक अग्नि को रौद्राग्नि का ही प्रकट स्वरूप माना गया है, अतः रुद्र के एकादश स्वरूपों की भाँति अग्नि (Fire) को भी गुण-दोष के आधार पर गार्हपत्य (पुराणगार्हपत्य व नूतनगार्हपत्य), आहनीय तथा धिष्णय (यानी आग्निध्रीय, अच्छावाकीय, नेष्ट्रीय, पौत्रीय, ब्राह्मणाच्छंस्रीय, होत्रीय, प्रशास्त्रीय व मार्जालीय) के ग्यारह भागों में वर्गीकृत किया गया है। रुद्र-प्राण की प्रचुरता के कारण आदित्य-मंडल से प्रवाहित हो रही उष्माओं (सूर्य-ताप) को इसी के अनुरूप प्रायः रौद्र या रौद भी कहा जाता है। इसी तरह अग्निमय रुद्र के ऊपर अप (जल), वायु (प्राण) व सोम (अमृत) के क्रमों से क्षरित हो रही ऊर्जाओं को प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति प्रदान करने के लिए ही पौराणिक चित्रों में शिव के भाल पर अमृतमय चंद्रमा के साथ वायु रूपी लहराती जटाएँ और जलरूप से उसमें समाहित हो रही गाम् गताम् इति 'गंगा' का चित्रण किया गया है। चूँकि रुद्र के इस स्वरूप में ही सौरमंडल स्थित है और इसी सौरमंडल में नौ प्रमुख ग्रहगण निरंतर परिक्रमा कर रहे हैं, अतः इनके परिभ्रमणों से उद्भाषित हो रहे कुंडलाकार वृत्तों को सांकेतिक आकार देने के लिए ही शिव की मूर्ति में भूषणस्वरूप नौ सौ को दरशाया जाता है। एस्ट्रोनॉमी के अनुसार सूर्य के दोनों ओर स्थित नोडल पॉइंट्स के प्रभाव में आकार ही ग्रहगण अपने अंडाकार परिभ्रमण पथ पर गतिमान बने रहते है। पाश्चात्य खगोलवेत्ता सौरमंडल के इन्हीं दोनों नोडल पॉइंट्स को सर्प रूपको में ड्रैगन हेड (राहु) व ड्रैगन टेल (केतु) कहकर ही चिह्नित करते हैं। विश्व के कारणभूत शिव की ‘विरुद्धधर्माश्रय' छवि के कारण ही पौराणिक चित्रों में उन्हें अमृतमय चंद्रमा के साथ-साथ करालतम विष का धारक मानते हुए जहाँ 'नीलकंठ' के आलंकारिक रूप से चित्रित किया गया है, वहीं 'शैवसिद्धांतसार' के अनुसार आधिदैविक, आधिभौतिक व आध्यात्मिक जैसे तीन प्रकार के शूलों (व्याधियों) का कारक व निवारक मानकर उन्हें 'त्रिशूलधारी' (या फिर तीन फलकवाले त्रिशूल नामक आयुध के धारक) के रूप में भी स्मरण किया जाता है (शूलत्रयं संसारदुःख द्रावयतीत त्रिशुलधारिन् नियमेन इति शोभसे)।

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