भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1 द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1ओम प्रकाश पांडेय
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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....
योग के अपने आनुवंशिक गुणों के कारण रुद्र-परंपरा के सभी सर्वकालिक पुरुष
परमयोगी, दिव्य बलशाली तथा दीर्घजीवी रहे थे। चित्त (मन, बुद्धि व
अहंकार)-वृत्ति निरोध (Restraint of mental, intellectual and egoistic
modification) की क्रियाओं अर्थात् यम (Ethical disciplines), नियम -(Self
purification by discipline), आसन (Posture), प्राणायाम (Rhythmic Control of
the Breath), प्रत्याहार (Withdrawal and emancipation of the mind from the
domination of the senses and exterior objects), धारण (Concentration),
ध्यान (Meditation) व समाधि (A State of super-consciousness-where aspirant
become one with Universal Spirit) की कठिन अंतरंग साधना के माध्यम से पिनाकी
(शंकर) को अंततः नश्वर शरीर की समय मर्यादा तथा चेतना (Divine current) की
अमरता (शाश्वतता) का आभास हो चुका था। किंचित् यही कारण रहा होगा कि
कुंडलिनी-योग के अंतिम द्वार (सहस्राधार) को पार कर लेने के उपरांत उन्होंने
परकाया-प्रवेश की परंपरा को तिलांजलि देते हुए अपने आपको स्थूल शरीर के
बंधनों से मुक्त कर जैविक शक्ति के अविनाशी स्वरूप को ग्रहण किया होगा
(Dissociation of the Self from the subjective psychosis-an immortal
stata)। आत्म-तत्त्व में प्रतिष्ठापित इस प्रकार की विभूतियाँ (Miraculous
Personalities) अ-शरीरी होने के कारण सामान्य जन को दृष्टिगोचर तो नहीं हो
पाती हैं, किंतु विलक्षण श्रद्धा के किसी अतिरेक भाव में साधक के समक्ष ऐसी
दिव्य आत्माएँ अपने पुरातन सगुण रूपों में निमेष मात्र के लिए प्रगट भी हो
जाया करती हैं। शिवभक्तों द्वारा अपने इष्ट के प्रत्यक्ष दर्शन की
स्वीकारोक्ति, रामकृष्ण परमहंस द्वारा माँ काली से सहज वार्तालाप व योगी
द्वारा अमेरिका स्थित उनके निवास पर दिवंगत विवेकानंद से सामान्य स्तर पर
भेंट आदि की घटनाएँ इसी के कुछ ज्वलंत प्रमाण हैं। नश्वर स्थूलता का अविनाशी
सूक्ष्मता में घटित निरूपण को पाश्चात्य विज्ञान भी सही प्रमाणित करता है।
प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन की यह मान्यता रही थी कि प्रकाश वेग की
चरम परिणति पर मैटर्स का स्थूल स्वरूप कॉन्सटेंट इनर्जी (अदृश्य ऊर्जा) में
परिवर्तित हो जाता है। उन्होंने इसी सिद्धांत के आधार पर L=mc2 का फॉर्मूला
अस्तित्व में लाया था। चूँकि एक अन्य वैज्ञानिक आइजक न्यूटन के अनुसार
प्रत्येक क्रियाओं की समान तथा उलट प्रतिक्रियाएँ होती हैं (Every action has
similar and opposite reaction), अतः स्थिति विशेष में इनर्जी का भी स्थूल
मैटर्स में रूपांतरित हो जाना संभव हो सकता है। रूपांतरण की इन दोनों
स्थितियों के लिए प्रतिबद्ध चैतन्यता (ईच्छणता) की नितांत आवश्यकता होती है।
इस प्रकार प्रथम स्थिति के लिए जहाँ प्रकाश का बाहरी वेग (Velocity) चैतन्यता
के कैटेलिक एजेंट की भूमिका का निर्वहण करता है, वहीं दूसरी स्थिति के लिए
अंतर्बोधत्व (Inner consciousness) की उपस्थिति वांछनीय हो जाती है। यही कारण
है कि सूक्ष्म से स्थूल का रूपांतरण तत्त्व विशेष की आंतरिक ईश्छण-शक्ति पर
ही निर्भर करती है। उपर्युक्त विवेचनाओं के परिप्रेक्ष्य में शिवत्व
(Oneness) से प्रदीप्त रुद्र-पिनाकी (शंकर) के लिए ये दोनों ही प्रकार की
स्थितियाँ सहज सामान्य ही प्रतीत होती अनुभव की जा सकती हैं। किंचित् यही
कारण भी रहा है कि भारतीय शास्त्रों में निर्गुण (शिव) तथा सगुण (शंकर) के
दोनों ही रूपों में एकमात्र रुद्र को ही शाश्वत तथा अविनाशी माना गया है (एको
हि रुद्रो द्वितीयाय तस्थुर्य इमाँल्लोकानीशत ईशनीभिः प्रत्यङ्जनाँस्तिष्ठति
संचुकोचान्तकाले संसृज्य विश्वा भुवनानि गोपाः-श्वेताश्वतरोपनिषद्-3/2)।
रुद्र के अव्यक्त से लेकर व्यक्त के इस अकल्पनीय स्वरूपों से चमत्कृत होकर ही
महिम्न स्तोत्र में उनकी वंदना 'तव तत्वं न जानामि कीदृशोऽसि महेश्वरः
यादृशोऽसि महादेव तादृशाय नमोनमः (अर्थात् आपके व्यक्त स्वरूप को ही समझना जब
जटिल है, तब आपके अव्यक्त स्वरूप को, चाहे वह जो भी हो या जैसा भी हो, उसी
रूप में प्रणाम) के भावों में की गई है।
शंकर के समकालिक देव, दैत्य, दानव, यक्ष, राक्षस, गंधर्व, पिशाच, किन्नर,
मानव आदि जातियों में व्याप्त अमर्यादित कामेच्छा के कारण कोई आदर्श
विवाह-पद्धति प्रचलित नहीं रही थी। यक्ष-गंधर्व-देवताओं में युग्मों के लिए
जहाँ उन्मुक्त प्रणय व्यवस्था रही थी, वहीं दैत्य-दानवों में दांपत्य-शुल्क
के भुगतान द्वारा कन्या-वरण का प्रावधान तथा असुर-राक्षसों में बलात-चयन की
विधियाँ प्रचलित रहीं थीं। 'The Story of Civilisation' (Vol.-I, Chap.-VI)
नामक अपनी कृति में प्राचीनकाल में प्रचलित वैवाहिक पद्धतियों पर टिप्पणी
करते हुए Will Durant भी इन्हीं तथ्यों की पुष्टि करते हैं। उनके अनुसार- "In
primitive society of Russia and its adjacent area, the men utilitised the
women without distinction and so no women had her appointed husband",
wallet "Marriage by capture and marriage by purchase previals throughout
primitive Africa, China and Japan and in pre-Columbian Central America,
Peru and it flourished in ancient India and Judea." इसी तरह गंधर्व विवाह
के विषय में टिप्पणी करते हुए वह लिखते हैं कि " In all these forms and
varieties of marriage, there were instances of love marriage among some
societies of primitive era". विवाह-संबंधी इन व्यवस्थाओं को एक आदर्श
सामाजिक परिधि में लाने के लिए शंकर (पिनाकी) ने अभिभावकों व वर-वधू की आपसी
सहमति के आधार पर अग्नि-साक्ष्य में सप्तपदी (सात पग साथ चलने) की विधि का
उदाहरण प्रस्तुत करते हुए पर्वतराज हिमवान की पुत्री पार्वती (उमा) को अपनी
पत्नी के रूप में वरण किया। वाग्दान, कन्यादान, वरण व पाणिग्रहण के पश्चात्
वर-वधू का सात पग साथ-साथ चलते हुए धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष-इन चार
पुरुषार्थों में संयुक्त भागीदारी के संकल्पार्थ अग्निकुंड की चार प्रदक्षिणा
(प्रथम तीन में कन्या व चौथे परिक्रमा में वर आगे) ही-इस तरह के विवाह के
पाँच अंग माने गए हैं (वाग्दानं च प्रदानं च वरणं पाणि-पीडनम्, सप्तपदीति
पञ्चांगो विवाहः परिकीर्तितः-संस्कार गणपति)। कालांतर में परंपरा से चले आ
रहे ब्रह्म, देव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गांधर्व, राक्षस व पिशाच (ब्राह्मो
दैवस्तथैवार्षः प्रजापत्यस्तथासुरः, गन्धर्वो राक्षसचैव
पैशाचश्चाष्टर्मोऽधमः)-इन आठ प्रकार के विवाहों के बजाय शंकर-पार्वती द्वारा
अपनाई गई यह नौवीं विधि ही भारतीय विवाह की आदर्श पद्धति के रूप में प्रचलित
हुई। पौराणिक कथाओं के अनुसार धूर्जटि शंकर के अद्भुत व्यक्तित्व से प्रभावित
होकर पर्वतराज हिमवान की पुत्री पार्वती ने उन्हें पतिरूप में वरण करने का
संकल्प किया था। देवर्षि नारद के परामर्श पर शंकर जैसे परम योगी की भार्या
बनने की पात्रता सिद्ध करने के लिए पार्वती को योग की कठिन साधना करनी पड़ी
थी। इस दारुण तप में लीन पुत्री की दशा से द्रवित होकर माता मेनका भी अनेक
वार उ (वत्से!) मा (ऐसा मत करो) कहकर उससे इस कठिन साधना को त्यागने के लिए
कहा, किंतु पार्वती अपने निश्चय से विचलित नहीं हुई। कालांतर में माता द्वारा
व्यवहृत 'उमा' के इसी वर्जनासूचक उद्बोधन से ही वह प्रतिष्ठित भी हुई (उमेति
मात्रा तपसो निषिद्धा पश्चादुमाख्यां सुमुखी जगाम)। विल्वपत्र के भक्षण पर
आधारित साधना की पराकाष्ठा में पार्वती द्वारा अपनाए गए निराहार व्रत-बंध के
कारण शीघ्र ही उसकी ख्याति ‘अर्पणा' के नाम से भी विख्यात हो गई। इस कारण
शारीरिक स्तर पर शिथिल हो चुकी पार्वती के अनुराग के समक्ष निवृत परायण शंकर
को अंततः झुकना ही पड़ा और प्रकारांतर वे दोनों आदर्श पति-पत्नी के अनुपम
उदाहरण बने। विवाहोपरांत उत्पन्न पार्वती के गर्भधारण से संबंधित समस्याओं के
निदान के लिए 'अग्निदेव' नामक चिकित्सक को सक्षम परिचारिकाओं के सहयोग से
निषेचित किए गए उनके भ्रूण का सफल प्रत्यारोपण उनकी सगी बहन गंगा के गर्भ में
करना पड़ा था (वाल्मीकि रामायण-बालकांड, सर्ग-37, श्लोक-16/17)। इस प्रकार
गंगा के गर्भ से विश्व का प्रथम परखनली शिशु (टेस्ट ट्यूब बेबी) के रूप
शंकर-पार्वती का पुत्र स्कंद पैदा हुआ (स्कन्द इत्यब्रुवन् देवाः स्कन्नं
गर्भपरिस्रवे) तथा गंगा मानवी-सृष्टि की पहली रोहिणी यानी स्थानापन्न माता
(Surrogate Mother) बनीं। चूंकि इस बालक का लालन-पालन छह कृतिकाओं (दाइयों)
ने किया था, अतः यह षडानन या फिर कार्तिकेय के नाम से ही अधिक विख्यात रहा
(वाल्मीकि रामायण, बालकांड-सर्ग-37, श्लोक-23, 24 व 28)।
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