भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
रुद्र का मूल स्थान गिलगित (कश्मीर) से ठीक सुदूर उत्तर में स्थित हेमकूट
(हिंदुकुश पर्वत) व क्रौंचगिरि (काराकुरम पर्वत अंचल) के भी उत्तर में स्थित
मूजवान पर्वत क्षेत्र में रहा था। इस अंचल में ही सोम पैदा हुआ करता था और
यहीं कल्पतरु नामक यथेष्ट फल देनेवाले वृक्षों के वन भी हुआ करते थे। इन्हीं
वृक्षों के फलों द्वारा उस हिम क्षेत्र में आए आगंतुकों तथा आश्रितों की
क्षुधापूर्ति करने के कारण ही रुद्र-पत्नी को 'अन्नपूर्णा' भी कहा जाता रहा।
रुद्र के इस स्थान से उत्तर में मरुतगण, पश्चिम में नाग-गंधर्व तथा पूर्व व
दक्षिण में यक्ष, किन्नर, वृषभ, पिशाच आदि जातियाँ निवास करती थीं। पड़ोसियों
के प्रति रुद्र की विशेष अनुकंपा रही थी और वे इन जातियों के अधीश्वर के रूप
में भी पहचाने जाते रहे हैं।
'ऋग्वेद' के अनुसार बृषभ के समान दुर्धर्ष शक्ति के स्वामी रुद्र एक अति
प्रचंड योद्धा भी रहे थे। विभिन्न प्रकार के आयुधों के निर्माण व अन्वेषणों
के अलावा रुद्र धनुर्विद्या से लेकर सभी अस्त्रों के प्रयोगों में भी निपुण
रहे थे; किंतु उनका परंपरागत शस्त्र सदैव तीन फलक वाला त्रिशूल ही रहा। कुशल
योद्धा के अतिरिक्त रुद्र महायोगी तथा महाज्ञानी भी रहे थे (ईशानः
सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानाम्-ऋग्वेद)। शिव पुराण (वायवीय संहिता, अ.-22)
के अनुसार रुद्र अपने इन एकादश क्रमों से प्रति युग के प्रारंभ में योगाचार्य
के रूप में अवतीर्ण होकर सभी को ज्ञान से प्रदीप्त किया करते हैं
(युगावर्तेषु शिष्येषु योगाचार्यस्वरुपिणा तत्र तत्रावतीर्णेन शिवेनैव
प्रवर्तते )। ज्ञानरंजन के इसी वैशिष्ट्य के कारण भारतीय वाङ्मय में उन्हें
'गुरुदेव महेश्वरः' के अलंकरण से भी विभूषित किया गया है। भारतीय मान्यताओं
के अनुसार रुद्र के डमरू से निःसृत (अ-इ-उ-ण, ऋ-
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