भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
अर्धनारीश्वर समेत इन विविध मानवी-रूपकों के अतिरिक्त शिव का एक प्राकृतिक
स्वरूप भी स्वीकार किया गया है। ब्रह्मांड सदृश्य शिव का यह गुह्यतम
प्राकृतिक स्वरूप ही जगत् में 'लिंग' रूप से विख्यात है। चूँकि सृष्टि की
रचना परम चेतना से उत्सर्जित तेज के सुसुप्त प्रकृति से हुए संयोग के कारण ही
घटित हुई थी, अतः दृश्यादृश्य सभी तत्त्वों में आधेय रूपी चैतन्यता व आधार
रूपी प्रकृति को सहजता से अनुभव किया जा सकता है। इनमें आधेय बीज प्रदाता है
और आधार बीज को धारण करनेवाली। इन दोनों के संयोग से ही यह चराचर जगत्
अस्तित्व में आता है। सृष्टि के बीज को देनेवाला आधेय ही लिंग रूप में तथा
उसको धारण करनेवाली प्रकृति का आधार ही योनि रूप में सिद्ध है। शिव शिवलिंग
पुराण (विद्ये सं.अ.-9) में अर्धनारीश्वर शिव के इस प्राकृतिक स्वरूप को
'पीठमम्वामयं सर्व शिवलिंगश्च चिन्मयम्' (अर्थात् आधार रूपी योनि-पीट ही जननी
व आधेय रूपी लिंग ही चिन्मयजनक है) कहकर पारिभाषित किया गया है। जीव-विज्ञान
के अनुसार चराचर प्राणियों में प्रजनन नर-नारी के मिथुन संयोग से होता है। इस
क्रिया में पुरुष (लिंग) भेदन व स्त्री (योनि) संयोजन की भूमिका निभाती है।
पुरुष शुक्राणु व स्त्री डिंब के संयोग से ही आधार (गर्भाशय) में एक नए कोष
का अंकुरण होता है और गर्भाशय में पोषित ये कोष भेदन व संयोजन विधि से असंख्य
सजातीय कोषों (Cells) का निर्माण कर नए स्थूल-शरीर का ढाँचा बना देते हैं।
आश्चर्यजनक रूप से पुरुष शुक्राणु का स्वरूप लिंग की भाँति तथा स्त्री डिंब
का आकार योनि से काफी मिलता-जुलता है। इस प्रकार शिवलिंग का यह प्रतीक,
वस्तुतः प्रकृति व चेतन के संयोग से अस्तित्व मे आई सृष्टि के मूल का द्योतक
होने के कारण परम परात्पर 'जगत्पिता' व करुणामयी 'जगन्माता' के अविभाज्य
आदिभाव को ही उद्भासित करता है। विश्व के कारणभूत इस पवित्र भाव के कारण ही
'शिवलिंग' विश्व स्तर पर भी सुपूजित रहे थे। मिन के 'ओसिरिस' (ईश या ईश्वर),
रोम के 'प्रियेपस' (पाशुपत), यूनान के ‘ओपोलो' (कपाली), फीजियन के 'एटिस' व
निनवा के ‘एषीर' (ईश्वर), बाइबिल के 'शिउन' (शिशन देव), मुहम्मद पूर्व अरब के
‘लाट' (लिंग का ही एक रूप), काबुल के पंजशेर व बलख-बुखारा के पंचवीर नामक
देवता वस्तुतः शिवलिंग के ही विभिन्न स्वरूप रहे हैं। इसी तरह तुर्किस्तान के
बाबीलन नगर का 1,200 फुट का शिवलिंग, जर्मनी के शेचिफर्ताद् (Schifferstadt)
शहर का शिवलिंग, हेड्रॉपोलिस नगर का तीन सौ फुट का शिवलिंग, स्कॉटलैंड के
ग्लासगो नगर का सुवर्णच्छादित शिवलिंग, अमेरिका के ब्राजील प्रदेश तथा
चंपादेश (वियतनाम) के ट्राक्य, यानमुम, डांगफुक शहरों व कंबोडिया (कंबोज),
अनाम (इंडो-चाइना), जावा (यवद्वीप), सुमात्रा (सुवर्णद्वीप) के शिवालय एवं
शिवलिंग स्पष्टतः रुद्र की विश्वव्यापी मान्यताओं का ही प्रमाण प्रस्तुत करते
हैं। नेपाल (काठमांडू) के प्रसिद्ध पशुपतिनाथ समेत भारत के द्वादश
ज्योतिर्लिंग (सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम उज्जयिन्यां
महाकालं ओंकारं अमलेश्वरं परल्यां वैद्यनाथं च डाकिन्यां भीमशंकरं सेतुबन्धे
तु रामेशं नागेशं दारुकावने वाराणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमीतटे
हिमालय तु केदारं घुश्मेशं च शिवालये) एवं कांचीपुरम् के पृथ्वी लिंग,
जंबुकेश्वर के अप लिंग, तिरुवण्णामलै के तेजो लिंग, कालहस्ती के वायुलिंग व
चिंदबरम् के आकाश लिंग समेत ताड़केश्वर (पं. बंगाल), बेलखरनाथ (उ.प्र.,
प्रतापगढ़) आदि अन्यान्य लिंग इसी शृंखला के प्रामाणिक स्रोत हैं। फ्रांस के
पेरिस नगर के संग्रहालय में उल्लिखित Nama Sebasio (नामा सेबासियो) नामक
पूजा-पद्धति प्रकटतः संस्कृत का 'नमः शिवाय' नामक पंचाक्षर मंत्र का ही
अपभ्रंश है। इसी तरह मध्य अफ्रीका का सूडान भी भारतीय शास्त्रों में वर्णित
कुश द्वीप के 'शिवदान' नामक क्षेत्र का ही अपभ्रंश प्रकट होता है।
इस प्रकार अग्नि रूपी रुद्र तथा सोम रूपी शिवा के परस्पर हविर्यज्ञ से ही
आधिदैविक, आधिभौतिक व आधिदैहिक (आध्यात्मिक) शक्तियों का प्राकट्य और
प्रकारांतर में इन्हीं से यह द्रष्टव्य जगत् अस्तित्व में आता है। इसी क्रम
से नियत समय पर पड़नेवाले रौद्राग्नि के विध्वंसक आघातों से इस सृष्टि का
विनाश भी हो जाता है। वैज्ञानिक अर्थों में यूनीवर्स से संबंधित विग-बैंग व
टपल्सेटिंग सिद्धांतों की बुनियाद भी सोमाग्नि के इन्हीं आकर्षण-विकर्षण पर
ही आधारित है। रेडियंट इनर्जी से उद्वेलित होकर ही कॉस्मिक डस्ट का घनीभूत
फैलाव नेबुला के रूप में परिवर्तित हो जाता है और कालांतर में इन्हीं
नेबुलाओं में अणुओं के आपसी संघातों से अंतरिक्ष में गैलेक्सियों का समूह
अस्तित्व में आता है। आकाश में दृश्यमान नक्षत्र व ग्रहगण इन्हीं गैलेक्सियों
के ही प्रतिफल हैं। पाश्चात्य विज्ञान के अनुसार प्रोडक्टिविटी के चरमोत्कर्ष
पर इनमें सिकुड़न की प्रक्रिया प्रारंभ हो जाएगी, जो प्रकृति को अंततः उसके
मूल स्वरूप में लाकर रख देगी। उपनिषदों में सृष्टि, स्थिति व विनाश की इन
तीनों क्रियाओं को 'ॐ' (अ, उ, म्) का सांकेतिक आकार देते हुए यह बताया गया है
कि जो ॐकार है, वही प्रणव है, जो प्रणव है वही सर्वव्यापी है, जो सर्वव्यापी
है वही अनंत है, जो अनंत है वही सूक्ष्म है, जो सूक्ष्म है वही शुद्ध है, जो
शुद्ध है वही ऊर्जामय है, जो ऊर्जा है वही परमब्रह्म है, वही एक अद्वितीय
रुद्र है, वही भूतनाथ है, वही महेश्वर है और वही मंहादेव है (य ऊँ कारः स
प्रणवो यः प्रणवः स सर्वव्यापी यः सर्वव्यापी सोऽनन्तो योऽनन्तस्तत्तारं
यत्तारं तत्सूक्ष्मं यत्सूक्ष्मं तच्छुल्कं यच्छुल्कं तद्वैद्युतं
यद्वैद्युतं तत्परं ब्रह्म, स एको रुद्रः; स भूतनाथः स महेश्वरः स महादेवः)।
जगत् की कारणभूत दैविक, दैहिक व भौतिक शक्तियों का स्रोत होने के कारण रुद्र
को शास्त्रों में महादेव, महेश्वर तथा भूतनाथ के पर्यायों से भी संबोधित किया
गया है। भारतीय मान्यताओं में जगत् की कारक रही विभिन्न दैविक शक्तियों के
मूलाधार रहे आधिदैविक रुद्र (यानी महादेव) को उनके एकादश रूपों में अज,
अहिर्बुध्न्य, विरूपाक्ष, अयोनिज, रैवत, स्थाणु, बहुरूप, त्र्यंबक, सावित्र,
संध्य व लुब्धक के गुणबोधक उद्बोधनों से संबोधित किया गया है, जबकि
जैविक-उत्सर्ग क्रियाओं के सोपान माने गए आध्यात्मिक रुद्र (यानी महेश्वर) को
प्राण, अपान, समान, व्यान, उदान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त व धनंजय नामधारी
दस प्राण-वायु (Bio-motor Force) तथा जीवात्मा (Soul) के एकादश (दशमे पुरुषे
प्राणाः आत्मैकादशः-वृहदारण्यक उपनिषद्) अनुभूतियों में अनुभव किया गया है।
इसी तरह भौतिक स्रोतों के आधार रहे आधिभौतिक रुद्र (यानी भूतनाथ) के एकादश
स्वरूपों को भूमि, जल, तेज (अग्नि), वायु, पर्जन्य (आकाश), आदित्य,
ज्योत्स्ना (चंद्रकांति), विद्युत्, पवमान, पावक व शुचि के सांकेतिक नामों से
चिह्नित किया गया है।
रुद्र की इस परम अलौकिक अनुभूति के अलावा पुराण-वृत्तांत, मानवों की अमैथुनीय
सृष्टि में आदि पुरुष ब्रह्मा के साथ-साथ रौद्र ऊर्जाओं से परिपूर्ण एक दिव्य
पुरुष के आविर्भाव का भी संकेत देते हैं। आदि-पुरुष ब्रह्मा ने अपने संसर्ग
में सर्वप्रथम आए नील-लोहित वर्ण के इस सौष्ठव शरीरधारी पुरुष से भलीभाँति
परिचित होते हुए उन्हें उनके स्वभाव के अनुरूप 'रुद्र' कहकर ही संबोधित किया
था (रुद्रस्त्वं देव नाम्नासि-विष्णु पुराण)। तत्पश्चात् यह दिव्य पुरुष
रुद्र के नाम से ही जनमानस में विख्यात हुए। स्वयं-प्रकट अस्तित्व के कारण
रुद्र को 'अकुल' (बिना किसी पूर्व कुल या खानदान के) कहकर भी पुकारा जाता रहा
है। रुद्र की अर्धांगिनी का नाम 'सुवर्चला' रहा था (वायु पुराण-27/49)। रुद्र
की पीढ़ियों में देव-दैत्य युग में हुए अमृत-मंथन के काल तक, मूल पुरुष रुद्र
के अलावा उग्र, शर्व, कपर्दी, भीम, ईशान, ईश्वर, भव, सवित्र, शिव व महादेव-ये
कुल ग्यारह रुद्र हुए। पुराणों में इनकी पत्नियों के रूप में क्रमशः दीक्षा,
विकेशी, रोहणी, दिशा, शिवा, महामाया, ऊषा, स्वाहा, सती व उमा का उल्लेख किया
गया है। घोर रौद्र स्वरूपों के विपरीत रुद्र का निर्विकल्प भाव संभवतः इनकी
छठी पीढ़ी यानी ईशान से ही प्रारंभ हुआ था। इसका संकेत उनके बाद की पीढ़ियों
के लिए प्रयुक्त सौम्य नामावली से भी स्पष्ट अनुभव किया जा सकता है। शीघ्र
संतुष्ट होने के अपने नैसर्गिक गुणों के कारण वे 'आशुतोष' के नाम से भी
प्रसिद्ध हुए। इसके अतिरिक्त रुद्र विश्व के कल्याणार्थ कंठ में विष को धारण
करने के कारण 'नीलकंठ', सहज स्वभाव के कारण 'भोलेनाथ' और अपनी सौम्यता के
कारण 'चंद्रमौलि' नामों से भी विख्यात रहे हैं।
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