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भारतीय जीवन और दर्शन >> द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

द्रष्टव्य जगत् का यथार्थ - भाग 1

ओम प्रकाश पांडेय

प्रकाशक : प्रभात प्रकाशन प्रकाशित वर्ष : 2016
पृष्ठ :288
मुखपृष्ठ : सजिल्द
पुस्तक क्रमांक : 2684
आईएसबीएन :9789351869511

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प्रस्तुत है भारत की कालजयी संस्कृति की निरंतता एवं उसकी पृष्ठभूमि....


अपने पिता रुद्र-पिनाकी (शंकर) की ही भाँति कार्तिकेय भी एक अजेय योद्धा व कुशल रण-विशेषज्ञ रहे थे। उनकी इसी क्षमता से प्रभावित होकर देवताओं ने दानवों के विरुद्ध आहूत संग्राम में कार्तिकेय से देव-सेनापति का दायित्व निभाने की याचना भी की थी। अपने अपूर्व पराक्रम का प्रदर्शन करते हुए कार्तिकेय ने इस युद्ध में दानव-सम्राट् सहित उसके सभी योद्धाओं को मारकर दानवी सैन्य-शक्ति को एकदम से जर्जर कर डाला था। उपकृत देवताओं द्वारा इंद्र के पद पर अभिषेशित किए जाने पर कार्तिकेय अपने पितृ-स्थान कैलाश को छोड़कर दानवों से विजित भूमि पर 'स्कंध' नामक नई नगरी बसाकर रहने लगे। आश्चर्यजनक रूप से यूरोप के नार्वे, स्वीडन, डेनमार्क आदि अलग-अलग संप्रभुता-संपन्न राष्ट्रों को सामूहिक रूप से जहाँ आज भी 'स्कैंडेनिविया' के ही नाम से जाना जाता है, वहीं स्वीडिश भाषा में स्वीडन को 'स्वेर्गे' (Sebergye) तथा नार्वे को 'नेर्गे' (Nergye) ही कहा जाता है। कदाचित् इंद्र (कार्तिकेय) द्वारा स्थापित की गई ‘स्कंध नगरी' को देवभूमि घोषित किए जाने के पश्चात् इस क्षेत्र को 'स्वर्ग' कहने की जो परिपाटी प्रारंभ हुई होगी, कालक्रम में भाषागत विकृति के परिणामगत आए बदलावों के कारण इन्हीं का उच्चारण ‘स्कैंडेनिविया' या 'स्वेर्मे' के रूप में होने लगा होगा। दानव मर्क के प्रभाववाले राज्य को 'डेनमार्क' कहने की परिपाटी भी उच्चारणगत दोषों का ही एक प्रत्यक्ष प्रमाण है। इस प्रकार कार्तिकेय का देवराट् इंद्र बनकर 'स्कंध' (स्कैंडेनेवियन रीजन) में स्थापित हो जाने से भारतीय हिम-क्षेत्र में चली आ रही रुद्रों की विशिष्ट वेशभूषा व आचार-व्यवहारवाली वंश-परंपरा का एक प्रकार से पटाक्षेप हो गया।

कार्तिकेय के नियमित रूप से देव-कार्यों में लगे रहने तथा कैलाश से दूर रहने के कारण पार्वती ने वात्सल्यता की वैकल्पिक व्यवस्था के लिए रुद्र के गण रहे एक यक्ष के पुत्र को गोद लिया। वैसे तो श्रद्धा के अतिरेक में भारतीय गाथाएँ इस बालक के अस्तित्व में आने की अनेक किंवदंतियों (यथा शिव द्वारा पंच तत्त्वों से निर्मित या पार्वती के उबटन के मैल से उत्पन्न शिशु या फिर कृष्ण द्वारा पार्वती की तपस्या पर प्रसन्न होकर उनके गर्भ से जन्म लेना तथा शिरोच्छेदन के पश्चात् गजमस्तक लगाने पर जीवित होना आदि घटनाओं) से भरी पड़ी हैं, परंतु गर्भाधारण में असमर्थ रही पार्वती के भ्रूण-प्रत्यारोपण द्वारा उत्पन्न एकमात्र पुत्र की वास्तविकता तथा यक्षों की भाँति डील-डौलवाले इस बालक की विचित्र देहयष्टि निश्चित रूप से इसे एक यक्ष-पुत्र के रूप में ही चिह्नित करती है। शंकर-पार्वती का यह दत्तक पुत्र एक आज्ञाकारी व कुशाग्र बुद्धिवाला बालक रहा था, किंतु यक्ष कुल की स्वभावगत विशेषताओं के कारण रुद्र-परंपरा की विशिष्ट शैली को अपनाने के बजाय इस बालक ने यक्षों में प्रचलित गण-व्यवस्था को ही नई दिशा प्रदान की। यही कारण रहा कि रुद्र के स्वाभाविक उत्तराधिकारी के बजाय इन्हें गण का ईश (स्वामी) यानी गणेश या गणपति के विशिष्ट रूप में ही जाना गया। कालांतर में गणपति के इसी वैशिष्ट्य के कारण ही सांकेतिक रूपकों के माध्यम से पौराणिक चित्रों. में इनके अंग-विन्यास को एक सुदृढ़ गण-व्यवस्था के द्योतक के रूप में भी समझाने का प्रयास किया गया। प्रजापति या गणपति के लिए आवश्यक बड़ा सिर (कुशाग्र बुद्धि), छोटी आँखें (सूक्ष्म दृष्टि), बड़े कान (सजगशीलता), लंबी नाक (संवेदनशीलता) के प्रतीकात्मक रूप का आभास दिलाने के लिए ही पौराणिक चित्रों में जहाँ इन्हें गजानन जैसा चित्रित किया गया है, वहीं गण-व्यवस्था की संपन्नता का संकेत देने के लिए इन्हें मोदक का भोग लगाते हुए लंबोदर के रूप में भी दिखाया गया है। राज्य की चारों दिशाओं की वाह्य अभिरक्षा (External Defence) तथा आंतरिक सुरक्षा (Internal Security) पर ध्यान इंगित करने के आशय को स्पष्ट करने के लिए गणपति (गणेश) को पाँच सिरोंवाला भी बताया गया है। इसी प्रकार गणेश की चार भुजाएँ जहाँ धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष जैसे चार पुरुषार्थों की द्योतक हैं, वहीं इन हाथों में धारण अस्त्रों में पाश राग का, अंकुश क्रोध का, वरदहस्त कामनाओं की पूर्ति का तथा अभयहस्त सुरक्षा का संकेत करते हैं। प्रजापति या गणपति को अनिवार्य रूप से असामाजिक तत्त्वों पर कठोर अंकुश रखने की सीख देने के उद्देश्य से गणेश के उपर्युक्त वर्णित भारी-भरकम देहयष्टि को मूषक (जैसे अति सूक्ष्म व कुतरनेवाले जीव) पर सवार होते भी दिखाया गया है। संभवतः गणपति का यह रूपक ही कालांतर में गजानन के विषय में प्रचलित विभिन्न आस्थाजनक किंवदंतियों का आधार बना होगा। इस प्रकार गणेश की आकृति अपने आप में एक आदर्श गण-व्यवस्था (प्रजातंत्र) का सूत्र प्रदान करती है। गणेश की ऋद्धि व सिद्धि नामक दो अति गुणवती पत्नियाँ रही थीं, किंतु इनसे उन्हें कोई संतान की प्राप्ति नहीं हो पाई। यही कारण रहा कि इनके द्वारा स्थापित व्यवस्था में वंश-परंपरा के बजाय योग्यता के आधार पर जनता द्वारा मनोनीत व्यक्तियों में सत्ता का हस्तांतरण होता रहा था। इस तरह प्राचीन काल से भारत में चली आ रही गणपति की आराधना यही सिद्ध करती है कि प्लूटो व सुकरात से भी सदियों पूर्व ही नहीं अपितु विश्व की प्रथम गण-व्यवस्था का सूत्रपात इसी देश से प्रारंभ हुआ था।

इस प्रकार रुद्र (पिनाकी-शंकर) व उनके औरस तथा दत्तक पुत्रों के पश्चात् उनके प्रमुख गणों, यथा-नंदी, भुंगी, वीरभद्र, भैरव, अंगारक, निर्ऋति, सदास्पति, अजैकपाद, बहुरूप, अहिर्बुध्न्य, उर्ध्वकेतु, ज्वर, उपद्रष्ट्री, दंडीमुख, प्रचंड, मृगव्याध, वृषभ, भृग, तारक, महाकर्ण, महापाश, कपाली, भूतनाथ आदि तथा उनसे प्रसूत शाखाओं के शीर्ष पुरुषों ने अपने-अपने समय में रुद्र-परंपरा को यथावत् बनाए रखने के लिए कार्य, कारण, योग, विधि व दुखांत के आधार पर 'शैवागम' का व्यापक प्रसार-प्रचार भी किया। किंतु परिस्थितिजन्य कारणों से कालक्रम में आए भटकावों के कारण रुद्र-गणों में व्याप्त रहे शिवत्व के निर्विकल्प भावों के विपरीत इनके परवर्ती अनुयायियों में तंत्र-पूजा व वामाचार अनुष्ठानों का वर्चस्व ही प्रमुखता से पनपता चला गया। इसके परिणामस्वरूप पल्लवित हुई तदंतर की साधना-पद्धतियों को शैव तथा शाक्त नामक दो विभिन्न धाराओं में वर्गीकृत किया जाने लगा। शैव धारा में अध्यात्म की पराकाष्ठा तक पहुँचनेवाले माहेश्वरी, लिंगायत, प्रत्याभिज्ञा-दर्शन व श्रीकंठी अद्वैतवादी संप्रदायों के साथ-साथ कालमुख व कापालिक जैसे अघोर संप्रदायों का अस्तित्व जहाँ उभरकर सामने आया, वहीं शाक्त धारा में दक्षिणाचार (सात्त्विक) तथा वामाचार (तामसिक) नामक दो संप्रदाय विकसित हुए। कालमुख, कापालिक व वामाचार संप्रदायों की अघोर तामसिक प्रवृत्तियों के कारण कालांतर में शिव तथा शिवा के साथ मांस, मत्स्य, मद्य, मैथुन, मुद्रा इन पंच-मकार समेत गाँजा-भाँग, मानव-कपाल तथा श्मशान-भस्म जैसे बीभत्स उदाहरण भी जुड़ते गए। मिन, सुमेर व बेबीलोनिया की प्राचीन सभ्यताओं में प्रचलित ‘शिश्न उपासना' व 'बलि-प्रथा' के पुरातत्त्वीय साक्ष्य सुदूर पश्चिम में इन्हीं संप्रदायों के तात्कालिक प्रभावों को ही रेखांकित करते हैं। अपने इन्हीं अघोर आचरणों के कारण भारत के कुछ कट्टरपंथी शैवों का अपेक्षाकृत सात्त्विक प्रवृत्तिवाले अहंकारी वैष्णवों से लगातार संघर्ष भी होता रहा। शैवों तथा वैष्णवों के इस टकराव को निर्मूल करने के उद्देश्य से ही गोस्वामी तुलसीदास को, ‘रामचरितमानस' में विष्णु के अवतार के रूप में निरूपित किए गए दाशरथी राम के मुख से 'शंकर प्रिय मम द्रोही शिव द्रोही मम दास, ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास' कहलाना पड़ा था। संभवतः इसी का परिणाम रहा कि दक्षिण की तुलना में उत्तर भारत में शैव-शाक्त व वैष्णव संप्रदाय अब आपस में प्रायः घुल-मिल गए हैं।

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