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भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

ओम प्रकाश पांडेय

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2684
आईएसबीएन :9789351869511

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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....

-क्, ए-ओ-ङ्, ऐ-औ-च्, ह-य-व-र-ट्, ल-ण, ञ-म-ङ-ण-न-म्, झ-भ-, घ-ढ-ध-ष्, ज-ब-ग-ड-द-शु, ख-फ-छ-ठ-थ-च-ट-त-व्, क-प-य, श-ष-स-र, ह-ल) ध्वनियाँ ही व्याकरण शास्त्र के मूल 14 सूत्रों के रूप में प्रसिद्ध हुईं। अक्षर-विद्या एवं स्वर मंडलों की रचनाओं के अतिरिक्त योगसूत्र, शल्य, रसायन व कामशास्त्र आदि शरीर विज्ञान के आविष्कर्ता के रूप में भी वे जाने जाते हैं। किंचित् इन्हीं कारणों से उन्हें 'विद्यातीर्थ महेश्वरम्' कहकर नमन भी किया जाता है। इसके अलावा नाद-विद्या तथा नृत्य-कला के भी वे विशारद रहे थे। उन्हें डमरू-वाद्य तथा नट व तांडव नृत्य का प्रवर्तक माना गया है। यही कारण है कि उन्हें 'डमरूधर' या फिर 'नटराज' के नाम से भी स्मरण किया जाता है। रुद्र जटिल कर्म-कांडों में उलझी देव-पूजा जैसे व्यक्ति आधारित स्वार्थपरक निष्ठाओं की अपेक्षा आत्म-शुद्धि तथा दीन-हीन हितार्थ कार्यों को अधिक महत्त्व देते थे। रुद्र का ‘एकोऽहं वहुस्यामि' के दर्शन पर आधारित 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की परिकल्पना 'सर्वे भवन्तु सुखिनः' की भाव-भूमि पर ही निर्मित होता है। रुद्र का आदर्श आसक्ति, स्वार्थ व अहंकार से परे सार्वभौम चेतना से अनुप्राणित उस 'शिवत्व' से रहा था, जहाँ प्राणीमात्र ही नहीं, बल्कि ब्रह्म व जीव के आपसी विभेद भी मिट जाया करते हैं। कालांतर में रुद्र के 'शिवत्व' का यही भाव ही 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' के रूप में भारतीय संस्कृति का आधार-स्तंभ भी बना।

दक्षयज्ञ में पत्नी के देहत्याग के बाद समाधिस्थ हुए रुद्र की दसवीं पीढ़ी ने तो 'शिवत्व' को पूर्ण रूप से प्राप्त ही कर लिया था। किंचित् यही कारण रहा था कि वैदिक मंत्रों में रुद्र, कपर्दी व उग्र के रूप में उद्बोधित हुए इस दिव्य पुरुष को तदंतर 'शिव' के रूप में ही जाना जाने लगा। रुद्र के इस निरपेक्ष स्वभाव के कारण देव उन्हें अपनी जाति के स्तर का नहीं मानते थे (ततो देवैः स तैः सार्ध नेज्यते पृथ मिज्यते। न मे सुराः प्रयच्छन्ति भागयज्ञस्य धीमतः-वायु पुराण, अध्याय-30); किंतु अमृत-मंथन के दौरान उत्पन्न ‘हलाहल' संकट से उबारने के कारण कृतार्थ देवों ने उन्हें 'देवाधिदेव महादेव' के अलंकरण से अंततः सम्मानित भी किया। तारकामय नामक पाँचवें देवासुर संग्राम के पश्चात् रुद्र-महादेव (ग्यारहवीं पीढ़ी) ने लोक-कल्याण के लिए आततायी तारकासुर व उसकी सैन्य-शक्ति सहित उसके अभेद्य समझे जानेवाले नगर त्रिपुर का विध्वंस किया था। भूमध्य सागर के दक्षिणी तट पर लीबिया के उत्तरी हिस्से में स्थित 'ट्रिपोली' नामक प्रदेश का आधा हिस्सा आज भी समुद्र में तिरछा डूबा हुआ है। पुरातत्त्ववेत्ताओं के अनुसार इस जलमग्न हिस्से में पाए गए भग्नावशेष यहाँ किसी अति प्राचीन वास्तुकला पर आधारित सामरिक कौशल से परिपूर्ण नगरी होने का प्रमाण देते हैं। आश्चर्यजनक रूप से समुद्र में डूबने से शेष बचे 'ट्रिपोली' के एक शहर का भी नाम 'शिव' ही है। भारतीय शास्त्रों के अनुसार त्रिपुर का निर्माण प्रसिद्ध वास्तुकला विशेषज्ञ मय दानव ने किया था। मिन व लीबिया के पुराने ग्रंथों में ‘एपिस' नामक सांड की पूजा का उल्लेख मिलता है। यहाँ के पुराने आदिवासियों में अज्ञात आपदाओं से बचने के लिए गले में लिंगनुमा तावीज धारण करने की प्रथा भी प्रचलित रही। लिंग व बैल के इन प्रामाणिक तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में यह स्वतः सिद्ध हो जाता है कि ट्रिपोली ही महादेव (रुद्र) द्वारा विध्वंस किए गए त्रिपुर का भाषाई अपभ्रंश है। तारक वध व त्रिपुर (ट्रिपोली) के विध्वंसक होने के नाते रुद्र-महादेव को 'ताड़केश्वर' तथा 'त्रिपुरारि' के नामों से भी संबोधित किया गया है। त्रिपुर-विध्वंस की घटना के पश्चात् रुद्र (महादेव) का कोई उल्लेखनीय संदर्भ या वंश-वृत्तांत नहीं मिलता है। इसी के साथ सोम व कल्पवृक्ष का भी अस्तित्व आगे दृष्टिगोचर नहीं होता है। कदाचित् रुद्र-महादेव का कोई उत्तराधिकारी नहीं रहा होगा या फिर योग-समाधि की चरम स्थिति के कारण स्थूल शरीर की समयबद्ध सीमाओं को पार करके वे आत्मतत्त्व में अधिष्ठित हो गए होंगे। संभवतः जल-प्लावन आदि की भौगोलिक उथल-पुथल के कारण कालक्रम में सोम व कल्पवृक्ष का अस्तित्व भी प्रभावित हुआ होगा।

इधर जल-प्लावन की विश्व प्रसिद्ध घटना के उपरांत पितरों के राज्य को पुनर्स्थापित करनेवाले आदित्य विवस्वान के पुत्र यम (वैवस्वत पितृणां च यम राज्येऽभ्यषेचयत्-वायु पुराण-70.8) के कुल में उत्पन्न वसु के पुत्र धर को भी एक नील-लोहित वर्ण का महिष जैसा एक बलिष्ठ पुत्र उत्पन्न हुआ। हिम क्षेत्र के समीप स्थित भद्रवट (पुष्पवन) में विचरण करते हुए एक बार इस गर्वीले महिषदेव की श्वास क्रियाएँ अवरुद्ध हो गई थीं। तदुपरांत उसका शरीर प्रायः निष्पंद सा होकर धरती पर गिर पड़ा। ऐसी स्थिति उत्पन्न होने के कुछ क्षण उपरांत ही वह पुनः जीवित होकर उठ तो बैठा था, किंतु इस क्षणिक काल में ही उनके व्यक्तित्व व व्यवहार में आमूल-चूल परिवर्तन हो चुका था। महिषदेव का व्यवहार अब राजपुरुष के स्थान पर एक तपोभूत संन्यासी जैसा प्रतीत होने लगा था। मृत्यु पर विजय पाने की इस उपलब्धि के कारण उन्हें 'मृत्युंजय' भी कहा जाने लगा। किंचित् योग द्वारा परकाया प्रवेश में पारंगत रहे रुद्र-महादेव की अदृश्य चेतना मृत महिष देव के शरीर में प्रविष्ट हो चुकी थी। यही कारण रहा कि इस घटना के तुरंत पश्चात् ही महिषदेव आश्चर्यजनक रूप से स्वभाव तथा गुणों में पूर्ववर्ती रुद्रों की ही भाँति आचरण करने लगे। इस दिव्य पुरुष ने यक्ष, गंधर्व, बृषभ, नाग आदि जातियों से भी उसी प्रकार की आत्मीयता स्थापित की, जो प्राचीनकाल से ही रुद्र-परंपराओं में चलती आ रही थी। कृत्यों के अनुरूप मूल रुद्र की प्रतिच्छाया मानकर धर के इस पुत्र (महिष) का नाम भी अंततः ‘रुद्र' से जुड़ गया। संयोग से महिष-रुद्र की परकाया-प्रवेश की कृति को अपनाने के कारण स्थापित परंपरा में इनके समेत कुल एकादश शीर्ष पुरुष हुए, जिनका नाम क्रमशः महिदेव, महेश, अपराजित, विरूपाक्ष, त्र्यंबक, पशुपति, महाकाल, हर, शंभू व पिनाकी रहा। पूर्ववर्ती रुद्रों की अंतिम पीढ़ी में हुए रुद्र-महादेव तथा परवर्ती रुद्रों में धर के पुत्र रहे महिष-देव व फिर उनके उत्तराधिकारी हुए क्रमशः महिदेव एवं महेश के नामों, कृत्यों तथा परिवेश की आपसी साम्यताओं ने सामान्य जन में इन्हें रुद्र के स्वाभाविक उत्तराधिकारी के रूप में विधिवत स्थापित भी कर दिया। यही कारण रहा है कि महिषदेव से प्रसूत हुई परंपरा के सभी एकादश पुरुष अंततः 'रुद्र' ही कहलाए। रुद्र (त्र्यंबक) ने आत्मा की अमरता व इसके अविनाशी तत्त्वों को रेखांकित करते हुए यह प्रतिपादित किया कि आत्मा का वरण करनेवाला ही मृत्युंजय हो सकता है। उनके इस सिद्धांत पर ब्रह्म व आत्मज्ञान-विषयक जिन ग्रंथों की रचना हुई, उन्हें उपनिषद् के नाम से जाना जाता है। कैलाशी के नाम से विख्यात रहे इस वंश-परंपरा के आखिरी रुद्र (पिनाकी) का निवास-स्थान मानसरोवर के पार्श्व में स्थित कैलाश पर्वत पर रहा था। भगीरथ के प्रयासों से देवलोक (त्रिविष्टप) की ऊँची भूमि से भारत के तराई क्षेत्रों की ओर प्रवाहित हुई गंगा की वेगवती धारा को अपने कौशल से शांत कराते हुए जनकल्याणी बनाने के कारण ‘कैलाशी' को कृतार्थ जनों ने 'गंगाधर' की गरिमा से भी विभूषित किया। विश्रवस रावण द्वारा ‘विमोहनं हि देहिनां सुशंकरस्य चिन्तनम्' कहकर अभ्यर्थना किए जाने के कारण तत्पश्चात् यह दिव्य पुरुष 'शंकर' के जनप्रिय नाम से ही अधिक विख्यात हुए।

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